पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
68. कर्ण मारा गया
’अब धर्म की दुहाई देकर बकवाद करने से कोई लाभ नहीं। तुम धर्म की कोई सहायता पाने योग्य नहीं हो और न किसी प्रकार दया के पात्र हो।’ कर्ण ने लज्जा से शिर झुका लिया। उसके पास कोई उत्तर नहीं था। उसके हृदय ने कहा- ’श्रीकृष्ण की शालीनता है कि वे नहीं कहते कि अभी आज के इसी युद्ध में उनका कवच कट गया था, तब भी मैं उन पर बाण मारने का कुकर्म कर रहा था। इसी से तो अर्जुन की ध्वजापर शान्त बैठा रहने वाला वानर क्रुद्ध हो उठा था।’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ललकारा- 'इस पर दया मत करो। दिव्यास्त्र से ही इसे मार दो।' कर्ण ने फिर रथ पर चढ़कर थोड़ा युद्ध किया; किन्तु रथ का पहिया भूमि से निकाले बिना मार्ग नहीं था। अर्जुन की मार से उसके सब सहायक भाग गये थे। दूसरा कोई रथ आस-पास नहीं था अपने पक्ष का कि कर्ण उस पर चला जाता। उसे विवश होकर रथ का पहिया निकालने भूमि पर उतरना पड़ा। दूसरी ओर श्रीकृष्ण के द्वारा उत्तेजना दिये जाने पर अर्जुन ने यमदण्ड के समान भयंकर आञ्जलिक नामक ढाई हाथ लम्बा विशाल बाण धनुष पर चढ़ाया। वह कालाग्नि के समान भयानक बाण चढा़कर अर्जुन ने तप, गुरुजनों की सेवा, यज्ञ तथा मित्र वात्सल्य की शक्ति भी संकल्पपूर्वक उससे संयुक्त कर दी। उस बाण ने कर्ण का मस्तक काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन अपने सेनापतित्व के दूसरे दिन, दिन के तीसरे प्रहर महावीर कर्ण समर-भूमि में छित्र मस्तक सदा को सो गया। सब लोगों ने देखा कि कर्ण के कबन्ध से एक तेज निकलकर दिशाओं को आलौकित करता हुआ सूर्यमण्डल में जाकर विलीन हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन शंखनाद करने लगे थे। पाण्डव पक्ष के शूर हर्ष में भरकर सिंहनाद करने लगे। विजय दुन्दुभि बजने लगी। बहुत से योधा आकर अर्जुन को गले लगाने लगे। भीमसेन भंयकर सिंहनाद करते हुए नाचते-कूदने लगे थे। अर्जुन ने कर्ण को मारने से पूर्व उसके रथ की ध्वजा काट दी थी। कर्ण के मरते ही रथ का पहिया पृथ्वी से छूट गया था। उस टूटी ध्वजावाले रथ को लेकर शल्य दुर्योधन के पास समाचार देने चले गये। वे अत्यन्त दुःखी थे। दुर्योधन के आगे आकर पुकार ने, ललकार ने, समझाने पर भी उसके सेना के लोग अर्जुन तथा भीम के भय से भाग गये। फलतः दुर्योधन को उस दिन युद्ध विराम की घोषणा करनी पड़ी। उसकी सेना लौटी तो पाण्डव सेना भी अपने शिविर की ओर हर्षनाद करती लौटी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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