ऋष्यशृंग का पिता से वेश्या के स्वरूप तथा आचरण का वर्णन

महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 112 में ऋष्यशृंग का पिता से वेश्या के स्वरूप तथा आचरण का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने ऋष्यशृंग का पिता से वेश्या के स्वरूप तथा आचरण का वर्णन की कथा कही है।[1]

ऋष्यशृंग द्वारा पिता को चिन्ता का वर्णन

ऋष्‍यश्रृंग ने कहा- पि‍ता जी! यहाँ एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह न तो छोटा था और न बहुत बड़ा ही। उसका हृदय बहुत उदार था। उसके शरीर की कान्‍त‍ि सुवर्ण के समान थी और उसकी बड़ी बड़ी आंखे कमलों के सदृश जान पड़ती थीं। वह स्‍वयं देवताओं के समान सुशोभीत हो रहा था। उसका रूप बड़ा सुन्‍दर था। वह सूर्यदेव की भाँति‍ उद्भासि‍त हो रहा था। उसके नेत्र स्‍वच्‍छ, चमकि‍ले एवं कजरारे थे। वह बड़ा गोरा दि‍खायी देता था। उसकी जटां बहुत लम्‍बी, साफ सुथरी और नीले रंग की थीं। उनसे बड़ी मधुर गन्‍ध फैल रही थी। वे सारी जटाएं एक सुनहरी रस्‍सी से गुंथी हुई थीं। उसके गले में एक ऐसा आश्‍चर्यरूप आभुषण[2] था, जो आकाश में बि‍जली की भाँति‍ चमक रहा था। उसके गले में नीचे [3] दो मांसपि‍ण्‍ड थे, जि‍न पर रोएं नहीं उगे थे।

वे अत्‍यन्‍त मनोहर जान पड़ते थे। उस ब्रह्मचारी के नाभिदेश के समीप जो शरीर का मध्‍यभाग था, वह बहुत पतला था और उसका नि‍तम्‍बभाग अत्‍यन्‍त स्‍थूल था। जैसे मेरे कौपीन के नीचे यह मूंज की मैखला बंधी है, इसी प्रकार उसके कटि‍ प्रदेश में भी एक सोने की मेखला [4] थी, जो उसके चीर के भीतर से चमकती रहती थी। उसकी अन्‍य सब बातें भी अद्भुद, एवं दर्शनीय थीं। पैरों में (पायल की) छम छम ध्‍वनि‍ बड़ी मधुर प्रतीत होती थी। इसी प्रकार हाथों की कलाइयों में मेरी इस रुद्राक्ष की माला की भाँति‍ उसके दो कलापक [5] बांध रखे थे, उनसे भी बड़ी मधुर ध्‍वनि‍ होती रहती थी। वह ब्रह्मचारी जब जनि‍क भी चलता फि‍रता या हि‍लता डुलता था, उस समय आभूषण बड़ी मनोहर झनकार उत्‍पन्‍न करते थे, मानो सरोवर में मतवाले हंस कलरव कर रहें हो। उसके चीर भी अद्भुद दि‍खायी देते थे।

वेश्या के स्वरूप वर्णन

मेरी कौपीन के ये कल्‍कल वस्‍त्र सुन्‍दर नहीं है। उसका मुख भी देखने ही योग्‍य था। उसकी अद्भुद शोभा थी। ब्रह्मचारी की एक एक बात मन को आन्‍द सि‍न्‍धु में नि‍मग्‍न सा कर देती थी। उसकी वाणी कोकि‍ल के समान थी, जि‍से एक बार सुन लेने पर अब पुन: सुनने के लि‍ये मेरे अन्‍तरात्‍मा व्‍यथि‍त हो उठी है। तात! जैसे माधवमास[6]में [7] समीर से सेवि‍त वन उपवन की शोभा होती है, उसी प्रकार पवन देव सेवि‍त वह ब्रह्मचारी उत्‍तम एवं पवि‍त्र गन्‍ध से सुवासि‍त और सुशोभि‍त हो रहा था। उसकी जटा सटी हुई और अच्‍छी प्रकार से बंधी हुई थी, जो ललाट प्रदेश को दो भागों में वि‍भक्‍त थी; कि‍न्‍तु बराबर नहीं थी। उसके कुण्‍डलमण्‍डि‍त कान सुन्‍दर एवं वि‍चि‍त्र चक्रवाकों से घि‍रे हुए से जान पड़ते थे। उसके पास एक वि‍चि‍त्र गोलाकार फल[8] था, जि‍स पर वह अपने दाहि‍ने हाथ से आघात करता था। वह फल[9] पृथ्‍वी पर जाकर बार बार उंचे की ओर उछलता था। उस समय उसका रूप अद्भुद दि‍खायी देता था।[1]

उस फल (गेंद) को मारकर वह चारों ओर घुमने लगता था, मानों वृक्ष हवा का झोंका खाकर झूम रहा हो। तात! देवपुत्र के समान उस ब्रह्मचारी को देखते समय मेरे हृदय में बड़ा प्रेम और आनन्‍द उमड़ रहा था और मेरी उसके प्रति‍ आसक्‍ति‍ हो गयी है। वह बार बार मेरे शरीर का आलि‍गंन करके मेरी जटा पकड़ लेता और मेरे मुख को झुकाकर उस पर अवना मुख रख देता था, इस प्रकार मुख से मुख मि‍लाकर उससे एक ऐसा शब्‍द कि‍या, जि‍सने मेरे हृदय में अत्‍यन्‍त आनन्‍द उत्‍पन्‍न कर दि‍या। मैनें जो पाद्य अर्पण कि‍या, उसको उसने बहुत महत्‍व नहीं दि‍या।

मेरे दि‍ये हुए ये फल भी उसने स्‍वीकार नहीं कि‍ये और मुझ से कहा- ‘मेरा ऐसा ही नि‍यम है। ‘साथ ही उसने मेरे लि‍ये दूसरे दूसरे फल दि‍ये। मैने उसके दि‍ये हुए जि‍न फलों का उपयोग कि‍या है, उनके समान रस हमारे इन फलों में नहीं है उन फलों के छि‍ल के भी ऐसे नहीं थे, जैसे इन जंगली फलों के है। इन फलों के गूदे जैसे है, वैसे उसके दि‍ये फलों के नहीं थे (वे सर्वथा वि‍लक्षण थे)। उदारता के मूर्ति‍मान स्‍वरूप उस ब्रह्मचारी में मुझे पीने के लि‍ये अत्‍यनत स्‍वादि‍ष्‍ट जल भी दि‍या था। उस जल को पीते ही मेरे हर्ष की सीमा न हरी। मुझे यह धरती डोलती सी जान पड़ने लगी।

वे वि‍चि‍त्र सुगन्‍धि‍त मालाएं उसी ने रेशमी डोरों से गूंथ कर बनायी थीं, जि‍न्‍हे यहाँ बि‍खेरकर तपस्‍या से प्रकाशि‍त होने वाला वह ब्रह्मचारी अपने आश्रम को चला गया था। उसके चले जाने से मैं अचेत हो गया हूँ। मेरा शरीर जलता सा जान पड़ता है। मैं चाहता हमे, शीघ्र उसके पास ही चला जाउं अथवा वहीं यहाँ नि‍त्‍य मेरे पास रहे। पि‍ता जी! मैं उसी के पास जाता हूं, देंखू, उसकी ब्रह्मचर्य की साधना कैसी है वह आर्यधर्म का पालन करने वाला ब्रह्मचारी जि‍स प्रकार तप करता है, उसके साथ रहकर में भी वैसी ही तपस्‍या करना चाहता हूँ। वैसा ही तप करने की इच्‍छा मेरे हृदय में भी है। यदि‍ उसे नही देखूंगा तो मेरा मन चि‍त्‍त संतप्‍त होता रहेगा।[10]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-10
  2. कण्‍ठा
  3. वक्ष:स्‍थल पर
  4. करधनी
  5. कंगन
  6. वैशाख या वंसत ऋतु
  7. सौरभयुक्‍त मलय
  8. गेंद
  9. गेंद
  10. महाभारत वन पर्व अध्याय 112 श्लोक 11-19

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पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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