देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन

महाभारत वनपर्व के व्रीहिद्रौणिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 261 में देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम के वर्णन की कथा कही है।[1]

देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष

देवदूत बोला- महर्षे! तुम्‍हारी बुद्धि बडी उत्तम है। जिस उत्तम स्‍वर्गीय सुख को दूसरे लोग बहुत बड़ी चीज समझते हैं, फिर तुम्‍हें प्राप्‍त ही है, फिर भी तुम अनजान से बनकर इसके सम्‍बंध में विचार करते हो इसके गुण दोष की समीक्षा कर रहे हो। मुने! वहाँ पहुँचने के लिये ऊपर को जाया जाता है, इसलिये उसका एक नाम उव्‍वर्ग भी है। वहाँ जाने के लिये जो मार्ग है, वह बहुत उत्तम है। वहाँ के लोग सदा विमानों पर विचरा करते हैं। मुद्गल[2]! जिन्‍होंने तपस्‍या नहीं की है बडे-बड़े यज्ञों द्वारा यजन नहीं किया है तथा जो असत्‍यवादी एवं नास्तिक हैं, वे उस लोक में नहीं जा पाते हैं। ब्रह्मन! धर्मात्‍मा, मन को वश में रखने वाले, शम-दम से सम्‍पन्‍न ईर्ष्‍या रहित, दान धर्म परायण तथा युद्धकला में प्रसिद्ध शूरवीर मनुष्‍य ही वहाँ सब धामों में श्रेष्‍ठ इन्द्रिय संयम और मनोनिग्रह रूपी योग को अपनाकर सत्‍पुरुषों द्वारा सेवित पुण्‍यनो के लोको में जाते हैं। मुद्गल! वहाँ देवता, साध्‍य, विश्‍वेदेव, महर्षि गण, याम, धाम, गन्‍धर्व तथा अप्‍सरा-इन सब देव समूहों के अलग-अलग अनेक प्रकाश मान लोक हैं, जो इच्‍छानुसार प्राप्‍त होने वाले भोगों से सम्‍पन्‍न, तेजस्‍वी तथा मंगलकारी है।

स्‍वर्ग में तैंतीस हजार योजन का सुवर्णमय एक बहुत ऊंचा पर्वत है, जो मेरूगिरि के नाम से विख्‍यात है। मुद्गल! वहीं देवताओं के नन्‍दन आदि पवित्र उद्यान तथा पुण्‍यात्‍मा पुरुषों के विहार स्‍थल हैं। वहाँ किसी को भूख प्‍यास नहीं लगती, मनमें कभी ग्‍लानि नहीं होती, गर्मी और जाड़े का कष्‍ट भी नहीं होता और न कोई भय ही होता है। वहाँ कोई भी वस्‍तु ऐसी नहीं है, जो घृणा करने योग्‍य एवं अशुभ हो। वहाँ सब ओर मनोरम सुगन्‍ध, सुखदायक स्‍पर्श तथा कानो और मन को प्रिय लगने वाले मधुर शब्‍द सुनने में आते है। मुने! स्‍वर्ग लोक में न शोक होता है, न बुढ़ापा। वहाँ थकावट तथा करुणाजनक विलाप भी श्रवणगोचर नहीं होते हैं। महर्षे! स्‍वर्ग लोक ऐसा ही है। अपने सत्‍कर्मो के फल रूप ही उनकी प्राप्ति होती है मनुष्‍य वहाँ अपने किये हुए पुण्‍य कर्मो से ही रह पाते है।

मुद्गल! स्‍वर्गवासियों के शरीर में तेजस्‍व तत्त्व की प्रधानता होती है। वे शरीर पुण्‍य कर्मो से उपलब्‍ध होता है। माता पिता के रजोवीर्य से उनकी उत्‍पत्ति नहीं होती है। उन शरीरों में कभी पसीना नहीं निकलता दुर्गन्‍ध नहीं आती तथा मल मूत्र का भी अभाव होता है। मुने! उनके कपडों में कभी मैल नही बैठती है। स्‍वर्गवासियों की जो[3]मालाएँ होती हैं, वे कभी कुम्‍हलाती नहीं है। उनसे निरन्‍तर दिव्‍य सुगन्‍ध फैलती रहती है तथा वे देखने में भी बडी मनोरम होती हैं। ब्रह्मन! स्‍वर्ग के सभी निवासी ऐसे ही विमानों से सम्‍पन्‍न होते हैं। महामुने! जो अपने सत्‍कर्मो द्वारा स्‍वर्ग लोक पर विजय पा चुके हैं वे वहाँ बड़े सुख से जीवन बिताते हैं उनमें किसी के प्रति ईर्ष्‍या नहीं होती, वे कभी शोक तथा थकावट का अनुभव नहीं करते एवं मोह तथा मात्‍सर्य (द्वेषभाव) से सदा दूर रहते हैं। मुनिश्रेष्‍ठ! देवताओं के जो पूर्वोक्‍त प्रकार के लोक हैं, उन सबके ऊपर अन्‍य कितने ही विविध गुण सम्‍पन्‍न दिव्‍य लोक हैं।[1]

देवदूत द्वारा ब्रह्मा के लोक का वर्णन

उन सबसे ऊपर ब्रह्मा जी के लोक हैं जो अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी एवं मंगलकारी हैं। ब्रह्मन! वहाँ अपने शुभ कर्मो से पवित्र ऋषि, मुनि जाते है। वहीं ऋभु नामक दूसरे देवता रहते हैं, जो देव गणों के भी आराध्‍य देव हैं देवताओं के लोकों से उनका स्‍थान उत्‍कृष्‍ट है। देवता लोग भी यज्ञों द्वारा उनका यजन करते हैं। उनके उत्‍तम लोक स्‍वयं प्रकाश, तेजस्‍वी और सम्‍पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं। उन्‍हें स्त्रियों के लिये संताप नहीं होता। लोकों के ऐश्‍वर्य के लिये उनके मन में कभी ईर्ष्‍या नहीं होती। वे देवताओं की तरह आहुतियों से जीविका नहीं चलाते। उन्‍हें अमृत पीने की भी आवश्‍यकता नही होती। उनके शरीर दिव्‍य ज्‍योतिर्मय हैं। उनकी कोई विशेष आकृति नहीं होती। वे सुख में प्रतिष्ठित हैं, परन्‍तु सुख की कामना नहीं रखते। वे देवताओंके भी देवता और सनातन हैं। कल्‍पका अन्‍त होने पर भी उनकी स्थितिमें परिवर्तन नहीं होता वे ज्‍यों-के-त्‍यों बने रहते हैं।

मुने! उनमें जरा मृत्‍यु की सम्‍भावना तो हो ही कैसे सकती है? हर्ष, प्रीति तथा सुख आदि विकारों का भी उनमें सर्वथा अभाव भी है ऐसी स्थिति में उनके भीतर दु:ख-सुख तथा राग-द्वेषादि कैसे रह सकती है। मौद्गल्‍य! स्‍वर्गवासी देवता भी उस [4] परमगति को प्राप्‍त करने की इच्‍छा रखते हैं। वह परा सिद्धि की अवस्‍था है, जो अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। विषय-भोगों की इच्‍छा रखने वाले लोगों की वहाँ तक पहुँच नही होती। ये जो तैंतीस देवता हैं, उन्‍हीं के लोको की मनीषी पुरुष उत्‍तम नियमों के आचरण से अथवा विधि पूर्वक दिये हुए दानों से प्राप्‍त करते हैं। ब्रह्मन! तुमने अपने दान के प्रभाव से अनायास ही वह स्‍वर्गीय सुख सम्‍पत्ति प्राप्‍त कर ली है। अपनी तपस्‍या के तेज से दैदीप्‍यमान होकर अब तुम अपने पुण्‍य से प्राप्‍त हुए उस दिव्‍य वैभव का उपभोग करो। विप्रवर! यही स्‍वर्ग का सुख है और इसे ही वहाँ भॉंति-भॉंति के लोक हैं यहाँ तक मैंने स्‍वर्ग के गुण बताये हैं अब वहाँ के दोष भी मुझसे सुन लो। अपने किये हुए सत्‍कर्मो का जो फल होता है, वही स्‍वर्ग में भोगा जाता है। वहाँ कोई नया कर्म नहीं किया जाता। अपना पुण्‍यरूप मूलधन गवां ने से ही वहाँ के भोग प्राप्‍त होते हैं।

मुद्गल! स्‍वर्ग में सबसे बड़ा दोष मुझे यह जान पड़ है कि कर्मो का भोग समाप्‍त होने पर एक दिन वहाँ से पतन हो ही जाता है। उनका मन सुख भोग में लगा हुआ है, उनको सहसा पतन कितना दु:खदायी होता है। स्‍वर्ग में भी जो लोग नीचे के स्‍थानों में स्थित हैं, उन्‍हें अपने से ऊपर के लोकों की समुज्‍ज्‍वल श्री सम्‍पत्ति देखकर जो असन्‍तोष और सन्‍ताप होता है, उनका वर्णन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। स्‍वर्ग लोक से गिरते समय वहाँ के निवासियों की चेतना लुप्‍त हो जाती है। रजोगुण के आक्रमण से उनकी बुद्धि बिगड़ जाती है। पहले उनके गले की मालाये कुम्‍हला जाती हैं, इससे उन्‍हें पतन की सूचना मिल जाने से उनके मन में बड़ा भारी भय समा जाता है। मौद्गल्‍य! ब्रह्मलोकपर्यन्‍त जितने लोक हैं, उन सब में ये भंयकर दोष देखे जाते हैं। स्‍वर्ग लोक में रहते समय तो पुण्‍यात्‍मा पुरुषों मे सहस्‍त्रों गुण होते हैं। मुने! अल्‍प परन्‍तु वहाँ से भ्रष्‍ट हुए जीवों का भी यह एक अन्‍य श्रेष्‍ठ गुण देखा जाता है कि वे अपने शुभ कर्मो के संस्‍कार से युक्‍त होने के कारण मनुष्‍य योनि में ही जन्‍म पाते हैं।[5]

विष्णुधाम का वर्णन

वहाँ भी वह महाभाग मानव सुख के साधनों से सम्‍पन्‍न होकर उत्‍पन्‍न होते हैं। परन्‍तु यदि मानव योनि में वह अपने कर्तव्‍य को न समझते, तो उससे भी नीचे योनि में चला जाता है। इस मनुष्‍य लोक में मानव शरीर द्वारा जो कर्म किया जाता है, उसी को परलोक में भोगा जाता है। ब्रह्मन! यह कर्मभूमि और फल भोग की भूमि मानी गयी है। मुद्गल बोले-देवदूत! तुमने स्‍वर्ग के महान दोष बताये, परन्‍तु स्‍वर्ग की अपेक्षा यदि कोई दूसरा लोक इन दोषों से सर्वथा रहित हो, तो मुझसे उसका वर्णन करो।

देवदूत ने कहा– ब्रह्मा जी के भी लोक से ऊपर भगवान विष्‍णु का परमधाम है। वह शुद्ध सनातन ज्‍योतिर्मय लोक है। उसे परम ब्रह्मा भी कहते हैं। विप्रवर! जिनका मन विषयों में रचा पचा रहता है, वे लोग वहाँ नहीं जा सकते। दम्‍भ, लोभ, महाक्रोध, मोह और द्रोह से युक्‍त मनुष्‍य भी वहाँ नही पहुँच सकते। जो ममता और अहंकार से रहित, सुख दुख आदि द्वन्‍दो से ऊपर उठे हुए, जितेन्द्रिय तथा ध्‍यान योग में तत्‍पर हैं, वे मनुष्‍य ही उस लोक में जा सकते हैं। मुद्गल! तुमने जो कुछ मुझसे पूछा था वह सब मैंने कह सुनाया। साधो! अब आपकी कृपा से हमलोग सुख पूर्वक स्‍वर्ग की यात्रा करें, विलम्‍ब नहीं होना चाहिये।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 261 श्लोक 1-17
  2. मुद्गल ऋषि को ही ‘मौद्गल्य’ भी कहा है।
  3. दिव्‍यकुसुमों की
  4. ऋभु नामक देवताओं की
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 261 श्लोक 18-33
  6. महाभारत वन पर्व अध्याय 261 श्लोक 34-51

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यक्षयुद्ध पर्व
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निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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