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जिस समय श्रीकृष्णचन्द्र उस असंख्य धेनु राशियों से मिल रहे हैं, उस समय उनक चरण सरोरूह ह्नद की उस जली हुई तट-भूमि को, तृणरहित स्थल को स्वाभाविक अपना पावन स्पर्श-दान करते जा रहे हैं और इसका यह तत्क्षण परिणाम हो रहा है- अद्भुत हरितिमा वहाँ व्यक्त होने लगती है। वह जला हुआ स्थल-देश मनोहर तृण-संकलित श्यामल बन जाता हैं इतना ही नहीं, ह्नद की सीमा से पार के जो वृक्ष विष की ज्वाला से झुलस गये थे, वे भी नीलसुन्दर की दृष्टि पड़ते ही तत्क्षण पल्लवित, पुष्पित हो गये-
- नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम्।[1]
- धेनु बृच्छ बछरा ब्रष सारे।
- लहे परम आनँद अति भारे।।
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