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नीलसुन्दर के सलोने दृगों में मानो कालियह्नद की वह भयंकरता प्रतिबिम्बित हो उठी- नहीं-नहीं, चुभने-सी लगी- ‘अरे! यह विषपूर्ण गर्त तो एक योजन परिमित दीर्घ एवं विस्तृत है! देवगण भी इसको पार कर जायँ, यह दुस्साध्य ही है। यह अत्यन्त गम्भीर है, ह्रास वृद्धिविहीन सागर के समान ही इसका जल भी है। फिर भी जल जन्तुओं से, जलचर पक्षियों से यह शून्य है; इसकी अगाध जलराशि मेघावृत आकाश-सी प्रतीत हो रही है। इसकी तीर भूमि सर्पो के आवास भूत अनेकों बिलों से पूर्ण है, इतना ही नहीं, सर्पगण इनमें निवास भी कर रहे हैं; अतएव अगम्य बन गया है यात्रियों के लिये ह्नद का यह तट। सर्पों के श्वास से उद्भूत अग्नि धूम इसे परिवेष्टित किये हुए हैं। व्रजपुर वासियों के पशुगण इसके जल का भोग नहीं कर सकते, तृषार्त एवं जल की आशा लेकर आने वालों के लिये इसका जल अपेय बन रहा है। और तो क्या, त्रिषवणार्थी (तीन बार स्नान करने वाले) अमरवृन्द ने भी इसका उपभोग करना त्याग दिया। आकाश पथ से पक्षियों के लिये भी इसके ऊपर संचरण करना सम्भव नहीं है। झंझावात के झोकों में उड़कर गिर जाने वाले तृणपत्र तक इसके विष तेज से तत्क्षण भस्म हो जाते हैं। ह्रद के चारों ओर चार कोस भूमितल की कैसी भीषण दुर्दशा है।
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