पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव
महारानियाँ क्या कहें- ‘तुम कोई सेवा का अवसर भी तो दो !’ राजसभा में उठाने योग्य चर्चा नहीं थी। श्रीकृष्णचन्द्र के समीप धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा कुल पुरोहित के साथ अन्तरंग सभाग्रह में बैठे थे। वहीं उन्होंने प्रणाम करके कहा- ‘भगवन् ! देवर्षि ने सन्देश किया है कि स्वर्गस्थ पिता मेरे द्वारा राजसूय सम्पन्न हुआ देखना चाहते हैं। मैं भी यह यज्ञ करना चाहता हूँ; किन्तु केवल चाहने मात्र से तो यह महानतम कार्य हो नहीं सकता। देवर्षि ने चेतावनी भी दी है कि असुर तथा विघ्नों के अधिदेवता ऐसे कार्य में बाधा देने के अवसर की प्रतीक्षा में ही रहते हैं। राजसूय यज्ञ अनेक बार महान्-क्षत्रिय-विनाश का हेतु भी होता है। अत: आप सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ की सम्मत्ति चाहिए मुझे। मेरे लिए तो आपके श्रीचरण ही एक मात्र आश्रय हैं।’ श्रीकृष्णचन्द्र गंभीर हो गये। भूभार-हरण तो उनके अवतार का मुख्य प्रयोजन ही था, अत: विघ्न तथा क्षत्रिय-विनाश की ओर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। विघ्नों को वर्जित करने के लिए उनका स्मरण ही पर्याप्त होता है, इस यज्ञ में तो वे स्वयं उपस्थित रहने वाले थे। उन्होंने युधिष्ठिर के सम्मुख केवल एक प्रश्न उपस्थित किया।’ ‘आपमें सभी सद्गुण हैं। आपके भाई लोकपालों के अंश से उत्पन्न हैं और जो मेरे अवलम्ब पर स्थिर हैं उनको देवता भी पराभव नहीं दे सकते, मानव नरेशों की चिन्ता क्या। विघ्नेश आप पर प्रसन्न हैं आपकी आराधना से। मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ। अत: कोई विघ्न–बाधा छाया डालने का भी साहस नहीं करेगी। आप राजसूय यज्ञ करने के उचित अधिकारी हैं। और उसे करने में समर्थ हैं; किन्तु मगधराज जरासन्ध के सम्बन्ध में विचार किया जाना चाहिये। ‘जरासन्ध ने अपने पराक्रम से प्राय: समस्त राजाओं को पराजित कर दिया है और बहुतों को तो उसने बन्दी बना रखा है। इस समय वही सबसे प्रबल है। शिशुपाल उसे पिता मानता है और उसका सेनापति है। करुषाधिप माया युद्ध कुशल दन्तवक्र शिष्य के समान उसकी सेवा करता है। आपके पिता के मित्र भगदत्त उसके संकेत के अनुसार अपने राज्य का शासन करते हैं। ‘मुर, नरकासुर, पौण्ड्रक तथा अन्य दूसरे नरेशों ने भी जरासन्ध का आश्रय ले रखा है। औरों की बात जाने दें। मेरे सगे श्वसुर भीष्मकजी जो धरा के चतुर्थांश के स्वामी हैं, देवराज इन्द्र के सखा हैं, अपने पराक्रम से जिन्होंने पाण्ड्य, क्रथ, कैशिक देशों पर विजय प्राप्त की थी, जिनके भाई भगवान् परशुराम के समान बलवान् हैं, वे दक्षिणापथ विजयी भी जरासन्ध के ही वश में हैं। उसी से मैत्री रखते हैं। |
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