पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
'मम' इसे मृत्यु समझो और 'न मम' यह भाव सनातन ब्रह्म पद प्राप्त कराने वाला है। शरीर की आसक्ति, इसका अभिमान तथा इससे सम्बन्धित का ममत्व त्यागकर ब्रह्म पद की प्राप्ति होती है। आत्मा नित्य, ज्ञानस्वरूप है। वह सनातन, अक्षर है। उसे जानकर ही मृत्यु-बन्धन से छुटकारा होता है।' इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने महर्षियों को उपदेश किया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश करके अन्त में कहा- सब साधनों से जो प्राप्त होता है, वह मनुष्य मेरी शरण होकर मेरे स्मरण से सहज ही प्राप्त कर लेता है। मैं अपने शरणागत अनन्य भाव से भजन करने वाले को सब संकटों से बचाता हूँ और समस्त श्रेय की प्राप्ति कराता हूँ।' श्रीकृष्ण उपदेश सुनकर अर्जुन ने उनके श्री चरणों में प्रणाम किया। वहाँ से दानों सखा हस्तिनापुर आये। अर्जुन ने ही युधिष्ठिर से कहा- 'वासुदेव द्वारिका जाना चाहते हैं। उन्हें अब अनुमति देना उचित होगा।' कौन चाहता है अपने परमप्रिय से वियुक्त होना; किन्तु कर्तव्य तथा प्रारब्ध का विधान बहुत निष्ठुर है। बुआ कुन्ती को प्रणाम करके, सब प्रियजनों से मिलकर श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकि के साथ रथ में बैठे। धर्मराज युधिष्ठिर भाइयों के साथ तीन योजन तक श्रीकृष्ण चन्द्र के साथ उनके ही रथ पर बैठे, उनको छत्र, चामरादि लगाये विदा करने गये। हस्तिनापुर जैसे उन अकेले के न रहने से सूना हो गया। वे ही तो जीवन, प्राणों के प्राण हैं। लेकिन वे श्रीद्वारिकाधीश द्वारिका भी तो जाते ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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