पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
'तुम्हें एक बहुत पुण्यपर्व बतलाने आया हूँ। 'देवर्षि बोले- 'पूजा रहने दो, पहिले सुन लो। अन्यथा मैं भूल जाऊँगा। मुझे भागने की शीघ्रता सदा रहती है, यह तुम जानती ही हो।' 'कौन-सा पुण्य पर्व?' सुभद्रा ने पूछा। 'वह आज ही आधी रात को है।' देवर्षि ने कहा- 'कोई नारी आज आधी रात को यमुना स्नान करके किसी आर्तप्राणी को अभय दान करे तो उसके अतिशय प्रियकी आयु अक्षय हो जायगी; किन्तु उसके साथ कोई पुरुष नहीं होना चाहिए। योग ऐसे ही हैं और योग अत्यन्त दुर्लभ होते हैं।' देवर्षि इतना कहकर विदा हो गये। उनका काम हो गया। वे जानते हैं कि सुभद्रा के अतिशय प्रिय हैं उसके भाई श्रीकृष्ण। उनका मंगल होता हो तो यह पुण्यप्राणी असम्भव को भी सम्भव बना छोड़ेगी। 'मैं अकेली कैसे जाऊँगी?' सुभद्रा ने केवल मुख में ही कहा था। 'मैं साथ चलूँगा।' देवर्षि जाते-जाते कह गये- 'मैं तो मनुष्य नहीं हूँ। अत: मेरी उपस्थिति किसी मानव-पुरुष की उपस्थिति नहीं होती।' देवर्षि जैसे समर्थ साथ हों तो किसी को, कहीं भी, कभी भी जाने में भला क्या हिचक हो सकती है। वह दिन सुभद्रा ने सायंकाल की प्रतीक्षाम बिताया और रात्रि का पूर्वार्ध अर्धरात्रि की प्रतीक्षा में। देवर्षि समय पर आ गये। सुभद्रा ने केवल एक दासी को साथ लिया और यमुना-स्नान को चल पड़ी। गन्धर्वराज-चित्रसेन को कहाँ चैन; जिसे मृत्युदण्ड सुनाया जा चुका हो, उसकी दशा क्या होगी। उन्हें तो अपने प्राण बचने का कोई भरोसा नहीं था। देवर्षि का निर्दिष्ट उपाय भी उन्हें तिनके का सहारा ही दीखता था। श्रीकृष्णचन्द्र के कोप से कोई स्त्री बचा लेगी, यह बात उन्हें किचिंत भी भरोसा नहीं देती थी; किन्तु दूसरा तो कोई उपाय नहीं था। वे अर्धरात्रि से पहले ही आ गये इन्द्रप्रस्थ और यमुना-तटपर बैठ गये। फूट-फूटकर रोने के अतिरिक्त और अब उन्हें सूझना क्या था। सुभद्रा की भी एक समस्या थी। वे उधेड़बुन में थीं कि अर्धरात्रि में यमुना तटपर वे आर्तप्राणी कहाँ पावेंगी कि उसे अभयदान देंगी। उन्होंने सोचा था कि सर्वज्ञ देवर्षि साथ हैं ही। स्नान करके इन्हीं से पूछेंगी कि कहाँ कौन आर्त है और इनके द्वारा ही उसे अभयदान का आश्वासन दें देंगी। यमुना तट पर पहुँचते ही जब किसी का रुदन सुनाई पड़ा तो सुभद्रा को प्रसन्नता ही हुई। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक स्नान किया और वस्त्र बदले कि वह दु:खी कहीं चला न जाय। 'कौन हो तुम? क्यों रो रहे हो? क्या दु:ख है तुम्हें?' उन महिमामयी ने स्नान से निवृत्त होकर रोते-बिलखते गन्धर्व को शीघ्र ढूँढ़ लिया। उसके सम्मुख खड़ी होकर वे साम्राज्ञी के गौरव के अनुरूप बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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