युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान

महाभारत वनपर्व के अर्जुनभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय इकतीस में युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान के वर्णन की कथा कही है।[1]

युधिष्ठिर द्वारा धर्म पालन

युधिष्ठिर बोले- यज्ञसेनकुमारी! तुमने जो बात कही है, वह सुनने में बड़ी मनोहर, विचित्र पदावली से सुशोभित तथा बहुत सुन्दर है, मैंने उसे बड़े ध्यान से सुना है। परंतु इस समय तुम (अज्ञान से) नास्तिक मत का प्रतिपादन कर रही हो। राजकुमारी! मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता; अपितु ‘देना कर्तव्य है‘ यह समझकर दान देता हूँ और यज्ञ को भी कर्तव्य मानकर ही उसका अनुष्ठान करता हूँ। कृष्णे! यहाँ उस कर्म का फल हो या न हो, गृहस्थ आश्रम में रहने वाले पुरुष का जो कर्तव्य है, मैं उसी का यथाशक्ति कर्तव्य बुद्धि से पालन करता हूँ। सुश्रोणि! मैं धर्म का फल पाने के लोभ से धर्म का आचरण नहीं करता, अपितु साधु पुरुषों के आचार व्यवहार से ही मेरा मन धर्म पालन में लगा है। द्रौपदी! जो मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से धर्म का व्यापार करता है, वह धर्मवादी पुरुषों की दृष्टि में हीन और निन्दनीय है। जो पापात्मा मनुष्य नास्तिकतावश, धर्म का अनुष्ठान करके उसके विषय में शंका करता है अथवा धर्म को दुहना चाहता है अर्थात धर्म के नाम पर स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, उसे धर्म का फल बिल्कुल नहीं मिलता। मैं सारे प्रमाणों से ऊपर उठकर केवल शास्त्र के आधार-पर यह जोर देकर कह रहा हूँ कि तुम धर्म के विषय में शंका न करो; क्योंकि धर्म पर संदेह करने वाला मानव पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेता है। जो धर्म के विषय में संदेह रखता है, वह जरा-मृत्यु रहित परमधाम से उसी प्रकार वंचित रहता है, जैसे शूद्र वेदों के अध्ययन से। मनस्विनि! जो वेद का अध्ययन करने वाला, धर्म परायण और कुलीन हो, उस राजर्षि गणना धर्मात्मा पुरुषों को वृद्धों में करनी चाहिये।[2]

जो मन्द बुद्धि पुरुष शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन करके धर्म के विषय में आशंका करता है, वह शुद्रों और चोरों से भी बढ़कर पापी है। तुमने अमेयात्मा महातपस्वी मार्कण्डेय जी को अभी यहाँ से गये है, प्रत्यक्ष देखा है। व्यास, वसिष्ठ, मैत्रेय, नारद, लोमश, शुक, तथा अन्य सब महर्षि धर्म के पालन से ही शुद्ध हृदय वालु हुए हैं। तुम अपनी आँखों इन सबको देखती हो, ये दिव्य योगशक्ति से सम्पन्न, शाप और अनुग्रह में समर्थ तथा देवताओं से भी अधिक गौरवशाली हैं। अनघे ये अमरों के समान विख्यात तथा वेदगम्य विषय को भी प्रत्यक्ष देखने वाले महर्षि धर्म को ही सबसे प्रथम आचरण में लाने योग्य बताते हैं। अतः कल्याणमयी महारानी द्रौपदी! तुम्हें मूर्खता युक्त मन के द्वारा ईश्वर और धर्म पर आपेक्ष एवं आशंका नहीं करनी चाहिये। धर्म के विषय मे संशय रखने वाला बाल बुद्धि मानव जिन्हें धर्म के तत्त्व का निश्चय हो गया है, अतः दूसरे किसी से कोई शास्त्र-प्रमाण नहीं ग्रहण करता। केवल अपनी बुद्धि को ही प्रमाण मानने वाला उद्दण्ड मानव श्रेष्ठ पुरुषों एवं उत्तम धर्म की अवहेलना करता है; क्योंकि वह मूढ़ आसक्ति से सम्बन्ध रखने वाला इस लोक-प्रत्यक्ष हृदय जगत की ही सत्ता स्वीकार करता है। अप्रत्यक्ष वस्तु के विषयों में उसकी बुद्धि मोह में पड़ जाती है। जो धर्म के प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धि के लिये कोई प्रायश्चित नहीं है। वह धर्म विरोधी चिन्तन करने वाला दीन पापात्मा पुरुष उत्तम लोकों को नहीं पाता अर्थात अधोगति को प्राप्त होता है।[1]

युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को समझाना

जो धर्म के प्रति संदेह करता है, उसकी शुद्धि के लिये कोई प्रायश्चित नहीं है। वह धर्म विरोधी चिन्तन करने वाला दीन पापात्मा पुरुष उत्तम लोकों को नहीं पाता अर्थात अधोगति को प्राप्त होता है। जो मूर्ख प्रमाणों की ओर से मुँह मोड़ लेता है, वेद और शास्त्रों के सिद्धान्तों की निंदा करता है तथा काम एवं लोभ के अत्यन्त परायण है, वह नरक में पड़ता है। कल्याणी जो सदा धर्म के विषय में पूर्ण निश्चय रखने वाला है और सब प्रकार की आशंकाएँ छोड़कर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोकर में अक्षय अत्यन्त सुख का भागी होता है अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। कल्याणी! जो सदा धर्म के विषय में रखने वाला है और सब प्रकार की आशड़्कएँ छोडकर धर्म की ही शरण लेता है, वह परलोक में अक्षय अनन्त सुख का भागी होताहै अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जो मूढ़ मानव आर्ष-ग्रन्थों के प्रमाण की अवहेलना करके समस्त शास्त्रों के विपरीत आचरण करते हुए धर्म का पालन नहीं करता, वह जन्म-ज्न्मान्तरों में भी कभी कल्याण का भागी नहीं होता। भाविनि! जिसकी दृष्टि में ऋषियों के वचन और शिष्ट पुरुषों के आचार प्रमाण भूत नहीं हैं, उसके लिये न यह लोक है और न परलोक, यह सत्त्ववेत्ता महापुरुषों का निश्चय है। कृष्णे! सर्वज्ञ और सर्वद्रष्टा महर्षियों द्वारा प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा आचारित पुरातन धर्म पर शड़का नहीं करनी चाहिये।

युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी आक्षेप का समाधान

द्रुपद कुमारी! जैसे समुद्र के पार जाने की इच्छा वाले वणिक के लिये जहाज की आवश्यकता है, वैसे ही स्वर्ग में जानेवालों के लिये धर्माचरण ही जहाज है, दूसरा नहीं। साध्वी द्रौपदी! यदि धर्मपरायण पुरुषों द्वारा पालित धर्म निष्फल होता तो सम्पूर्ण जगत असीम अन्धकार में निमग्न हो जाता। यदि कोई धर्म निष्फल होता तो धर्मात्मा पुरुष मोक्ष नहीं पाते, कोई विद्या की प्राप्ति में नहीं लगते, कोई भी प्रजोजन-सिद्धि के लिये प्रयत्न नहीं करते और सभी पशुओं-सा जीवन व्यतीत करते। यदि तप, ब्रह्मचर्य, यज्ञ, स्वाध्याय, दान और सरलता आदि धर्म निष्फल होते तो पहले जो श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर पुरुष हुए हैं ये धर्म का आचरण नहीं करते। यदि धार्मिक क्रियाओं का कुछ फल नहीं होता, वे सब निरी ठगविद्या होतीं तो ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस प्रभावशाली होते हुए भी किसलिये आदरपूर्वक धर्म का आरण करते हैं। कृष्णे! यहाँ धर्म का फल देने वाले ईश्वर अवश्य हैं, यह बात जानकर ही उन ऋषि आदि कों धर्म का आचरण किया है। धर्म ही सनातन श्रेय है। धर्म निष्फल नहीं होता। अधर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहता। विद्या और तपस्या के भी फल देखे जाते हैं। कृष्णे! तुम अपने जन्म के प्रसिद्ध वृत्तान्त को ही स्मरण है, यह भी तुम जानती हो। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी! इतना ही दृष्टान्त देना पर्याप्त है; धीर पुरुष कर्मो का फल पाता है और थोडे़ से फल से भी संतुष्ट हो जाता है। परन्तु बुद्धिहीन अज्ञानी मनुष्य बहुत पाकर भी संतुष्ट नहीं होते। उन्हें परलोक में धर्मजनित थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता। ।[3]

भामिनि! वेदोक्त पुण्य देनेवाले सत्कर्मो और अनिष्टकारी पापकर्मों का फलोदय तथा उत्पत्ति और प्रलय-ये सब देवगुह्य हैं (देवता ही उन्हें मानते हैं)। इन देवगुह्य विषयों में साधारण लोग मोहित हो जाते हैं। जो इन सबको तात्विक रूप से नहीं जानता है, वह सहस्रों कल्पों में भी कल्याणका भागी नहीं हो सकता। इन सब विषयों को देवतालोग गुप्त रखते हैं। देवताओं की माया भी गूढ़ (दुर्बोध) है। जो आशा का परित्याग करके सात्त्विक हितकर एवं पवित्र आहार करने वाले हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दग्ध हो गये हैं तथा जो मानसिक प्रसन्नता से युक्त हैं वे द्विज ही इन देवगुह्य विषयों को देख पाते हैं। धर्म का फल तुरन्त दिखायी न दे तो इनके कारण धर्म एवं देवताओं पर आशंका नहीं करनी चाहिये। दोषदृष्टि न रखते हुए यत्नपूर्वक यज्ञ और दान करते रहना चाहिये।। कर्मो का फल यहाँ अवश्य प्राप्त होता है, यह धर्म शास्त्र विधान है। यह बात ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों से कही है, जिसे कश्यप ऋषि जानते हैं। इसलिये कृष्णे! सब कुछ सत्य है, ऐसा निश्चय करके तुम्हारा धर्मविषयक संदेह कुहरे की भाँति नष्ट हो जाना चाहिये। तुम अपने इस नास्तिकतापूर्ण विचार को त्याग दो।। और समस्त प्राणियों का भरण पोषण करने वाले ईश्वर पर आक्षेप बिल्कुल न करो। तुम शास्त्र और गुरुजनों के उपेदशानुसार ईश्वर को समझने की चेष्टा करो और उन्हीं को नमस्कार करो। आज जैसी तुम्हारी बुद्धि है, वैसी नहीं करनी। कृष्णे! जिनके कृपाप्रसाद से उनके प्रति भक्तिभाव रखनेवाला मरणधर्मा मनुष्य अमरत्व को प्राप्त हो जाता है, उन परमदेव परमेश्वर की तुमको किसी प्रकार अवहेलना नहीं करनी चाहिये।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-17
  2. वह आयु में छोटा हो तो भी उसका वृद्ध पुरुष के समान आदर करना चाहिये।
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 31 श्लोक 18-34
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 31 श्लोक 35-42

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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