पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
जो सम्पूर्ण प्राणियों में परिपूर्ण आत्मतत्त्व को जान लेता है, वह किसी वस्तु की कामना नहीं करता, न कसी की अवहेलना ही करता है। वह न उद्विग्न होता, न शोक करता, न भय करता है। वह ममता और अहंकार से सर्वथा मुक्त हो जाता है। यह शरीर एक वृक्ष है। अज्ञान इसका मूल है। इन्द्रियाँँ कोटर हैं, पंचमहाभूत विशाख स्कन्ध है, इसमें संकल्परूपी पत्ते निकलते रहते हैं और कर्मरूपी फल लगते हैं। सुख-दु:ख इसके फल हैं। यह प्रवाह रूप से नित्य बना रहता है। तत्त्वज्ञान-रूपी कुठार से ही यह कटता है। अत: सत्त्वगुण में स्िथत रहते हुए तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का ही प्रयत्न जीवन की सफलता है। श्रद्धापूर्वक शास्त्रोक्त धर्म का अपने अधिकार के अनुसार आचरण करने वाला पुरुष अन्त:करण को निर्मल कर पाता है। निर्मल अन्त:करण में ही सत्य दृष्टि का उदय होता है। तब व्यक्ति का विवेक जागता है। वह जान पाता है कि समस्त दृश्य विषय है। विषय द्वन्द्वयुक्त तथा विनाशी है। इसका जो जानने वाला, प्रकाशक है, वह द्वन्द्वातीत, निष्फल, नित्य, निर्विकार, निर्गुण है। यही क्षेत्रज्ञ पुरुष है। बुद्धिमान पुरुष इस क्षेत्रज्ञ को आत्मरूप से जानककर साधनों की ममता भी त्याग देते हैं। समस्त सृष्टि के कारण रूप में त्रिगुणात्मिका प्रकृति की कल्पना की जाती है। उसे प्रधान या अव्यक्त कहते हैं। वह सदसत भिन्न होने से अनिर्वचनीय माया ही है। माया में आवरण तथा विक्षेप शक्ति होने से प्रकृति की जब साम्यावस्था विक्षेप शक्ति भंग करती है तो अव्यक्त प्रकृति से महतत्त्व उत्पन्न होता है। इसका कार्य है अहंकार। अहंकार से पंचमहाभूतों को प्रकट करने वाले गुण उत्पन्न हुए। प्रकृति केवल कारण रूपा है। महतत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रायें तथा ये कारण कार्य दोनों हैं। लेकिन पंचमहाभूत केवल कार्य हैं। इनके परस्पर मिलने से सृष्टि बनती है। इनमें विकार होकर कुछ नहीं बनता। अहंकार से ही बुद्धि मन तथा इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई हैं, मन ही इन्द्रियों का नियामक तथा संचालक है। बुद्धि यदि सबल, सतेज हो तो वह मन पर नियन्त्रण रखती है। दुर्बल बुद्धि मन का समर्थन करने लगती है और मन इन्द्रियों के पीछे लग जाता है। तब इन्द्रियाँ विषयों की ओर ले जाकर पतन के गर्त में डाल देती हैं। अत: इन्द्रियों का संयम तथा बुद्धि का विवेक परम आवश्यक है। बुद्धि में विवेक जागृत हो तथा बलपूर्वक इन्द्रियों को विषयों से रोक दिया जाय तो दोनों के मध्य में पड़कर मन की वासनायें मर जाती हैं। वासनायें ही पुनर्जन्म का हेतु हैं अत: वासनाओं के मिट जाने पर निर्मल, विक्षेप-रहित अन्त:करण में आत्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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