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- कोऊ कहै ललन देखौ मोर कैसैं नचैं, कोऊ कहै भ्रमर कैसें गुँजारैं।
- कोऊ कहै पौर लगि दौर आऔ लाल, रीझ मोतीन के हार वारैं।।
- जो कछु कहैं व्रजबधू सोइ सोइ करत, तोतरे बैन बोलन सुहावैं।
- रोय परत बस्तु जब भारी न उठै तबै, चूम मुख जननी उन सौं लगावैं।।
- बैन कहि लोनी पुनि चाहि रहत बदन हँस, स्वभुज बची लै लै कलोलैं।
- धाम के काम व्रजबाम सब भूल रहीं, कान्ह बलराम के संग डोलैं।।
- सूर गिरिधरन मधु चरित मघु पान कै, और अमृत कछू आन लागै।
- और सुख रं की कौन इच्छा करै, मुक्तिहू लौन सी खारी लागै।।
कभी स्वजनों का आनन्दवर्द्धन करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र बाहुक्षेप करते-ताल ठोंकते। उस समय गोपिकाएँ कदाचित कह बैठतीं-‘नीलमणि! तेरी अपेक्षा तो राम में बल अधिक है।’ यह सुनकर श्रीकृष्ण अपने चूर्णकुन्तलमण्डित सिर को हिला-हिलाकर असम्मति प्रकट करते। रोहिणीनन्दन राम भी अपने अनुज की ओर देखकर हँसने लगते। गोपांगनाएँ दोनों को पुचकारकर पास खड़ा कर देतीं। स्वयं दो मण्डलों में विभक्त हो जातीं। एक मण्डली श्रीकृष्ण को अधिक बलवान् बताती, दूसरी रोहिणीतनय राम का पक्ष समर्थन करती। फिर तो-
- बलेन सममन्योन्यं प्राबल्यं दर्शयन्निव। ऊर्द्ध्वाधोभावमासाद्य सर्वा हासयति स्म सः।।[1]
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