श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
65. श्रीकृष्ण के द्वारा कालिय ह्नद के नीचे तक उद्वेलित होने पर कालिय का क्रुद्ध होकर बाहर निकलना, श्रीकृष्ण को बार-बार कई अंगों में डसना और अन्त में उनके शरीर को सब ओर से वेष्टित कर लेना; यह देखकर तट पर खड़े हुए गोपों और गोप बालकों का मूर्च्छित होकर गिर पड़ना
किंतु- ‘अरे! यह तो एक शिशु है। सौन्दर्य का निर्झर झर रहा है इसके अंगों से! कैसा नयन-सुखद सुकुमार है यह! नवजलधर की श्यामलता भरी है इसकी अंग कान्ति में! वह नीलिमा प्रतिबिम्बित हो रही है ह्नद की ऊर्मियों में। सम्पूर्ण ह्नद ही उस श्याम द्युति से उद्भासित हो रहा है। कहाँ गयी इसकी वह विष ज्वाला! अब यहाँ तो सर्वत्र सुधा का प्रसरण है, शिशु के अंगों से प्रसरित आनन्द का प्रवाह है। शिशु के श्याम कलेवर के कटि देश में पीताम्बर परिशोभित है। सुविस्तीर्ण वक्षःस्थल पर कैसी शोभा है, स्वर्णाभ दक्षिणावर्त सूक्ष्म रोमराजि (श्रीवत्स चिह्न) की। तथा वेग पूर्ण संतरण के आवेश में श्रीवत्स से सटे हुए पीताभ उत्तरीय की। मृदु-हास्य-समन्वित कितना सुन्दर इसका मुख कमल है। कमल कोश से भी अधिक सुकोमल कैसे इसके अरुण चरण हैं।’ कालिय एक बार तो विथकित-सा रह गया। आगे बढ़ने की उसकी गति रुक-सी गयी। पर आसुरी सम्पदा से पूरित हृत्तल में शुभ भावनाएँ स्थिर होतीं जो नहीं। ...से निमित्त पाकर वस्तु शक्ति के प्रभाव से विद्युत रेखा-सी एक ज्योति जग उठती है, सत्य के प्रकाश से हृत्तल आलोकित हो उठता है। किंतु पुनः तिमिर का घन आवरण पूर्व की भाँति ही हृदय को छा लेता है और प्राणी प्राकृत प्रवाह में बहने लगता है। यही दशा कालिय की हुई। लीला शक्ति की अचिन्त्य प्रेरणा से क्षण भर के लिये सर्प के तमोमय हृदय में एक अत्यधिक छोटा-सा छिद्र बन गया, नीलसुन्दर के अप्रतिम सौन्दर्य की एक रेखा उस छिद्र से झलमल कर उठी। किंतु पुनः कालिय ने उस द्वार को रुद्ध कर लिया। पात्र के अनुरूप ही तो परिणाम होना चाहिये और हुआ ही। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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