- महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय बत्तीस में द्रौपदी द्वारा पुरुषार्थ को प्रधानता का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से द्रौपदी द्वारा पुरुषार्थ को प्रधानता के वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
द्रौपदी-युधिष्ठिर संवाद
द्रौपदी बोली- कुन्तीनन्दन! मैं धर्म की अवहेलना तथा निंदा किसी प्रकार नहीं कर सकती। फिर समस्त प्रजाओं का पालन करने वाले परमेश्वर की अवहेलना तो कर ही कैसे सकती हूँ। भारत! आप ऐसा समझ लें कि मैं शोक से आर्त होकर प्रलाप कर रही हूँ। मैं इतने से ही चुप नहीं रहुंगी और भी विलाप करूंगी। आप प्रसन्नचित्त होकर मेरी बात सुनिये। शत्रुनाशन! ज्ञानी पुरुष को भी इस संसार में कर्म अवश्य करना चाहिये। पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर भूत ही बिना कर्म किये जी सकते हैं, दूसरे लोग नहीं। महाराजा युधिष्ठिर! गौओं के बछड़े भी माता दूध पीते और छाया में जाकर विश्राम करते हैं। इस प्रकार सभी जीव कर्म करके जीवन निर्वाह करते हैं। भरतश्रेष्ठ! जंगम जीवों में विशेषरूप से मनुष्य कर्म के द्वारा ही इहलोक और परलोक में जीविका प्राप्त करना चाहते हैं। भारत! सभी प्राणी अपने उत्थान को समझते हैं और कर्मों के प्रत्यक्ष फल का उपभोग करते हैं, जिसका साक्षी सारा जगत है। यह जल के समीप जो बगुला बैठकर (मछली के लिये) ध्यान लगा रहा है, उसी के समान ये सभी प्राणी अपने उद्योग का आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं।
धाता और विधाता भी सदा सृष्टिपालन के उद्योग में लगे रहते हैं। कर्म न करने वाले प्राणियों की कोई जीविका भी सिद्ध नहीं होती। अतः (प्रारब्ध का भरोसा करके) सभी कर्म का परित्याग न करे। सदा कर्म का ही आश्रय ले। अतः आप अपना कर्म करें। उसमें ग्लानि न करे; कर्म का कवच पहने रहें। जो कर्म करना अच्छी तरह जानता है, ऐसा मनुष्य हजारों में एक ही है, या नहीं ? यह बताना कठिन है। ही है। परन्तु जो आलसी है, जिसके ठीक-ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि नहीं प्राप्त होती। यदि समस्त प्रजा इस भूतलपर कर्म करना छोड़ दे तो सबका संहार हो जाय। यदि कर्म का कुछ फल न हो तो इन प्रजाओं की वद्धि ही न हो। हम देखते हैं कि लोग व्यर्थ कर्म में लगे रहते हैं, कर्म न करने पर तो लोगों की किसी प्रकार जीविका ही नहीं चल सकती।
पूर्वकर्मो के फल का वर्णन
संसार में जो केवल भाग्य के भरोसे कर्म नहीं करता अर्थात जो ऐसा मानता है कि पहले जैसा किया है वैसा ही फल अपने आप ही प्राप्त होगा तथा जो हठवादी है- बिना किसी युक्ति के हठपूर्वक यह मानना है कि कर्म करना अनावश्यक है, जो कुछ मिलना होगा, अपने आप मिल जायेगा, वे दोनों ही मूर्ख हैं। जिसकी बुद्धि कर्म[2] में रुचि रखती है, वही प्रशंसापात्र है। जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य प्रारब्ध (भाग्य) का भरोसा रखकर उद्योग से मुंह मोड़ लेता है और सुख से सोता रहता है, उसका जल में रखे हुए कच्चे घड़े की भाँति विनाश हो जाता है। इसी प्रकार जो हठी और दुर्बुद्धि मानव कर्म करने में समर्थ होकर भी कर्म नहीं करता, बैठा रहता है, वह दुर्बल एवं अनाथ की भाँति दीर्धजीवी नहीं होता। जो कोई मनुष्य इस जगत में अकस्मात् कहीं से धन पा लेता है, उसे लोग हठ से मिला हुआ मान लेते हैं; क्योंकि उसके लिये किसी के द्वारा प्रयत्न किया हुआ नहीं दीखता।[1]
कुन्तीनन्दन! मनुष्य जो कुछ भी देवाराधन की विधि से अपने भाग्य के अनुसार पाता है, उसे निश्चितरूप से दैव (प्रारब्ध) कहा गया है। तथा मनुष्य स्वंय कर्म करके जो कुछ फल प्राप्त करता है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। यह सब लोगों को प्रत्यक्ष दिखायी देता है। नरश्रेष्ठ! जो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत होकर धन प्राप्त करता है, किसी कारणवश नहीं, उसके उस धन को स्वाभाविक फल समझना चाहिये। इस प्रकार हठ, दैव, स्वभाव तथा कर्म से मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं का पाता है, वे सब उसके पूर्वकर्मोंके ही फल हैं। जगदाधार परमेश्वर भी उपर्युक्त हठ आदि हेतुओं से जीवों के अपने-अपने कर्म को ही विभक्त करके मनुष्यों को उसके पूर्वजन्म में किये हुए कर्म के फलस्वरूप से यहाँ प्राप्त कराता है। पुरुष यहाँ जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उसे ईश्वर द्वारा विहित उसके पूर्वकर्मो के फलका उदय समझिये। यह मानव-शरीर जो कर्म में प्रवृत्त होता है, वह ईश्वर के कर्मफल सम्पादन-कार्य का साधन है। वे इसे जैसी प्रेरणा देते हैं, यह विवश होकर (स्वेच्छा-प्रारब्धभोग के लिये) वैसा ही करता है।
कर्म द्वारा मनुष्य को फल प्राप्ति
कुन्तीनन्दन! परमेश्वर ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कार्यो लगाते और स्वभाग के परवश हुए उन प्राणियों से कर्म कराते हैं। किंतु वीर! मन से अभीष्ट वस्तुओं का निश्चय करके फिर कर्म द्वारा मनुष्य स्वयं बुद्धिपूर्वक उन्हें प्राप्त करता है। अतः पुरुष ही उसमें कारण है। नरश्रेष्ठ! कर्मों की गणना नहीं की जा सकती। गृह एवं नगर आदि सभी की प्राप्ति में पुरुष ही कारण है। विद्वान् पुरुष पहले बुद्धिद्वारा यह निश्चय करे कि तिल में तेल है, गाय के भीतर दूध है, और काष्ठ में अग्नि है, तत्पश्चात् उसकी सिद्धि के उपाय का निश्चय करे। तदनन्तर उन्हीं उपायों द्वारा उस कार्य की सिद्धि के लिये प्रवृत्त होना चाहिये। सभी प्राणी इस जगत् में उस कर्मजनित सिद्धि का सहारा लेते हैं। योग्य कर्ता के द्वारा किया गया कर्म अच्छे ढंग से सम्पादित होता है। यह कार्य किसी अयोग्य कर्ता के द्वारा किया गया है, यह बात कार्य की विशेषता से अर्थात् परिणाम से जानी जाती है।
यदि कर्मसाध्य फलों में पुरुष (एवं उसका प्रयत्न) कारण न होता अर्थात वह कर्ता नहीं बनता तो किसी को यज्ञ और कूपनिर्माण आदि कर्मों का फल नहीं मिलता। फिर तो न कोई किसी का शिष्य होता और न गुरु ही। कर्ता होने के कारण ही कार्य सिद्धि में पुरुष की प्रशंसा की जाती है और जब कार्य की सिद्धि नहीं होती, तब उसकी निंदा की जाती है। यदि कर्म का सर्वथा नाश ही हो जाय, तो यहाँ कार्य की सिद्धि ही कैसे हो। कोई तो सब कार्यों को हठसे ही सिद्ध होने वाला बतलाते हैं। कुछ लोग दैवसे कार्य की सिद्धि का प्रतिपादन करते हैं तथा कुछ लोग पुरुषार्थ को ही कार्यसिद्धि का कारण बताते हैं। इस तरह ये तीन प्रकार के कारण बताये जाते हैं।
दूसरे लोगों की मान्यता इस प्रकार है कि मनुष्य के प्रयत्न की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अदृश्य दैव (प्रारब्ध) तथा हठ-ये दो ही सब कार्यों के कारण हैं। क्योंकि यह देखा जाता है कि हठ तथा दैव से सब कार्यों की धारावाहिक रूप से सिद्धि हो रही है। जो लोग तत्त्वज्ञ एवं कुशल हैं, वे प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य कुछ फल दैव से, कुछ हठ से और कुछ स्वभाव से प्राप्त करता है। इस विषय में इन तीनों के सिवा कोई चौथा कारण नहीं है।[3]
क्योंकि पूर्वकृत प्रारब्ध कर्म प्रभाव डालने वाला न होता तो मनुष्य जिस-जिस प्रयोजन के अभिप्राय से कर्म करता, वह सब सफल ही हो जाता अतः जो लोग अर्थसिद्धि तथा अनर्थ की प्राप्ति में दैव, हठ और स्वभाव-इन तीनों को कारण नहीं समझते, वे वैसे ही हैं, जैसे की साधारण अज्ञ लोग होते हैं। किंतु मनुष्य का सिंद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिये, जो बिल्कुल कर्म छोड़कर निश्चेष्ट हो बैठे रहता है, वह पुरुष पराभव को प्राप्त होता है।[4] महाराज युधिष्ठिर! कर्म करने वाले पुरुष को यहाँ प्रायः फल की सिद्धि प्राप्त होती ही है। परन्तु जो आलसी है, जिसके ठीक-ठीक कर्तव्य का पालन नहीं हो पाता, उसे कभी फल की सिद्धि नहीं प्राप्त होती। यदि कर्म करने पर भी फल की उत्पत्ति न हो तो कोई-न-कोई कारण हैः ऐसा मानकर प्रायश्चित (उसके दोष के समाधान) पर दृष्टि डाले। राजेन्द्र! कर्म की सांगोपांग कर लेने पर कर्ता उऋण (निर्दोष) हो जाता है। जो मनुष्य आलस्य के वश में पड़कर सोता रहता है, उसी दरिद्रता प्राप्त होती है और कार्यकुशल मानव निश्चय ही अभीष्ट फल पाकर ऐश्वर्य का उपभोग करता है। कर्म का फल होगा या नहीं, इस संशय में पड़े हुए मनुष्य अर्थसिद्धि से वंचित रह जाते हैं और जो संशयरहित हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है। कर्मपरायण और संशयरहित धीर मनुष्य निश्चय ही कहीं बिरले देखे जाते हैं। इस समय हमलोगों पर राज्यापहरणरूप भारी विपद् आ पड़ी है, यदि आप कर्म (पुरुषार्थ) में तत्परता से लग जाय तो निश्चय ही यह आपत्ति टल सकती है। अथवा यदि कार्य की सिद्धि ही हो जाय, तो वह आपके, भीमसेन और अर्जुन के साथ नकुल-सहदेव के लिये भी विशेष गौरव की बात होगी।
कर्मो के कर लेने पर अन्त में कर्ता को जैसा फल मिलता है, उसके अनुसार ही यह जाना जा सकता है कि दूसरों का कर्म सफल हुआ है या हमारा। किसान हल से पृथ्वी को चीरकर उसमें बीज बोता है और फिर चुपचाप बैठा रहता है; क्योंकि उसे सफल बनाने में मेघ कारण हैं। यदि वृष्टि ने अनुग्रह नहीं किया तो उसमें किसान का कोई दोष नहीं है। वह किसान मन-ही-मन यह सोचता है कि दूसरे लोग जोतने-बोने का जो सफल कार्य जैसे करते हैं, वह सब मैंने भी किया है। उस दशा में यदि मुझे ऐसा प्रतिकूल फल मिला तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है-ऐसा विचार करके उस असफलता के लिये वह बुद्धिमान् किसान अपनी निंदा नहीं करता।
भारत! पुरुषार्थ करने पर यदि अपने को सिद्धि न प्राप्त हो तो इस बात को लेकर मन-ही-मन खिन्न नहीं होना चाहिये; क्योंकि फल की सिद्धि में पुरुषार्थ के सिवा दो और भी कारण हैं- प्रारब्ध और ईश्वर कृपा। महाराज! कार्य में सिद्धि प्राप्त होगी या असिद्धि, ऐसा संदेह मन में लेकर आप कर्म में प्रवृत्त ही न हों, यह उचित नहीं हैं; क्योंकि बहुत-से कारण एकत्र होने पर ही कर्म में सफलता मिलती है। कर्मों में किसी अंग की कमी रह जाने पर थोड़ा फल हो सकता है। यह भी सम्भव है कि फल हो ही नहीं। परन्तु कर्म का आरम्भ ही न किया जाय तब तो न कहीं फल दिखायी देगा और न कर्ताका कोई गुण (शौर्य आदि) ही दृष्टिगोचर होगा।[5]
धीर पुरुष मंगलमय कल्याण की वृद्धि के लिये अपनी बुद्धि के द्वारा शक्ति तथा बल का विचार करते हुए देश-काल के अनुसार साम-दाम आदि उपायों का प्रयोग करे। सावधान होकर देश-काल के अनुरूप कार्य करे। इसमें पराक्रम ही उपदेशक (प्रधान) है। कार्य की समस्त युक्तियों में पराक्रम ही सबसे श्रेष्ठ समझा गया है। जहाँ बुद्धिमान् पुरुष शत्रु को अनेक गुणों से श्रेष्ठ देखे, वहाँ सामनीति से ही काम बनाने की इच्छा करे और उसके लिये जो संधि आदि आवश्यक कर्तव्य हो, करे। महाराज युधिष्ठिर! अथवा शत्रुपर कोई भारी संकट आने या देश से उसके निकाले जाने की प्रतीक्षा करे; क्योंकि अपना विरोधी यदि समुद्र अथवा पर्वत हो तो उसपर भी विपत्ति लाने की इच्छा रखनी चाहिये, फिर जो मरणधर्मा मनुष्य है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ? शत्रुओं के छिद्र का अन्वेषण करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा करने से वह अपनी और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी निर्दोष होता है। भारत! लोक को इसी प्रकार कार्यसिद्धि प्राप्त होती है-कार्यसिद्धि की यही व्यवस्था है। काल और अवस्था के विभाग के अनुसार शत्रु की दुर्बलता के अन्वेषण का प्रयत्न ही सिद्धि का मूल कारण है। भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में मेरे पिताजी ने अपने घरपर एक विद्वान् ब्राह्मण को ठहराया था। उन्होंने ही पिता जी से बृहस्पति जी की बतायी हुई इस सम्पूर्ण नीति का प्रतिपादन किया था और मेरे भाईयों को भी इसी की शिक्षा दी थी। उस समय अपेन भाइयों के निकट रहकर घर में ही मैंने भी उस नीति को सुना था। महाराज युधिष्ठिर! मैं उस समय किसी कार्य से पिता के पास आयी थी और यह सब सुनने की इच्छा से उनकी गोद में बैठ गयी थी। तभी उन ब्राह्मण देवता ने मुझे सान्त्वना देते हुए इस नीति का उपेदश दिया था।[6]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-16
- ↑ पुरुषार्थ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 17-35
- ↑ इसलिये मेरा तो कहना यह है कि
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 36-52
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 32 श्लोक 53-62
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| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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