पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. शिशुपाल-वध
सब लोग स्तब्ध रह गये किन्तु शिशुपाल के समर्थकों में से कोई भी एक शब्द बोलने तक का साहस नहीं कर सकता। सहदेव के मस्तक पर गगन से पुष्प वर्षा होने लगी। देवताओं ने पुकारा- साधु ! सहदेव साधु ! तुम्हारा साहस और व्यवहार श्लाध्य है।’ सहदेव ने अब यथाक्रम सबकी पूजा प्रारम्भ कर दी शिशुपाल की उपेक्षा कर दी गयी, जैसे वह नगण्य हो अथवा वहाँ हो ही नहीं। पाण्डवों ने सब राजाओं को सत्कृत किया किन्तु शिशुपाल को छोड़ ही दिया। शिशुपाल के नेत्रों से जैसे अंगार झड़ने लगे। यज्ञ में विघ्न डालने पर वह उतारू हो गया था। उसने वहीं खड़े होकर हाथ में नग्न खड्ग लेकर राजाओं को पुकारा- ‘मैं सेनापति बनकर खड़ा हूँ। आप सब इतना अपमान सहकर शान्त क्यों बैठे हैं ? आइये हम लोग मिलकर पाण्डवों तथा यादवों की सम्मिलित शक्ति को आज सदा के लिए समाप्त कर दें।’ भीष्म हंसकर बोले- ‘युधिष्ठिर ! जीव का सदा सब समय प्रत्येक परिस्थिति में एक ही कर्तव्य है कि अपने को अशरण-शरण, भक्त-भयहारी भगवान् के आश्रय में छोड़ दे और निर्भय निश्चिन्त रहे। सर्व-समर्थ श्रीकृष्णचन्द्र की उपस्थिति में भय का कारण नहीं है। सिंह को देखकर जैसे श्वान भूंकने लगे, वैसे ही मूर्ख शिशुपाल मृत्यु के मुख में जाना चाहता है। लगता है कि श्रीकृष्ण इसका तेज अब खींच लेना चाहते हैं। ये माधव की सम्पूर्ण जगत के मूल कारण तथा प्रलय स्थान हैं, अत: तुम निश्चिन्त रहो।’ भीष्म की बात सुनकर शिशुपाल चिढ़कर बोला- ‘तुम्हें सब राजाओं को धमकाते लज्जा नहीं आता? वृद्ध होकर कुल कलंक हो तुम ! मूर्ख भी जिसकी निन्दा करते हैं उसी गोप की तुम ज्ञानी होकर स्तुति कर रहे हो। इसने बचपन में पक्षी, घोड़ा ही नहीं मारा, बैल भी मारा है। पूतना को मारकर यह स्त्रीघाती बन गया और अपने मामा कंस का ही इसने वध किया। धर्मज्ञानी जी ! तुम इसी स्वजन घाती को जगत्पति कहते हो? अपने स्वभाव की नीचता के कारण ही तुमने पाण्डवों को भी वैसा ही बना दिया। धर्म की आड़ में तुमने ही कौन से कम दुष्कर्म किये। |
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