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मानो, इस समय अपने मत्स्य-कूर्म आदि स्वरूपों से अवतरिक होने की घटना, उन-उन दुष्टों के दमन की बात, खलनिग्रह की अपनी प्रवृत्ति- इन सबका श्रीकृष्णचन्द्र को स्मरण हो आया हो और वे उन भावों से भावित हो उठे हों- इस प्रकार उनकी दृष्टि नीचे अवस्थित कालिय ह्नद पर पड़ी, नहीं-नहीं स्वयं कालिय पर ही पड़ी; तथा फिर क्षणार्ध का सहस्रांश मात्र बीतने से कालिय के अत्युग्र विषमय प्रभाव पराक्रम की समीक्षा करके लौट भी आयी। श्रीकृष्णचन्द्र अर्द्ध निमीलित नयनों से अब कलिन्द नन्दिनी के सुदूर कल-कल प्रवाह की ओर देखने लगे। उन्होंने स्पष्ट देख लिया- केवल तीर भूमि ही नहीं, तपनतनया का वह मञ्जुल प्रवाह भी कितने बृहत अंश में इस कालिय ने विष दूषित कर दिया है! अनन्त करुणार्णव व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र फिर विलम्ब क्यों करें! कदम्ब की तुंग शाखा अतिशय वेग से कम्पित हुई और नीलसुन्दर उस विषमय ह्रद में ही कूद पड़े-
- तं चण्डवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन दुष्टां नदीं च खलसंयमनावतार:।
- कृष्ण: कदम्बधिरूह्य ततोऽतितुंगमास्फोट्य गाढरशनो न्यपतद् विषोदे॥[1]
- जिहि जल छुवत जात जन जरे।
- तिहि जल कुँवर कूदि ही परे।।
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