पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
22. शिशुपाल-वध
ये पुरुषोत्तम केवल हमारे ही नहीं, सुरों सहित सम्पूर्ण त्रिभुवन द्वारा पूजित हैं। यह जगत इन सर्वात्मा के ही आधार पर स्थिर है। मैंने महर्षियों के मुख से श्रीकृष्ण माहात्म्य सुना है। यहाँ आये श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मत्ति मैंने जान ली है। हमने स्वार्थ वश या सम्बन्ध के कारण इन अच्युत का पूजन नहीं किया है। हमने पूजा इसलिए की है कि समस्त जगत के प्राणियों का मंगल इन जनार्दन के चरणों की अर्चना में ही है। यश, शूरता, सद्गुण में कोई पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की समता नहीं कर सकता। ज्ञान तथा पराक्रम दोनों दृष्टियों से जो सर्वश्रेष्ठ है, जिनमें दान, कौशल, शास्त्र ज्ञान, शौर्य, संकोच, कीर्ति, बुद्धि, विनय, लक्ष्मी, धैर्य, तृष्टि, पुष्टि का नित्य निवास है, वे परमज्ञानी श्रीकृष्ण हमारे आचार्य, पिता, गुरु, ऋत्विक, सर्वस्व हैं। इसलिए हमने उनकी पूजा की है।’ ‘विश्व की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय जिनका लीला-विलाप है, जिनकी क्रीड़ा के लिए जड़-चेतन सचराचर सृष्टि प्रकृति प्रकट करती है, जो स्वयं विश्वरूप हैं और प्रकृति से परे हैं, जो जनम-मरण से असंस्पृश्य सर्वसञ्चालक हैं उनसे अधिक पूज्य कोई कैसे हो सकता है।’ ‘यहाँ जितने राजर्षि, महर्षि उपस्थित हैं उनमें कौन है जो श्रीकृष्ण को पूज्य न मानता हो ? जिसे उनके चरणों में मस्तक रखने में अपना सौभाग्य न प्रतीत हो ? युधिष्ठिर ! श्रीकृष्ण की निन्दा करने वाले से बोलना भी अधर्म है। अत: शिशुपाल और उसके साथी जो करना चाहें, करें। उनसे कुछ मत कहो। वे उपेक्षणीय हैं।' पाण्डु पुत्रों को भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अपशब्द असह्य हो उठे थे। पितामह भीष्म के चुप होते ही माद्री नन्दन सहदेव उठ खड़े हुए। उनके नेत्र अंगार हो उठे थे। ओष्ठ फड़क रहे थे। वे क्रोधपूर्वूक जर्गना करते बोले- ‘भगवान् श्रीकृष्ण हमारे और समस्त जगत के आराध्य हैं। वे सर्वश्रेष्ठ हैं अत: हमने उनकी प्रथम पूजा की है। जिन्हें यह बात सहन नहीं हो रही है उनके मस्तक पर मेरा यह वाम पद ! जिसको विरोध करना हो वह बोले, मैं उसका वध करूँगा। सब वुद्धिमान्, श्रेष्ठजन श्रीकृष्ण की पूजा का समर्थन करें।’ सहदेव ने यह कहकर अपना वाम पद उठाकर जोर से पटक दिया। |
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