महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 99 में युधिष्ठिर के द्वारा हरे हुए तेज की परशुराम को तीर्थस्नान द्वारा पुन: प्राप्ति के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
विषय सूची
लोमशमुनी का संवाद
लोमशमुनी कहते हैं- राजन वातापि प्रहृाद के गोत्र में उत्पन्न हुआ था, जिसे अगस्त्य जल ने इस प्रकार शान्त कर दिया। राजन! यह उन्हीं का रमणीय गुणों युक्त आश्रम है। इसके समीप यह वही देव गन्धर्व सेबित पुण्यसलिला भागीरथी है, जो आकाश में वायु की प्रेरणा से फहराने वाली श्वेत पताका के समान सुशोभित हो रही है। यह क्रमश: नीचे–नीचे शिखरों पर गिरती हुई सदा तीव्र गति से बहती है और शिलाखण्डों के नीचे इस प्रकार समायी जाती है, मानो भयभीत सर्पिणी बिल में घुसी जा रही हो।
पहले भगवान शंकर की जटा से गिरकर प्रवाहित होने वाली समुद्र की प्रियतमा महारानी गंगा सम्पूर्ण दक्षिण दिशा को इस प्रकार आप्लावित कर रही है मानो माता अपनी संतान को नहला रही हो। इस परम पवित्र नदी में तुम इच्छानुसार स्नान करे। महाराज युधिष्ठिर! इधर ध्यान दो, यह महर्षि सेवित भृगुतीर्थ है, जो तीनों लोकों में विख्यात हैं।
जहाँ परशुरामजी ने स्नान हुए तेज को पुन: प्राप्त कर लिया। पाण्डुनन्दन! तुम अपने भाइयों ओर द्रौपदी के साथ इसमें स्नान करके दुर्योधन द्वारा छीने हुए अपने तेज को पुन: प्राप्त कर सकते हो। जैसे दशरथ नन्दन श्रीराम से वैर करने पर उनके द्वारा अपहृत हुए तेज को परशुराम ने यहाँ स्नान के प्रभाव से पुन:पा लिया था।
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया।
नरश्रेष्ठ! उस तीर्थ में स्नान कर लेने पर राजा युधिष्ठिर का रुप अत्यन्त तेजायुक्त हो प्रकाशमान हो गया। अब वे शत्रुओं के लिये परम दुर्घर्ष हो गये। राजेन्द्र! उस समय पाण्डुनन्द युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा– ‘भगवन’! परशुरामजी के तेज का अपहरण किसलिये किया गया था और प्रभो! वह इन्हें पुन: किस प्रकार प्राप्त हो गया! यह मैं जानना चाहता हूँ। आप कृपा करके इस प्रसंग का वर्णन करें।
श्री राम और परशुराम जी का संवाद
लोमशजी ने कहा– राजेन्द्र! तुम दशरथनन्दन श्रीराम तथा परम बुद्धिमान भृगुनन्दन परशुरामजी का चरित्र सुनो। पूर्वकाल में महात्मा राजा दशरथ के यहाँं साक्षत भगवान विष्णु अपने ही सच्चिदानन्दमय विग्रह से श्रीराम रुप में अपवीर्ण हुए थे। उनके अवतार का उद्देश्य था- पापी रावण का विनाश। अयोध्या में प्रकट हुए दशरथनन्दन श्री राम का हम लोग प्राय: दर्शन करते रहते थे। अनायास ही महान कर्म करने वाले दशरथ कुमार श्रीराम का भारी पराक्रम सुनकर भृगु तथा ऋचीक के वंशज रेणु का नन्दन परशुराम उन्हें देखने के लिये उत्सुक हो क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष लिये अयोध्या में आये। उनके शुभागमन का उद्देश्य था दशरथनन्दन श्रीराम के बल पराक्रम की परीक्षा करना। महाराज दशरथ ने जब सुना कि परशुराम जी हमारे राज्य की सीमा पर आ गये हैं, तब उन्होंने मुनि की अगवानी के लिये अपने पुत्र श्रीराम को भेजा।
कुन्तीनन्दन! श्रीरामचन्द्रजी धनुष-बाण हाथ में लिये आकर खड़े हैं, यह देखकर परशुराम जी ने हँसते हुए कहा-‘जानेन्द्र! प्रभो! भूपाल! यदि तुम में शक्ति हो तो यत्न पूर्वक इस धुनुष पर प्रत्यअंचा चढाओं। यह वह धनुष है, जिसके द्वारा मैंने क्षत्रियों का संहार किया हैं। उनके ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्र जी ने कहा, भगवन्, आपकों इस तरह आक्षेप नहीं करना चाहिए। मैं भी समस्त द्विजातियों में क्षत्रिय–धर्म का पालन करने में अधर्म नहीं हूँ। विशेषत: इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय अपने बाहुबल की प्रशंसा नही करते।
श्रीरामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर परशुरामजी के ऐसा कहने पर परशुरामजी बोले- ‘रघुनन्दन! बाते बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। यह धनुष लो और इस पर प्रत्यअंचा चढा़ओं। तब दशरथनन्दन श्रीराम जी ने रोषपूर्वक परशुराम का वह वीर क्षत्रियों का संहारक दिव्य धनुष उनके हाथ से ले लिया। भारत! उन्होंने लीला पूर्वक प्रत्यअंचा चढा़ दी। तत्पश्चात पराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी मुस्कुराते हुए धनुष की टंकार फैलायी।[2]
बिजली की गड़गडा़हट समान उस टंकार–ध्वनि को सुनकर सब प्राणी घबरा उठे। उस समय दशरथनन्दन श्रीराम ने परशुराम जी से कहा- ‘ब्रह्मान! यह धनुष तो मैंने चढा दिया अब और आपका कौना सा कार्य करूं? तब जमदग्रि नन्दन परशुराम ने महात्मा श्री रामचन्द्र जी को एक दिव्य बाण दे दिया और कहा– इसे धनुष पर रखकर अपने कान के पास तक खींचए‘।
लोमशजी कहते हैं –राजन! इतना सुनते ही श्री रामचन्द्र जी मानो क्रोध से प्रज्वलित हो और बोले- ‘भृगुनन्दन! तुम बड़े घमण्डी हो। मैं तुम्हारी कठोर बातें सुनता हूँ, फिर क्षमा कर लेता हूँ। ‘तुमने अपने पितामह ऋचीक के प्रभाव से क्षत्रियों को जीतकर विशेष तेज प्राप्त किया है, निश्चय ही इसीलिये मुझ पर आक्षेप करते हो। लो! मैं तुम्हे दिव्यदृष्टि देता हूँ। उसके द्वारा मेरे यथार्थ स्वरुप का दर्शन करो। ‘तब भृ्गुवंशी परशुरामजी श्रीरामजी के शरीर में बारह आदित्य, आठ वसु ग्यारह रुद्र,साध्य देवता,उनचास मरुद्रण, पितृगण, अग्रिदेव, राक्ष, यक्ष, नदियॉं, तीर्थ, सनातन ब्रह्माभूत बालखिल्य ऋष, दवर्षि, सम्पूर्ण समुद्र पर्वत उपनिषदोंसहित वेदन, वषकार यज्ञ, साम और धनुर्वेद, न सभी को चेतरुप धारण किये हुए प्रत्यक्ष देखा। भरतनन्दन युधिष्ठिर! मेघों के समूह, वर्षा और विद्युत का भी उनके भीतर दर्शन हो रहा था। तदनन्तर भगवान विष्णु रुप श्री रामचन्द्र जी ने उस बाण को छोड़ा। भारत! उस समय सारी पृथ्वी बिना बादल की बिजली और बडी़-बडी़ उल्काओं से पयाप्त सी हो उठी। बड़े जोर की ऑधी उठी और सब और धूल की वर्षा होने लगी। फिर मेघो की घटा घिर आयी और भूतल पर मूसलाधार वर्षा होन लगी। बार-बार भूकम्प आने लगा।
मेघगर्जन तथा अन्य भयानक उत्पात सूचक शब्द गूंजने लगे। श्री रामचन्द्र जी की भुजाओं से प्रेरित हुआ वह प्रज्वलित बाण परशुराम जी को व्याकुल करके केवल उनके तेज को छीनकर पुन: लौट आया। परशुराम जी एक बार मूर्च्छित होकर जब पुन: होश में आये, तब मर कर जी उठे हुए मनुष्य की भाँति उन्होंने विष्णु तेज धारण करने वाले भगवान श्रीराम को नमस्कार किया। तत्पश्चात भगवान विष्णु श्रीराम की आज्ञा लेकर वे पुन: महेन्द्र पर्वत पर चले गये।
परशुराम जी का तीर्थस्नान
परशुराम जी भयभीत और लज्जित हो महान तपस्या में संलग्र होकर रहने लगे। तदनन्तर एक वर्ष व्यतीत होने पर तेजोहन और अभिमान शून्य हो कर रहने वाले परशुराम को दुखी देखकर उनके पितरों ने कहा।
पितर बोले– तुमने भगवान विष्णु के पास जाकर जो बर्ताव किया है वह ठीक नहीं था। वे तीनो लोको में सर्वदा पूजनीय और माननीय हैं। बेटा! अब तुम वधूसरा नामक पुण्यमयी नदी के तट पर जाओ। वहाँ तीर्थो में स्नान करके पूर्ववत अपना तेजोमय शरीर पुन: प्राप्त कर लोगे। राम! वह दीप्तोदक नामक तीर्थ है, जह देवयुग में तुम्होर प्रपितामह भृगु ने उत्तम तपस्या की थी। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! पितरों के कहने से परशुरामजी वैसा ही किया। पाण्डुनन्दन! इस तीर्थ में नहाकर पुन: उन्होने अपना तेज प्राप्त कर लिया। तात! महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार पूर्वकाल में अनायास ही महान कर्म करने वाले परशुराम विष्णु स्वरुप श्रीरामचन्द्र जी से भिड़कर इस दशा को प्राप्त हुए थे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 17-32
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 33-52
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 99 श्लोक 53-71
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| हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन
| हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन
| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
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यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
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| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
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| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
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| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
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| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
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| ब्रह्मा की उत्पत्ति
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| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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