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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
श्रीबलदाऊ के साथ श्रीकृष्णचन्द्र नन्हीं-सी भुजा फैलाकर लिपट पड़ते। दोनों परस्पर एक-दूसरे के प्रति अपना प्राबल्य दिखाते हुए से-कभी श्रीकृष्ण ऊपर तो राम नीचे, राम ऊपर तो श्रीकृष्ण नीचे-इस प्रकार एक परम मनोहारी अभिनव मल्ल-क्रीड़ा की रचना करते। अपनी इस बाल्यमाधुरी से ब्रज सुन्दरियों को हँसा-हँसाकर लोट-पोट कर देते। दोनों भाइयों की शोभा भी-वे जब कभी भी एकत्र होते अद्भुत ही होती। ओह! स्वच्छता तो ऐसी मानो स्फटिकमणि के पाश्व में महामरकत हो। स्निग्धता वह, मानो पूर्ण चन्द्रमण्डित जलधर-अंकुर हो। सौरभ्य, सौकुमार्य ऐसे मानो पुण्डरीक (उज्ज्वल कमल) के सहित नीलोत्पल विकसित हुआ हो। सुखमयी चेष्टा ऐसी मानो हंसवलित यमुनालहरी हो। श्रीअंगकान्ति ऐसी मानो ज्योत्स्नाखण्ड-समन्वित तिमिर अंकुर हो।
अस्तु! तब से आज एक पक्ष पूर्ण हो रहा है। श्रीकृष्णचन्द्र का नृत्यदर्शन, गानश्रवण, क्रीड़ावलोकन ही व्रजसुन्दरियों की अविच्छिन्न दिनचर्या है। अब इस समय कोजागरी (आश्विन पूर्णिमा की) रजनी में जागरण करने के मिससे वे नन्दालय में एकत्र हुई हैं तथा महान आश्चर्य है, आज अभी तक श्रीकृष्णचन्द्र भी निद्रित नहीं हुए। हों कैसे? उन्हें तो जगत् के समक्ष, जगत् के अनन्त योगीन्द्र-मुनीन्द्रों के सामने अपने अप्रतिम भक्ताधीनता प्रकाशित करनी है। अपनी अतुल भृत्यवश्यता को प्रकट करते हुए ही तो वे प्रतिक्षण व्रजरामाओं के संकेत पर नित्यनूतन बाल्यचेष्टा का विकास करते थे, व्रज को आनन्द में निमग्न कर देते थे-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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