पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
'मैं सृष्टि का सबसे अभागा प्राणी। 'गन्धर्वराज अत्यधिक व्याकुल होकर फूट पड़े- 'क्या लाभ अपनी विपत्ति किसी को सुनाने से, जब कोई उसे दूर करने वाला ही नहीं है।' 'कोई दूर करने वाला नहीं क्यों है ! क्या है तुम्हारी विपत्ति?' सुभद्रा ने साग्रह पूछा। 'नहीं देवि' गन्धर्व का रुदन बढ़ता जा रहा था। पृथ्वी में सिर पटककर वह बोला- मुझ भयातुर का भय कोई दूर नहीं कर सकता।' 'मैं दूर कर दूँगी तुम्हारा भय।' सुभद्रा का स्वर उत्तेजित हो गया- 'गाण्डीवधन्वा की अर्धांगिनी और श्रीकृष्ण की स्वसा सुभद्रा तुम्हें अभय देती है। ऐसा क्या भय है तुम्हें।' 'देवि ! सचमुच आप मुझे अभय देने का वचन देती हैं?' अब चित्रसेन को भी भरोसा हो गया। वह हाथ जोड़कर, घुटनों के बल बैठकर बोला। 'मैंने वचन दिया है।' सुभद्रा ने कहा- 'दो बार मुझे कहने की आवश्यकता नहीं होती। तुम अपनी विपत्ति बतलाओ।' 'आपके उन चक्रपाणि अग्रज ने ही मुझे कल सूर्यास्त से पहिले मार देने की प्रतिज्ञा कर ली है।' जब गन्धर्वराज ने यह कहा तो किसी को उस अन्धकार में नहीं दीखा कि सुभद्रा का मुख भी पीला पड़ गया। उनके नेत्र भी भर आये। चित्रसेन से पूरी बात सुनकर अपने को स्थिर करके वे बोलीं- 'तुमकों मैंने वचन दिया है। तुम निर्भय जा सकते हो।' चित्रसेन उनकी पद-रज मस्तक पर लगाकर चला गया। सुभद्रा पति से पूछकर ही आई थीं। लौटकर अर्जुन के समीप पहुँची तो उनका अश्रुसिक्त मुख देखकर धनन्जय ने कारण पूछा। रोते-रोते सुभद्रा ने सब सुना दिया। सुनकर गाण्डीवधन्धा अत्यन्त गम्भीर हो गये। उन्होंने कह दिया- 'तुमने प्रतीज्ञा कर ली है तो वह मेरी प्रतीज्ञा है। मैं चित्रसेन की कल प्राण देकर भी रक्षा करूँगा।' देवर्षि नारद द्वारिका दौड़े। उन्होंने सन्ध्या से निवृत्त होते ही श्रीकृष्ण को समाचार दिया- 'गन्धर्वराज चित्रसेन को सुभद्रा ने अभय दे दिया है। अर्जुन ने उसकी रक्षा की प्रतिज्ञा करके उसे अपने यहाँ बुलाकर आश्रय दे दिया है।' श्रीकृष्ण जानते ही थे कि यह सब किसकी योजना है; किन्तु देवर्षि से कहा- 'आप मेरी ओर से जाकर युधिष्ठिर से कहें कि अर्जुन को वे इस बचपने से रोकें। मैंने एक ऋषि के सम्मुख प्रतिज्ञा की है। इस अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए मुझे कोई बहुत ही अप्रिय कार्य करना पड़ा तो वह भी मैं करूँगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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