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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
9. शिशु श्रीकृष्ण का अन्नप्राशन-महोत्सव, कुबेर के द्वारा गोकुल में स्वर्ण वृष्ठि
हृदय के दक्षिण भाग में रोमावली का अनादि सिद्ध श्रीवत्स नामक चिह्न अंकित था ही। उसकी शोभा भी अद्भुत ही थी, मानो मृणालतन्तुओं का चूर्ण एकत्र हो गया हो। वैसे ही सुन्दर, वैसा ही सुस्निग्ध! किंतु श्रीवत्स को देखकर जननी ने तो यह समझना था - मैं शिशु को स्तन्य पिला रही हूँ, मेरे स्तन क्षरित दुग्ध कण ही पुत्र के कपोल पर होते हुए वक्षःस्थल पर आ ढलके हैं; उन दुग्ध कणों से ही यह चिह्न निर्मित हो गया है। इतना ही नहीं, जननी सुकोमलतम सूक्ष्म वस्त्राञ्चल से धीरे-धीरे उसे पोंछ देने का प्रयत्न करने लगी थीं। किंतु चिह्न मिटता न था। जब वस्त्र से उस चिह्न का मार्जन न कर सकीं, तब वे सोचने लगी थी कि सम्भवतः यह किसी महापुरुष का लक्षण हो-
इसी तरह आज पुनः पूर्व की भाँति जननी को एक क्षण के लिये भ्रम हो जाता है कि निद्रित नीलमणि के अधरों से क्षरित दुग्ध कण ही यहाँ आ कर इस रूप में परिणत हो गये हैं। अवश्य ही इस बार वे मार्जन करने नहीं जाती; क्योंकि तुरंत ही अन्तर्वृत्ति सचेत कर देती है। जननी अपनी भूल पर मन्द-मन्द मुसकराती हुई वस्त्रों से शीत-निवारण की उचित व्यवस्था करके पुत्र को हृदय से लगा लेती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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