- महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय उनतीस में युधिष्ठिर द्वारा क्रोध निन्दा का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर द्वारा क्रोध निन्दा के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा क्रोध निन्दा
युधिष्ठिर बोले- परम बुद्धिमती द्रौपदी! क्रोध ही मनुष्यों को मारने वाला है और क्रोध ही यदि जीत लिया जाये तो अभ्युदय करने वाला है। तुम यह जान लो कि उन्नति और अवनति दोनों क्रोधमूलक ही हैं।[2] सुशोभने! जो क्रोध को रोक लेता है, उसकी उन्नति होती और जो मनुष्य क्रोध के वेग को भी सहन नहीं कर पाता, उसके लिये वह परम भयंकर क्रोध विनाशकारी बन जाता है। इस जगत में क्रोध के कारण लोगों का नाश होता दिखायी देता है; इसलिये मेरे जैसा मनुष्य लोक विनाशक क्रोध का उपयोग दूसरों पर करेगा? क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोध के वशीभूत मानव गुरुजनों की हत्या कर सकता है और क्रोध में भरा हुआ पुरुष अपनी कठोर वाणी द्वारा श्रेष्ठ मनुष्यों का भी अपमान कर देता है। क्रोधी मनुष्य कभी यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिये और क्या नहीं। क्रोधी के लिये कुछ भी अकार्य अथवा अवाच्य नहीं है। क्रोधवश वह मनुष्य पुरुषों की भी हत्या कर सकता है और वध के योग्य मनुष्यों की भी पूजा में तत्पर हो सकता है। इतना ही नहीं, क्रोधी मानव (आत्महत्या द्वारा) अपने आपको भी यमलोक का अतिथि बना सकता है। इन दोषों को देखने वाले मनस्वी पुरुषों ने, जो इहलोक और परलोक में भी परम उत्तम कल्याण की भी इच्छा रखते हैं, क्रोध को जीत लिया। अतः धीर पुरुषों ने जिसका परित्याग कर दिया है, उस क्रोध को मेरे जैसा मनुष्य कैसे उपयोग में ला सकता है? द्रुपदकुमारी! यही सोचकर मेरा क्रोध कभी नहीं बढ़ता है। क्रोध करने वाले पुरुष के प्रति जो बदले में क्रोध नहीं करता, वह अपने को और दूसरों को भी महान भय से बचा लेता है। वह अपने और पराये दोनों के दोषों को दूर करने के लिये चिकित्सक बन जाता है। यदि मूढ़ एवं असमर्थ मनुष्य दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं भी बलिष्ठ मनुष्यों पर क्रोध करता है तो वह अपने ही द्वारा अपने आपका विनाश कर देता है। अपने चित्त को वश में रखने के कारण क्रोधवश देहत्याग करने वाले उस मनुष्य के लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रुपदकुमारी! असमर्थ के लिये अपने क्रोध को रोकना ही अच्छा माना गया है। इसी प्रकार जो विद्वान पुरुष शक्तिशाली होकर भी दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं क्रोध नहीं करता, वह क्लेश देने वाले का नाश न करके परलोक में भी आनन्द का भागी होता है। इसलिये बलवान या निर्बल सभी विश मनुष्यों को सदा आपत्ति काल में भी क्षमाभाव का ही आश्रय लेना चाहिये। कृष्णे! साधु पुरुष क्रोध को जीतने की ही प्रशंसा करते हैं। संतो का यह मत है कि इस जगत में क्षमाशील साधु पुरुष की सदा जय होती है। झूठ से सत्य श्रेष्ठ है। क्रूरता से दयालुता श्रेष्ठ है, अतः दुर्योधन मेरा वध कर डाले तो भी इस प्रकार अनेक दोषों से भरे हुए सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त क्रोध का मेरे जैसा पुरुष कैसे उपयोग कर सकता है? दूरदर्शी विद्वान जिसे तेजस्वी कहते हैं, उसके भीतर क्रोध नहीं होता, यह निश्चित बात है।[1]
युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को समझाना
जो उत्पन्न क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्त्वदर्शी विद्वान तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है (अर्थात क्या करना चाहिये) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता- ये गुण हैं। जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों की सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली- भाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा मानते हैं। परंतु रजोगुण जनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य[3] अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा- यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती; क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावें। औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़़ें; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदले में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ट होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ट कर सकता है। पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा सन्धिमूलक ही है। द्रौपदी! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है। [4]
इस विषय में जानकर लोग क्षमावान पुरुषों की गाथा का उदाहरण देते हैं। कृष्णे! क्षमावान महात्मा कश्यप ने इस गाथा का गान किया था। क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने के योग्य हो जाता है। क्षमा ब्रह्मा है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच है। क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रखा है। क्षमाशील मनुष्य यज्ञवेता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषों से भी ऊँचे लोक प्राप्त करते हैं। ( सकामभाव से ) यज्ञ कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों के लोक दूसरे हैं एवं ( सकामभाव से ) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करने वाले मनुष्यों के लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावानों के लोक ब्रह्मलोक के अन्तर्गत हैं; जो अत्यन्त पूजित हैं। क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम ( मनोनिग्रह ) है। कृष्णे! जिसका महत्त्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमा को मेरे जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है। विद्वान पुरुष को सदा क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। क्षमावानों के लिये ही यह लोक है। क्षमावानों के लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत में सम्मान और परलोक में उत्तम गति पाते हैं। जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं। अत: क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है। इस प्रकार काश्यप जी ने नित्य क्षमाशील पुरुषों की इस गाथा का गान किया है। द्रौपदी! क्षमा की यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो। मेरे पितामह शान्तुनन्दन भीष्म शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण भी शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्ति को ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे। सोमदेव, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्ति का ही उपदेश देते हैं। ये सब लोग यदि राजा धृतराष्ट्र को सदा शान्ति के लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभ के कारण नष्ट हो जायेंगे। इस समय भारतवंश के विनाश के लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि! मेरा पहले से ही ऐसा निश्चित मत है कि सुयोधन कभी इस प्रकार क्षमाभाव को नहीं अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय लेती है। क्षमा और दया यही जीवात्मा पुरुषों का सदाचार है और यही सनातन धर्म है, अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा और दया को ही अपनाऊँगा।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-16
- ↑ क्रोध को जीतने उन्नति, वशीभूत होने से अवनति होती है
- ↑ अपेक्षाकृत
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 17-34
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 35-52
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| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
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| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
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| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
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| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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