- मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन किया जाता है, सभी पाण्डव, श्रीकृष्ण की शरण में जाते हैं और अब युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव के वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 190 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय से प्रश्न पूछना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने महामुनि मार्कण्डेय से अपने साम्राज्य में जगत की भावी गतिविधि के विषय में पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ! भृगुवंश विभूषण महर्षें! हम ने आपके मुख से युग के आदि में संघटित हुई उत्पति और प्रलय के सम्बन्ध में बड़े आश्चर्य की बातें सुनी हैं। अब मुझे इस कलियुग के विषय में पुनः विशेष रूप से सुनने का कुतूहल हो रहा हैं। जब सारे धर्मों का उच्छेद हो जायगा, उस समय क्या शेष रहा जायगा ? युगान्तकाल में कलियुग के मनुष्यों का बल-पराक्रम कैसा होगा ? उनके आहार-विहार कैसे होंगे ? उनकी आयु कितनी होगी और उनके परिधान-वस्त्राभूषण कैसे होंगे। कलियुग के किस सीमा तक पहुँच जाने पर पुनः सत्ययुग आरम्भ हो जायगा ? मुने! इन सब बातों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आप की कथा बड़ी विचित्र होती हैं। युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर मुनिश्रेष्ठ महर्षि मार्कण्डेय ने वृष्णिप्रवर श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों को आनन्दित करते हुए पुनः इस प्रकार कहा।
मार्कण्डेय का उत्तर देना
मार्कण्डेय बोले- भरतश्रेष्ठ राजन! मैंने देवाधिदेव भगवान बालमुकुन्द की कृपा से पूर्वकाल में, निकृष्ट कलिकाल के प्राप्त होने पर सम्पूर्ण लोकों के भावी वृतान्त के विषयों जो कुछ देखा- सुना या अनुभव किया हैं, वह बताता हूं, सुनो और समझो। भरतश्रेष्ठ! मार्कण्डेय में मनुष्यों के भीतर वृषरूप धर्म अपने चारों पादों से युक्त होने के कारण सम्पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित होता है। उस में छल-कपट या दम्भ नहीं होता। किंतु त्रेता में वह धर्म अधर्म के एक पाद से अभिभूत होकर अपने तीन अंशों से ही प्रतिष्ठित होता है। द्वापर में धर्म आधा ही रह जाता हैं। आधे में अधर्म आकर मिल जाता हैं। परंतु भरतश्रेष्ठ! कलियुग आने पर अधर्म अपने तीन अंशो द्वारा सम्पूर्ण लोकों को आक्रान्त करके स्थित होता है और धर्म केवल एक पाद से मनुष्यों में प्रतिष्ठित होता है। पाण्डुनन्दन! प्रत्येक युग में मनुष्यों की आयु, वीर्य, बुद्धि, बल तथा तेज क्रमशः घटते जाते हैं।
युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
युधिष्ठिर! अब कलियुग के समय का वर्णन सुनो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र सभी जातियों के लोग कपटपूर्वक धर्म का आचरण करेंगे और धर्म का जाल बिछाकर दूसरे लोगों को ठगते रहेंगे। अपने को पण्डित मानने वाले लोग सत्य का त्याग कर देंगे। सत्य की हानि होने से उनकी आयु थोड़ी हो जायगी। और आयु की कमी होने के कारण वे अपने जीवन-निर्वाह के योग्य विद्या प्राप्त नहीं कर सकेंगे। विद्या के बिना ज्ञान न होने से उन सब को लोभ दबा लेगा। फिर लोभ और क्रोध के वशीभूत हुए मूढ़ मनुष्य कामनाओं में फंसकर आपस में वैर बांध लेंगे और एक दूसरे के प्राण लेने की घात में लगे रहेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये आपस में संतानोत्पादन करके वर्णसंकर हो जायंगे। वे सभी तपस्या और सत्य से रहित हो शूद्रों के समान हो जायंगे। अन्त्यज[2]क्षत्रियवैश्य आदि के कर्म करेंगे और क्षत्रिय-वैश्य आदि चाण्डालों के कर्म अपना लेंगे, इसमें संशय नहीं हैं। युगान्तकाल आने पर लोगों की ऐसी ही दशा होगी। वस्त्रों में सनके बने हुए वस्त्र अच्छे समझे जायंगे। धानों में कोदो का आदर होगा। उस युगक्षय के समय पुरुष केवल स्त्रियों से ही मित्रता करने वाले होंगे। कितने ही लोग मछली के मांस के जीविका चलायेंगे। गायों के नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य भेड़ और बकरी का भी दूध दुहकर पीयेंगे। जो लोग सदा व्रत धारण करके रहने वाले हैं, वे भी युगान्त काल में लोभी हो जायंगे। लोग एक दूसरे को लूटेंगे और मारेंगे। युगान्तकाल के मनुष्य जप रहित, नास्तिक और चोरी करने वाले होंगे। नदियोंके किनारे की भूमि को कुदालों से खोदकर लोग वहाँ अनाज बोयेगे। उन अनाजों में भी युगान्तकाल के प्रभाव से बहुत कम फल लगेंगे। जो सदा[3] व्रत का पालन करने वाले लोग हैं, वे भी उस समय लोभवश देवयज्ञ तथा श्राद्ध में एक दूसरे के यहाँ भोजन करेंगे।
कलयुग में अधर्म का बढ़ना धर्म की समाप्ति
कलियुग के अन्तिम भाग में पिता पुत्र की और पुत्र पिता की शया आदि का उपभोग करने लगेंगे। उस समय त्याज्य[4]पदार्थ भी भोजन के योग्य समझे जायंगे। ब्राह्मण लोग व्रत और नियमों का पालन तो करेंगे नहीं, उलटे वेदों की निन्दा करने लग जायंगे। कोरे तर्कवाद से मोहित होकर वे यज्ञ और होम छोड़ बैठेंगे। वे केवल तर्कवाद से मोहित होकर नीच-से-नीच कर्म करने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। मनुष्य नीची भूमि में[5] खेती करेंगे। दूध देने वाली गायों को भी बोझ ढोने के काम में लगा देंगे और साल भर के बछड़ों को भी हल में जोतेंगे। पुत्र पिता का और पिता पुत्र का वध करके भी उद्धिग्र नहीं होंगे। अपनी प्रशंसा के लिये लोग बड़ी-बड़ी बातें बनायेंगे, किंतु समाज में उनकी निन्दा नहीं होगी। सारा संसार म्लेच्छों की भाँति शुभ कर्म और यज्ञ-यागादि छोड़ देगा तथा आनन्द शून्य और उत्सव रहित हो जायगा। लोग प्रायः दीनों, असहायों तथा विधवाओं का भी धन हड़प लेंगे। उनके शारीरिक बल और पराक्रम क्षीण हो जायंगे। वे उदण्ड होकर लोभ और मोह में डूबे रहेंगे। वैसे ही लोगों की चर्चा करने और उन से दान लेने में प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। कपटपूर्ण आचार को अपनाकर वे दुष्टों के दिये हुए दान को भी ग्रहण कर लेंगे। कुन्तीनन्दन! पाप बुद्धि राजा एक दूसरे को युद्ध के लिये ललकारते हुए परस्पर एक दूसरे के प्राण लेने को उतारू रहेंगे और मूर्ख होते हुए अपने को पण्डित मानेंगे। इस प्रकार युगान्तकाल के सभी क्षत्रिय जगत के लिये कांटे बन जायंगे। कलियुग की समाप्तिके समय वे प्रजा की रक्षा तो करेंगे नहीं, उनसे रूपये ऐंठने के लिये लोभ अधिक रखेंगे। सदा मान और अहंकार के मद से चूर रहेंगे। वे केवल प्रजा को दण्ड देने के कार्य में ही रुचि रखेंगे। भारत! लोग इतने निर्दयी हो जायंगे कि सज्जन पुरुषों पर भी बार-बार आक्रमण करके उनके धन और स्त्रियों का बलपूर्वक उपभोग करेंगे तथा उनके रोने-बिलखने पर भी दया नहीं करेंगे। कलियुग का अन्त आने पर न तो कोई किसी से कन्या की वाचना करेगा और न कोई कन्यादान ही करेगा। उस समय के वर-कन्या स्वयं ही एक दूसरे को चुन लेंगे। कलियुग की समाप्ति के समय असंतोषी तथा मूढ़-चित्त राजा भी सब तरह के उपायों से दूसरों के धन का अपहरण करेंगे। उस समय सारा जगत म्लेच्छ हो जायगा-इसमें संशय नहीं। एक हाथ दूसरे हाथ को लूटेगा-सगा भाई भी भाई के धन को हड़प लेगा। अपने को पण्डित मानने वाले मनुष्य संसार में सत्य को मिटा देंगे। बूढ़ों की बुद्धि बालकों-जैसी होगी और बालकों की बूढ़ों-जैसी। युगान्तकाल उपस्थित होने पर कायर अपने को शूर-वीर मानेंगे और शूर-वीर कायरों की भाँति विषाद में डूबे रहेंगे। कोई एक दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे। युग के सब लोग लोभ और मोह में फंसकर भक्ष्याभक्ष्य का विचार किये बिना ही एक साथ सम्मिलित होकर भोजन करने लगेंगे। अधर्म बढ़ेगा और धर्म विदा हो जायगा।
नरेश्वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाम ही नहीं रह जायगा। युगान्तकाल में सारा विश्व एक वर्ण, एक जाति का हो जायगा। युगक्षय- काल में पिता पुत्र के अपराध को क्षमा नहीं करेंगे और पुत्र भी पिता जी बात नहीं सहेगा। स्त्रियां अपने पतियों की सेवा छोड़ देंगी। युगान्तकाल आने पर ( लोग ) उन प्रदेशों में चले जायंगे जहाँ जौ और गेहूँ आदि अनाज अधिक पैदा होते हैं[6]। महाराज! युगान्तकाल आने पर पुरुष और स्त्रियां स्वेच्छाचारी होकर एक दूसरे के कार्य और विचार को नहीं सहेंगे। युधिष्ठिर! उस समय सारा जगत म्लेच्छ हो जायगा। मनुष्य श्राद्ध और यश्र-कर्मों द्वारा पितरों और देवताओं संतुष्ट नहीं करेंगे।[7]राजन! उस समय कोई किसी का उपदेश नहीं सुनेगा और न कोई किसी का गुरु ही होगा। सारा जगत अज्ञानमय अन्धकार से आच्छादित हो जायगा। उस समय युगान्तकाल उपस्थित होने पर लोगों की आयु अधिक-से-अधिक सोलह वर्ष की होगी, उसके बाद वे प्राण त्याग कर देंगे। पांचवें या छठे वर्ष में स्त्रियां बच्चे पैदा करने लगेंगी और सात-आठ वर्ष के पुरुष संतानोत्पादन में प्रवृत हो जायंगे। नृपश्रेष्ठ! युगान्तकाल आने पर स्त्री अपने पति से और पति अपनी स्त्री से संतुष्ट नहीं होंगे। कलियुग के अन्तभाग में लोगों के पास धन थोड़ा रहेगा और लोग दिखावे के लिये साधु वेष धारण करेंगे। हिंसा का जोर बढ़ेगा और कोई किसी को कुछ देने वाला नहीं रहेगा। युगक्षयकाल में सभी देशों के लोग अन्न बेचेंगे। ब्राह्मण वेद विक्रय करेंगे और स्त्रियां वेश्यावृत्ति अपना लेंगी। युगान्तरकाल के मनुष्य म्लेच्छों-जैसे आचार वाले और सर्वभक्षी यानि अभक्ष्य का भी लक्षण करने वाले हो जायंगे। वे प्रत्येक कर्म में अपनी कू्ररता का परिचय देंगे, इसमें संशय नहीं हैं। भरतश्रेष्ठ! युगान्तर काल में धन के लिये क्रय-विक्रय के समय सभी सब को ठगेंगे।
कलयुग में मर्यादा का अंत
क्रिया के तत्त्व को न जान कर भी लोग उसे करने में प्रवृत्त होंगे। युगान्तरकाल के सभी मानव स्वेच्छाचारी हो जायंगे। सभी स्वभावतः कू्रर और एक दूसरे पर मिथ्या कलंक लगाने वाले होंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर सब लोग बगीचों और वृक्षों को कटवा देंगे और ऐसा करते समय उनके मन में पीड़ा नहीं होगी। प्रत्येक मनुष्य के जीवन धारण में भी शंका हो जायगी। अर्थात प्रत्येक मनुष्य का जीवन धारण करना कठिन हो जायगा। राजन! सब लोग लोभ के वशीभूत होंगे और ब्राह्मणों का धन उपभोग करने का जिनका स्वभाव पड़ गया हैं, वे धन के लिये ब्राह्मणों को मार भी ड़ालेंगे। शूद्रों के सताये हुए ब्राह्मण भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगेंगे और अपने लिये कोई रक्षक न मिलने के कारण सारी पृथ्वी पर निश्चय ही भटकते फिरेंगे। जब दूसरों के जीवन का विनाश करने वाले कू्रर, भयंकर तथा जीवहिंसक मनुष्य पैदा होने लगें, तब समझ लेना चाहिये कि युगान्तकाल उपस्थित हो गया। कुरुकुलतिलक युधिष्ठिर! अत्याचारियों से ड़रे हुए ब्राह्मण इधर-उधर भागकर नदियों, पर्वतों तथा दुर्गम स्थानों का आश्रय लेंगे। राजन! श्रेष्ठ ब्राह्मण भी लुटेरों से पीड़ित होकर कौओं की तरह कांव-कांव करते फिरेंगे। दुष्ट राजाओं के लगाये हुए करों के भार से सदा पीड़ित होने के कारण वे धैर्य छोड़कर चल देंगे और शूद्रों की सेवा-शुश्रूषा में लगे रहकर धर्मविरुद्ध कार्य करेंगे। भूपाल! भयंकर कलियुग के अन्त में जगत की यही दशा होगी। शूद्र धर्मोंपदेश करेंगे ओर ब्राह्मण लोग उनकी सेवा में रहकर उसे सुनेंगे तथा उसी को प्रामाणिक मान कर उसका पालन करेंगे। समस्त लोक का व्यवहार विपरीत और उलट-पुलट हो जायगा। उंच नीच और नीच-उंच हो जायंगे। लोग हड्डी जड़ी हुई दीवारों की तो पूजा करेंगे और देव विग्रहों को त्याग देंगे। युगान्तरकाल में शूद्र द्विजातियों की सेवा नहीं करेंगे। वह समय आने पर महर्षियों के आश्रमों में, ब्राह्मणों के घरों में, देवस्थानों में, चौत्य वृक्षों के आस-पास और नागालयों में जो भूमि होगी, उस पर हड्डी जड़ी हुई दीवारों का चिह्न तो उपलब्ध होगा; परंतु देवमन्दिर उस भूमि की शोभा नहीं बढ़ायेंगे। यह सब युगान्त का लक्षण समझना चाहिये। जब सब मानव सदा भयंकर स्वभाव वाले, धर्म हीन, मांस खोर और शराबी हो जायंगे, उस समय युग का संहार होगा। महाराज! जब फूल-में-फूल फल-में-फल लगने लगेगा, उस समय युग का संहार होगा। युगान्तकाल में मेघ असमय में ही वर्षा करेंगे। मनुष्यों की सारी क्रियाएं क्रम से विपरीत होंगी। शूद्र ब्राह्मणों के साथ विरोध करेंगे। सारी पृथ्वी थोड़े ही समय में म्लेच्छों से भर जायगी। ब्राह्मण लोग करों के भार से भयभीत होकर दसों दिशाओं की शरण लेंगे। सारे जनपद एक-जैसे आचार और वेशभूषा बना लेंगे। लोग बेगार लेने वालों और कर लेने वालों से पीड़ित हो एकान्त आश्रमों में चले जायंगे और फल-मूल खाकर जीवन निर्वाह करेंगे।[8]इस तरह उथल-पुथल मच जाने पर संसार में कोई मर्यादा नहीं रह जायगी। शिष्य गुरु के उपदेश पर नहीं चलेंगे। वे उल्टे उनका अहित करेंगे। अपने कुल का आचार्य भी यदि निर्धन हो तो उसे निरन्तर शिष्यों की ड़ाट-फटकार सुननी पड़ेगी। मित्र, सम्बन्धी या भाई-बन्धु धन के लालच से ही अपने पास रहेंगे। युगान्तकाल आने पर समस्त प्राणियों का अभाव हो जायगा। सारी दिशाएं प्रज्वलित हो उठेंगी और नक्षत्रों की प्रभा विलुप्त हो जायगी। ग्रह उल्टी गति से चलने लगेंगे। हवा इतनी जोर से चलेगी कि लोग व्याकुल हो उठेंगे। महान भय की सूचना देने वाले उल्कापात बार-बार होते रहेंगे। एक सूर्य तो है ही, छः और उदय होंगे और सातों एक साथ तपेंगे। सब ओर बिजली की भयानक गड़गड़ाहट होगी, सब दिशाओं में आग लगेगी। उदय और अस्त के समय सूर्य राहु से ग्रस्त दिखायी देगा। भगवान इन्द्र समय पर वर्षा नहीं करेंगे। युगान्तकाल उपस्थित होने पर बोयी हुई खेती उगेगी ही नहीं; स्त्रियां कठोर स्वभाव वाली और सदा कटुवादिनी होंगी। उन्हें रोना ही अधिक पसंद होगा। वे पति की आज्ञा में नहीं रहेंगी। युगान्तकाल में पुत्र माता-पिता की हत्या करेंगे। नारियां अपने बेटों से मिलकर पति की हत्या करा देंगी। महाराज! अमावस्या के बिना ही राहु सूर्य पर ग्रहण लगायेगा।[9]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 190 श्लोक 1-24
- ↑ चाण्डाल आदि
- ↑ पराण का त्याग कर के
- ↑ अभक्ष्य
- ↑ अर्थात गायों के जल पीने और चरने की जगह में
- ↑ चाहे वह देश निषिद्ध ही क्यों न हो
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 190 श्लोक 25-46
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 190 श्लोक 47-73
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 190 श्लोक 74-97
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| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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