पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. अर्जुन का रथ भस्म
युधिष्ठिर क्या कहें। इन अच्युत ने अकेले अर्जुन की ही नहीं, उन सबकी सदा संकट के समय रक्षा की है। धर्मराज को सब विपत्तियों के अवसर स्मरण आ गये। अपनों की रक्षा– यह तो श्रीकृष्ण का शाश्वत व्रत है। ये न बचाते, वन में दुर्वासा के कोप से पाण्डव युद्ध करने को बचे होते ? द्रोणाचार्य और कर्ण ने कितनी ही बार तो ब्रह्मास्त्र तक का उपयोग किया था। अश्वत्थामा के नारायणास्त्र का निवारण कौन जानता था ? पाण्डु पुत्रों की, अर्जुन की पल-पल की सुरक्षा और सफलता इनका कृपा-प्रसाद ही तो है। साश्रुलोचन, गदगद स्वर युधिष्ठिर ने कहा- 'मैंने उस समय अकेले अर्जुन को आपको सौंपा था। अब हम सब भाई आपकी शरण हैं। आप ही हमारे आश्रय हैं। आप हमको सदा ऐसे ही अपनाये रहें, यही मेरी प्रार्थना है। श्रीकृष्ण की सम्मति से पाण्डवों ने कौरव-शिविर में प्रवेश किया। वहाँ चांदी, सोना, हीरा आदि रत्न-मणियों की अपार राशियाँ थीं। उत्तम आभूषण, वस्त्र, अन्न, अस्त्र-शस्त्र प्रभृति का अपार भण्डार था। असंख्य दास-दासियाँ थीं। अक्षय धन का यह भण्डार पाण्डवों की कल्पना से परे था। सब लोग वह देखकर आनन्द के मारे उछलने लगे। युद्ध के समय क्या कब आवश्यकता पड़ेगी, यह कहा नहीं जा सकता। किसी भी क्षण किसी सेवक अथवा सम्मान्य पुरुष को विशेष- बहुत विेशेष उपहार देकर पुरस्कृत अथवा सम्मानित करना पड़ सकता है। सैनिकों के लिये आहार, वस्त्र, अस्त्र, चिकित्सा के अतिरिक्त भी बहुत-सी सामग्री आवश्यक होती है और वह सर्वोत्तम होनी चाहिए। युद्ध कब तक चलेगा, कुछ पता नहीं होता। दुर्योधन राजा था। पाण्डवों की भी पहिली सम्पत्ति उसे मिली थी। वह तो पाण्डवों के वन जाने के दिन से उनसे युद्ध की योजना बनाने में लग गया था। पूरे तेरह वर्ष से वह युद्धोपकरण तथा उपयोगी सामग्री संग्रह करने में सतत संलग्न था। उसके शिविर में अपार सम्पत्त्िा थी। अस्त्र-शस्त्र, औषधियां, रत्न, वस्त्र का अक्षय भण्डार था वहाँ और उसमें दुर्लभतम वस्तुयें बहुत अधिक थीं। पाण्डव जन्म से ही दु:खी थे। वन में पिता का प्राणान्त हुआ तब वे शिशु थे। धृतराष्ट्र ने उनके साथ सदा विषम व्यवहार ही किया था। श्रीकृष्ण की कृपा से विश्वकर्मा ने इन्द्रप्रस्थ बनाया, मयने राज-सभा प्रस्तुत की और इन अच्युत के ही अनुग्रह से युधिष्ठिर के भाइयों ने दिग्विजय करके उन्हें राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराया। वे सम्राट हुए। राजसूय यज्ञ में इतनी अधिक सम्पत्ति उपहार में आयी कि उसे देखकर दुर्योधन का हृदय जलने लगा था; किन्तु भोगना तो दूर, पाण्डु के पुत्रों ने उस सम्पत्ति को ठीक देखने का भी अवसर नहीं पाया। राजयूस यज्ञ के कुछ ही दिन पीछे तो वह कपटद्यूत हुआ और ये वनवास को बाध्य हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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