पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. परीक्षित को पुनर्जीवन
उत्तरा मूर्च्छित पड़ी थीं। द्रौपदी ने उसके समीप शीध्रता से पहुँचकर कहा- 'बहू ! तुम्हारे श्वसुर तुल्य अमित प्रभाव भगवान मधुसूदन तुम्हारे समीप आ रहे हैं।' उत्तरा ने अपने वस्त्र सम्हाले। द्रौपदी ने उसकी सहायता की और उसे उठकर बैठने से रोका। वह तपस्विनी व्यथित बालिका लेटे-लेटे ही हाथ जोड़कर रोते-रोते बोली- 'आप आ गये जनार्दन ! अब मैं आपका दर्शन करते-करते शान्ति से मर सकूँगी। आपके भागिनेय तो तुझ अभागिनी को त्यागकर पहिले ही परलोक चले गये थे। उनकी धरोहर भी बची नहीं। उनका वंश समाप्त हो गया। अब उत्तरा क्यों जीवित रहें?' 'तुम अभिमन्यु के शिशु का पालन करने के लिए जीवित रहोगी।' श्रीकृष्ण बोल न उठते तो उत्तरा कदाचित उसी क्षण प्राण-त्याग देती। उसमें आश्वासन ने शक्ति दी। कातर कण्ठ से कहने लगी- 'बड़ी साध थी कि इसे में अंक में लेकर आपके पावन पदों में प्रणाम करूँगी; किन्तु सब पर अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र ने पानी फेर दिया। अब आप मुझे अपने स्वामी के समीप जाने से क्यो रोकते हैं? मैं इसका पालन करूँगी-आपकी आज्ञा कौन अस्वीकार कर सकता है, परन्तु इसे जीवन-दान दीजिये !' उत्तरा इतना कहकर मूर्च्छित हो गयी। द्रौपदी तथा चिकित्सक नारियाँ उसे सम्हालने में लग गयीं। उसे चेतना प्राप्त हुई तो उन्मादिनी के समान अपने शिशु के शव की ओर देखकर बोली- 'वत्स ! तू तो धर्मज्ञ पिता का पुत्र हैं। तेरे समीप में सर्वेश्वर तेरे पिता के भी पूज्य पुरुषोत्तम खड़े हैं, तू इन्हें प्रणाम क्यों नहीं करता? उठ और इनके चरणो में मस्तक रखकर प्रणाम कर !' श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से संकेत के द्वारा ही जल माँगा और वहीं आचमन करके मृत शिशु के शव के समीप बैठ गये। अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र उत्तरा के गर्भ में पूरे नौ महीने इस शिशु के आस-पास घूमता रहा था। वह अमोघ अस्त्र प्रयोक्ता के संकल्प को पूरा किये बिना तो शान्त होता नहीं; किन्तु गर्भ में वह शिशु तक पहुँचने में सफल नहीं हो सका। वहाँ ये चतुर्भुज कमल-लोचन श्रीकृष्ण अंगुष्ठ परिमाण रूप धरे नौ महीने प्रज्वलित गदा घुमाते शिशु के चारों ओर सुरक्षा के लिए सावधान रहे थे। इनके गदा के अखण्ड-मण्डलाकार तेज का भेदन करने में ब्रह्मशिरास्त्र भी असमर्थ रहा था। जब बालक के प्रसव का समय आया, गर्भ में से श्रीकृष्ण तिरोहित हो गये। शिशु के भूमि-स्पर्श के क्षण में ही ब्रह्मास्त्र को समय मिला और उसने शिशु को निष्प्राण कर दिया। अब भी वह अस्त्र अदृश्य रूप से वहीं था और उसके तेज से शिशु का शरीर दग्ध होकर काला पड़ता जा रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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