पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. माया-दर्शन
श्रीकृष्णचन्द्र हंसकर भीमसेन के साथ ही राजभवन लौट आये; किन्तु भीम का मुख लटका ही रहा। वे उदास बने रहे। माता कुन्ती ने उनसे उदासी का कारण पूछा तो रो पड़े। उन्होंने जो कुछ देखा था, सुना दिया। भीमसेन ने कहा- ‘श्रीकृष्ण ने जो कुछ दिखलाया, वह सर्वथा निराधार नहीं हो सकता। यह तो मैं समझ गया कि द्रौपदी महामाया है; किन्तु उसका वह अपूर्ण खप्पर मेरे मने से उतर नहीं रहा है।’ माता कुन्ती ने अपने पुत्र को आश्वासन दिया। माता-पुत्र ने उसी समय कुछ बातें कीं और उस सम्मति के कारण भीमसेन रात्रि में निश्चिन्त होकर सो सके। प्रात:काल भीमसेन माता के समीप ही पीछे के कक्ष में छिपे बैठे थे, जब देवी द्रौपदी अपनी सास की चरण-वन्दना करने आई। यह उनका नित्य का नियम था। कुन्ती ने आशीर्वाद देने के अनन्तर कहा- ‘बेटी, आज मैं तुझसे कुछ माँगना चाहती हूँ, यदि तू मुझे निराश न करने का वचन दे।’ द्रौपदी ने सहज भाव से कह दिया- ‘माताजी, आप आज्ञा करें।’ कुन्ती ने कहा- ‘बहू ! मुझे मेरे पाँचों पुत्रों के जीवन का वरदान दे।’ द्रौपदी ने सहसा सिर झुका लिया दांतों से जिह्वा दबाई और दो क्षण रुककर कहा- ‘अच्छा माताजी !’ मन में उसने कहा- ’श्रीकृष्ण ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।’ पता नहीं यह घटना न होती तो महाभारत युद्ध में भीमसेन बच भी पाते या नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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