पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. परीक्षित को पुनर्जीवन
मेरे श्वसुर का पिण्डलोप हो रहा है, उसे बचा लो वासुदेव ! बेचारी विधवा बालिका उत्तरा से कभी अभिमन्यु ने कहा होगा- 'कल्याणी ! तुम्हारा पुत्र मेरे मामा के यहाँ जाकर मेरे भाई प्रद्युम्न से सम्पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा तथा दिव्यास्त्र प्राप्त करेगा।' उत्तरा इसे बार-बार दुहराती रही है। अपने दिवंगत भागिनेय की यह बात सत्य कर दो श्रीकृष्ण !' कुन्ती देवी यह कहते-कहते भूमि पर गिर पड़ीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें सहारा देकर बैठाया और बोले- 'बुआजी ! व्याकुल मत हो।' इतने में सुभद्रा सामने आ गयी। उन्होंने कहा- 'भैया ! मेरा एक मात्र पुत्र अभिमन्यु युद्ध में मारा गया तो मैने सन्तोष कर लिया कि उसने तुम्हारी सेवा की है, तुम्हारा स्नेह पाया है। उसका मंगल तुम उचित सोचते हो; किन्तु उसकी अबोध पत्नी उत्तरा की व्यथा मुझसे नहीं देखी जाती। अभिमन्यु का पुत्र तुम्हारे श्रीचरणों का दर्शन भी न पा सके और मर जाय, इतना अपयश सह लेना मेरे वश में नहीं है। तुम्हारे सब सखा प्रवास में गये हैं। वे सुनेंगे कि तुम्हारे यहाँ होते अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र विजय हो गया तो उन्हें कितना धक्का लगेगा? वे कैसे सह पावेंगे अपने कुल का समाप्त हो जाना। मैं तुम्हारे पौरुष से परिचित हूँ। ऐसा कुछ नहीं है जो तुम न कर सकते हो। ये मेरी पूजनीया सास तथा तुम्हारी सखी पाञ्चाली तुम्हारे पदों में पड़ी रो रही हैं। मैंने कभी तुमसे कुछ नहीं माँगा। आज हाथ जोड़कर भिक्षुकी के समान माँगती हूँ- अपनी इस पुत्रहीना बहिन के इस पौत्र को जीवन-दान दे दो !' भैया ! तुमने इस शिशु को जीवित कर देन की प्रतिज्ञा की है सबके सामने। अब यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा सत्य नहीं करते तो सुभद्रा तुम्हारा अयश सह नहीं सकेगी। वह तुम्हारे पैरों पर मस्तक रखकर आज ही प्राण त्याग देगी। मैं तुम्हारा प्रभाव जानती हूँ। तुम सम्पूर्ण लोकों को भी जीवन दे सकते हो- दे रहे हो, अत: इस शिशु को जीवित करो।' श्रीकृष्ण ने बहिन की ओर अपने विशाल नेत्र उठाये और कहा- 'तुम भी निराश और व्याकुल होती हो ! चलो, मै उस शिशु को देखना चाहता हूँ।' श्रीकृष्ण का यह स्वर मानो देवी कुन्ती, द्रौपदी आदि सब में सुधा सञ्चार कर गया। सबका शोक दूर हो गया। सात्यकि को वहीं छोड़कर श्रीकृष्ण सुभद्रा के साथ सूति का-गृह में पहुँचे और एक बार चारों ओर देखा। वह गृह श्वेत पुष्पों से सजाया गया था। चारों ओर जल-पूर्ण कलश रखे थे। तिन्दुक (तेंदू) काष्ठ की अग्नि घृताहुति से प्रज्वलित थी। लौह, पीत, सर्षपादि सब अनिष्ट-निवारक द्रव्य थे वहाँ और निपुण चिकित्सिकाएँ मस्तक झुकाये उपस्थित थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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