सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति

महाभारत वनपर्व के आजगरपर्व के अंतर्गत अध्याय 181 में युधिष्ठिर द्वारा अपने प्रश्नों का उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ देना तथा युधिष्ठिर के साथ वार्तालाप करने के प्रभाव से सर्पयोनि से मुक्त होकर स्वर्ग जाने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर द्वारा अपने प्रश्नों का उचित उत्तर पाकर संतुष्ट हुए सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ देना तथा युधिष्ठिर के साथ वार्तालाप करने के प्रभाव से सर्पयोनि से मुक्त होकर स्वर्ग जाने के वर्णन की कथा कही है।[1]

युधिष्ठिर-सर्परूपधारी नहुष संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- तुम सम्पूर्ण वेद-वेदांग के पारगामी हो। लोक में तुम्हारी ऐसी ही ख्याती हैं। बताओ, किस कर्म के आचरण से सर्वोत्तम गति प्राप्त हो सकती हैं? सर्प ने कहा- भारत! इस विषय मे मेरा विचार यह हैं कि मनुष्य सत्पात्र को दान देने से, सत्य और प्रिय वचन बोलने से तथा अहिंसा-धर्म में तत्पर रहने से स्वर्ग (उत्तम गति) पा सकता हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा- नागराज! दान और सत्य में किसका पलड़ा भारी देखा जाता हैं? अहिंसा और प्रियभाषण-इनमें से किसका महत्त्व अधिक हैं और किसका कम? यह बताओ। सर्प ने कहा- महाराज! दान, सत्य-तत्त्व, अहिंसा और प्रियभाषण- इनकी गुरुता और लघुता कार्य की महता के अनुसार देखी जाती हैं। राजेन्द्र! किसी दान से सत्य का ही महत्त्व बढ़ जाता हैं और कोई-कोई दान ही सत्यभाषण से अधिक महत्त्व रखता हैं। महान धनुर्धर भूपाल! ठसी प्रकार कहीं तो प्रिय वचन की अपेक्षा अहिंसा का गौरव अधिक देखा जाता हैं और कहीं अहिंसा से भी बढ़कर प्रियभाषण महत्त्व दृष्टिगोचर होता है। राजन्! इस प्रकार इनके गौरव-लाघव का निश्चय कार्यकी अपेक्षा से ही होता है! अब और जो कुछ भी प्रश्न तुम्हें अभीष्ट हो, वह पूछो। मैं यथासम्भव उतर देता हूँ।

युधिष्ठिर ने पूछा- सर्प! मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति और कर्मों का निश्चयरूप से मिलने वाला फल किस प्रकार देखने में आता हैं एवं देहाभिमान से रहित पुरुष की गति किस प्रकार होती हैं ? इन विषयोंको मुझसे भलीभाँति कहिये।

जीवों की गतियों का वर्णन

सर्प ने कहा- राजन! अपने-अपने कर्मो के अनुसार जीवों की तीन प्रकार की गतियां देखी जाती हैं- स्वर्गलोक की प्राप्ति, मनुष्यों योनि में जन्म लेना और पशु-पक्षी आदि योनियों में (तथा नरकों में) उत्पन्न होना। बस, ये तीन ही योनियां हैं। इनमें से जो जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होता है, पर यदि आलस्य और प्रमाद का त्याग करके अहिंसा का पालन करते हुए दान आदि शुभ कर्म करता हैं, तो उसे इन पुण्य कर्मों के कारण स्वर्गलोक की प्राप्ति होती हैं। राजेन्द्र! इसके विपरीत कारण उपस्थित होने पर मनुष्ययोनि में तथा पशु पक्षियों आदि योनि में जन्म लेना पड़ता हैं। तात! पशु पक्षी आदि योनियों में जन्म लेने का जो विशेष करण हैं, उसे भी यहाँ बतलाया जाता हैं। जो काम, क्रोध, लोभ और हिंसा में तत्पर होकर मानवता से भ्रष्ट हो जाता हैं, अपनी मनुष्य होने की योग्यता को भी खो देता हैं, वही पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म पाता हैं। फिर मनुष्य जन्म की प्राप्ति के लिये उसका तिर्यक योनि से उद्धार होता है। गौओं तथा अश्वों को भी उस योनि से छुटकारा मिलकर देवत्व की प्राप्ति होती हैं, यह बात देखी जाती हैं।

तात! प्रयोजनवश वही यह जीव इन्हीं तीन गतियों में भटकता रहता हैं। कर्मफल को चाहने वाला देहाभिमानी सुख का उपभोग करता हैं। किंतु तात! जो कर्मफल में आसक्त नहीं हैं, वह प्रजाजनों के पालन की भावना वाला द्विज अपने आत्मा को नित्य परब्रहमा परमात्मा में भलीभाँति स्थित कर देता हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा- सर्प! शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इनका आधार क्या हैं? आप शांतिचित होकर इसे यथार्थरूप से बताइये। महामते! पन्नगश्रेष्ठ! मन विषयों का एक ही साथ ग्रहण क्यों नहीं करता ? इन उपर्युक्त सब बातों का बताइये।

सर्प ने कहा- आयुष्मान! स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का आश्रय लेने वाला ओर इन्द्रियों से युक्त जो आत्मा नामक द्रव्य हैं, वही विधिपूर्वक नाना प्रकार के भोगों को भोगता हैं। भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, बुद्धि और मन-ये ही शरीर में उसके करण समझो। तात! पंचों विषयों के आधारभूत पंचभूतों से बने हुए शरीर में स्थित जीवात्मा इस शरीर मे स्थित हुआ ही मन के द्वारा क्रमशः इन पांचों विषयों का उपभोग करता हैं।[1]

नरश्रेष्ठ! विषयों के उपभोग के समय (बुद्धि के द्वारा) इस जीवात्मा का मन किसी एक ही विषय में नियंत्रित कर दिया जाता हैं। इसीलिये उसके द्वारा एक ही साथ अनेक विषयों का ग्रहण सम्भव नहीं हो पाता हैं। पुरुषसिंह! वही आत्मा दोनों भौंहों के बीच स्थित होकर उत्तम-अधम बुद्धि को भिन्न-भिन्न द्रव्यों की ओर प्रेरित करता हैं। बुद्धि की क्रिया के उतर-कालमें भी विद्वान पुरुषों को एक अनुभूति दिखायी देती हैं। नृपश्रेष्ठ! यही क्षेत्रज्ञ आत्मा को प्रकाशित करने वाली विधि हैं।

युधिष्ठिर ने कहा- सर्प! मुझे मन और बुद्धि का उत्तम लक्षण बतलाओं। अध्यात्म-शास्त्र के विद्वानों के लिये इनको जानना परम कर्तव्य कहा गया हैं। तात! आत्मा के भोग और मोक्ष का सम्पादन करना ही बुद्धि का प्रयोजन हैं तथा आत्मा का आश्रय लेकर ही बुद्धि विषयों की ओर जाती हैं। इस कारण वह आत्मा का अनुसरण करने वाली मानी जाती हैं। वह भी आत्मा की चेतनशक्ति के सम्बन्ध से ही हैं तथा बुद्धि के गुणविधान से अर्थात् उसकी ज्ञानशक्ति के प्रभाव से ही मन उस गुण से सम्पन्न होता है यानि इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता हैं। अतः बुद्धि तो कार्य के आरम्भ से प्रकट होती हैं और मन सदैव प्रकट होता है। (कार्य को देखकर ही कारणकी सता व्यक्त होती हैं- यह न्याय हैं)। तात! मन और बुद्धि की यह विशेषता ही उन दोनों का अन्तर हैं। तुम भी तो इस विषय के अच्छे ज्ञाता हो, अतः बताओ, तुम्हारी कै सीमान्यता हैं?।

सर्पयोनि नहुष को शाप से मुक्ति

युधिष्ठिर ने बोले- बुद्धिमान में श्रेष्ठ! तुम्हारी यह बुद्धि बड़ी उत्तम हैं। तुम तो जानने योग्य वस्तु को जान चुके हो। फिर मुझसे क्यों पूछते हों ? तुम तो सर्वज्ञ तथा स्वर्ग के निवासी थे। तुमने बड़े अद्भुत कर्म किये थे। भला, तुम्हें कैसे मोह हो गया? लेकर मेरे मन में बड़ा संशय हो रहा हैं।

सर्प ने कहा- राजन! यह धन-सम्पति बड़े-बड़े बुद्धिमान और शूरवीर मनुष्य को भी मोह में डाल देती हैं। मेरा तो ऐसा विश्वास हैं कि सुख-विलास में डूबे हुए सभी लोग मोहित हो जाते हैं। युधिष्ठिर! इसी तरह मैं भी ऐश्वर्य के मोह से मदोन्मत हो गया और मुझे उस समय चेत हुआ, जबकि मेरा अधःपतन हो चुका। अतः अब तुम्हें सचेत कर रहा हूँ। परंतप महाराज! आज तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य किया। इस समय तुम-जैसे श्रेष्ठ पुरुष से वार्तालाप करने के कारण मेरा वह अत्यन्त कष्टदायक शाप निवृत हो गया। पूर्वकाल में[2] दिव्य विमान पर चढ़कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अभिमान से मत होकर मैं दूसरे किसी को कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मार्षि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग आदि, जो भी इस त्रिलोक की में निवास करने वाले प्राणी थे, वे सब मुझे कर देते थे।

राजन्! उन दिनों मैं जिस प्राणी की ओर आंख उठाकर देखता था, उसका तेज तत्काल हर लेता था। यह थी मेरी दृष्टि की शक्ति। हजारों ही ब्रह्मर्षि मेरी पाल की ढोते थे। महाराज! मेरे इसी अत्याचार ने मुझे स्वर्ग की राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट कर दिया। स्वर्ग में मुनिवर अगस्त्य जब मेरी पालकी ढो रहे थे, तब मैंने उन्हें लात मारी, इसलिये उन्होंने मुझे ऐसा कहा कि 'तू निश्चय ही सर्प हो जा'। उनके इतना कहते ही मेरे सभी राजचिह्न लुप्त हो गये। मैं (सर्प होकर) उस उत्तम विमान से नीचे गिरा। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि मैं सर्प होकर नीचे मुंह किये गिर रहा हूं; तब मैंने शाप का अन्त होने के उदेश्यसे उन ब्रह्मर्षि से याचना करते हुए कहा। [3]

सर्प ने कहा- भगवन! मैं प्रमादवश विवेक शून्य हो गया था। इसीलिये मुझसे यह घोर अपराध हुआ हैं। आप कृपया क्षमा करें। तब मुझे गिरते देख वे महर्षि दया से द्रवित होकर बोले- 'राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें इस शाप से मुक्त करेंगे। महाराज! जब तुम्हारे इस अभिमान और घोर पाप का फल क्षीण हो जायेगा, तब तुम्हें फिर तुम्हारे पुण्यों का फल प्राप्त होगा'।

उस समय मुझे उनकी तपस्या का महान बल देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजन! उनका ब्रह्मा-ज्ञान और ब्राह्मणत्व देखकर भी मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसीलिये इस विषय में मैंने तुमसे पहले प्रश्न किया। राजन्! सत्य, इन्द्रिय संयम, तपस्या, दान, अहिंसा और धर्मपरायण ये सद्धुण ही सदा मनुष्यों को सिद्धि की कराने वाले हैं, जाति और कुल नहीं। ये रहे तुम्हारे भाई महाबली भीमसेन, जो सर्वथा सकशल हैं। महाराज! तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं पुनः स्वर्गलोक को जाऊँगा। पुरुषसिंह! पार्थ! तुम्हारे शुभागमन से ही यह पुण्यकाल प्राप्त हुआ हैं, इस कारण तुमने मेरा बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया।।

स्वर्गलोक प्राप्ति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर उसी मुहूर्त में एक इच्छानुसार चलने वाला उत्तम विमान बड़े जोर की उड़ान के साथ वहाँ आ पहुँचा। युधिष्ठिर से पूर्वोक्त बातें कहकर राजा नहुष ने अजगर का शरीर त्याग दिया और दिव्य शरीर धारण करके वे पुनः स्वर्गलोक को चले गये। धर्मात्मा युधिष्ठिर भी भाई भीमसेन से मिलकर उनके और धौम्य मुनि के साथ फिर अपने आश्रम पर लौट आये।

तब धर्मराज युधिष्ठिर ने वहाँ एकत्र हुए सब ब्राह्मणों को भीमसेन के सर्प के चंगुल से छूटने का वह सारा वृतान्त कह सुनाया। राजन! यह सुनकर सब ब्राह्मण, उनके तीनों भाई और यशस्विनी द्रौपदी सब-के-सब बड़े लज्जित हुए। तब पाण्डवों के हित की इच्छा से वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण भीमसेन को उनके दुःसाहस की निन्दा करते हुए बोले- 'अब कभी ऐसा न करना'। पाण्डवलोग महाबली भीमसेन की भय से मुक्त हुआ देख हर्ष से उल्लसित हो उठे और प्रसन्नतापूर्वक वहाँ विचरने लगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 181 श्लोक 1-20
  2. जब मैं स्वर्ग का राजा था
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 181 श्लोक 21-38

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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