- मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को धर्मोपदेश दिया जाता है, युधिष्ठिर, मार्कण्डेय जी की आज्ञा का पालन करते हैं और अब इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 192 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने मुनिवर मार्कण्डेय से कहा-'ब्रह्मन्! पुनः ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन कीजिये'।
मार्कण्डेय द्वारा राजा परीक्षित का वर्णन
तब मार्कण्डेय जी ने कहा-'राजन! ब्राह्मणों के इस अद्भुत चरित्र का श्रवण करो। 'अयोध्यापुरी में इक्ष्वाकुकुल में धुरंधर वीर राजा परीक्षित रहते थे। वे एक दिन शिकार खेलने के लिये गये। 'उन्होंने एकमात्र अश्व की सहायता से एक हिंसक पशु का पीछा किया। वह पशु उन्हें बहुत दूर हटा ले गया। 'मार्ग में उन्हें बड़ी थकावट हुई और वे भूख-प्यास से व्याकुल हो गये। उसी समय उन्हें एक ओर नीले रंग का एक दूसरा वन दिखायी दिया, जो और भी घना था। 'तत्पश्चात् राजा ने उसके भीतर प्रवेश किया। उस वनस्थली के मध्य भाग में एक अत्यन्त रमणीय सरोवर था। उसे देखकर राजा घोडे़ सहित सरोवर के जल में घुस गये। 'जल पीकर जब वे कुछ आश्वस्त हुए, तब घोड़े के आगे कुछ कमल की नालें डाल कर स्वयं उस सरोवर के तटपर लेट गये। लेटे-ही-लेटे उन के कानों में कहीं से मधुर गीत की ध्वनि सुनायी पड़ी। 'उसे सुनकर राजा सोचने लगे कि 'यहाँ मनुष्यों की गति तो नहीं दिखायी देती। फिर यह किसके गीत का शब्द सुनायी देता हैं'। 'इतने ही में उनकी दृष्टि एक कन्या पर पड़ी, जो अपने परम सुन्दर रूप के कारण देखने ही योग्य थी। वह वन के फूल चुनती हुई गीता गा रही थी। धीरे-धीरे भ्रमण करती हुई वह राजा के समीप आ गयी। 'तब राजा ने उससे पूछा-'कल्याणी! तुम कौन और किसकी हो ?' उसने उत्तर दिया- 'मैं कन्या हूं- अभी मेरा विवाह नहीं हुआ हैं।' तब राजा ने उस से कहा- 'भद्रे! मैं तुझे चाहता हूँ। 'कन्या बाली' तुम मुझे एक शर्त के साथ पा सकते हो अन्यथा नहीं।' राजान ने वह शर्त पूछी।
कन्या ने कहा- 'मुझे कभी जल का दर्शन न कराना'। 'तब राजा ने उससे 'बहुत अच्छा' कहकर उस से ( गान्धर्व ) विवाह किया। विवाह के पश्चात् राजा परीक्षित अत्यन्त आनन्दपूर्वक उसके साथ क्रीड़ा-विहार करने लगे और एकान्त में मिलकर उसके साथ चुपचाप बैठे रहे। 'राजा अभी वहीं बैठे थे, इतने ही में उनकी सेना आ पहुँची। 'वह सेना अपने बैठे हुए राजा को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयी। अच्छी तरह सुस्ता लेने के पश्चात् राजा एक साफ सुथरी चिकनी पालकी में उसी के साथ बैठकर अपने नगर को चल दिये और वहाँ पहुँचकर उस नवविवाहिता सुन्दरी के साथ एकान्तवास करने लगे। 'वहाँ निकट होते हुए कोई उनका दर्शन नहीं कर पाता था। तब एक दिन प्रधान मंत्री ने राजा के पास रहने वाली स्त्रियों से पूछा। यहाँ तुम्हारा क्या काम हैं ?' उनके ऐसा पूछने पर उन स्त्रियों ने कहा- 'हमें यहाँ एक अद्भूत-सी बात दिखायी देती है। महाराज के अन्तःपुर में पानी नहीं जाने पाता है।[2]उनकी यह बात सुनकर प्रधानमंत्री ने एक बाग लगवाया, जिस में प्रत्यक्षरूप से कोई जलाशय नहीं था। उस में बड़े सुन्दर और उंचे-उंचे वृक्ष लगवाये गये थे। वहाँ फल-फूल और कन्द-मूलकी भी बहुतायत थी। उस उपवन के मध्यभाग में एक किनारे की ओर सुधा के समान स्वच्छ जल से भरी हुई एक बावली भी बनवायी थी, जो मोतियों के जाल से निर्मित थी। उस बावली को[3]बाहर से ढक दिया गया था। उस उद्यान के तैयार हो जाने पर मंत् रीने किसी दिन राजा से मिलकर कहा- 'महाराज! यह वन बहुत सुन्दर हैं, आप इसमें भलीभाँति विहार करें'। 'मंत्री के कहने से राजा ने उसी नवविवाहिता रानी के साथ उस वन में प्रवेश किया। एक दिन महाराज परीक्षित उस रमणीय उद्यान में अपनी उसी प्रियतमा के साथ विहार कर रहे थे। विहार करते-करते जब वे थक गये और भूखप्यास से बहुत पीड़ित हो गये, तब उन्हें वासन्ती लता द्वारा निर्मित एक मनोहर मण्डप दिखायी दिया। 'उस मण्डप में प्रिया सहित प्रवेश करके राजा ने सुधा के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण वह बावली देखी।
राजा परीक्षित द्वारा मेंढकों की हत्या
'उसे देखकर वे अपनी रानी के साथ उसी के तट पर खड़े हुए। 'उस समय राजा ने उस रानी से कहा-'देवि! सावधानी के साथ इस बावली के जल में उतरो।' राजा की यह बात सुनकर उसने बावली में घुसकर गोता लगाया और फिर बाहर नहीं निकली। 'राजा ने उस वापी में रानी की बहुत खोज की, परंतु वह कहीं दिखायी न दी। तब उन्होंने बावली का सारा जल निकलवा दिया। इसके बाद एक बिलके मुंह पर कोई मेंढक दीख पड़ा। इस से राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने आज्ञा दे दी कि 'सर्वत्र मेंढकों का वध किया जाय। जो मुझ से मिलना चाहे, वह मरे हुए मेंढक का ही उपहार लेकर मेरे पास आवे'। 'इस आज्ञा के अनुसार चारों और मेंढकों का भयंकर संहार आरम्भ हो गया। इससे सब दिशाओं के मेंढकों के मन में भय समा गया। वे डरकर मण्डूकराज के पास गये और उन से सब वृतान्त ठीक-ठीक बता दिया। 'तब मण्डूकराज तपस्वी का वेष धारण करके राजा के पास गया और निकट पहुँचकर उस से इस प्रकार बोला-'राजन! आप क्रोध के वशीभूत न हों। हम पर कृपा करें। निरपराध मेंढकों का वध न करावें।' इस विषय में ये दो श्लोक भी प्रसिद्ध हैं- अच्युत! आप मेंढकों को मारने की इच्छा न करें। अपने क्रोध को रोकें; क्योंकि अविवेक से काम लेने वाले मनुष्यों के धन की वृद्धि नष्ट हो जाती हैं। 'प्रतिज्ञा करें कि इन मेंढकों को पाकर आप क्रोध नहीं करेंगे; यह अधर्म करने से आपको क्या लाभ है ? मण्डूकों की हत्या से आपको क्या मिलेगा ?' राजा का हंदय अपनी प्यारी रानी के विनाश के शोक से दग्ध हो रहा था। उन्होंने उपर्युक्त बातें कहने वाले मण्डूकराज से कहा- 'मैं क्षमा नहीं कर सकता। इन मेंढकों को अवश्य मारूंगा। इन दुरात्माओं ने मेरी प्रियतमा को खा लिया हैं। अतः ये मेंढक मेरे लिये सर्वथा वध्य ही हैं। विद्वन! आप मुझे उनके वध से न रोकें'। 'राजा की बात सुनकर मण्डूकराज का मन और इन्द्रियां व्यथित हो उठीं। वह बोला-'महाराज! प्रसन्न होइये। मेरा नाम आयु हैं। मैं मेंढकों का राजा हूँ। जिसे आप अपनी प्रियतमा कहते हैं, वह मेरी ही पुत्री हैं। उसका नाम सुशोभना हैं। वह आपको छोड़ कर चली गयी,यह उसकी दुष्टता हैं। उसने पहले भी बहुत से राजाओं को धोखा दिया हैं'।
परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
तब राजा ने मण्डूकराज से कहा- 'मैं तुम्हारी उस पुत्री को चाहता हूं, उसे मुझे समर्पित कर दो'। 'पिता मण्डूकराज ने अपनी पुत्री सुशोभना महाराज परीक्षित को समर्पित कर दी और उससे कहा-'बेटी! सदा राजा की सेवा करती रहना।' ऐसा कहकर मण्डूकराज ने जब अपनी पुत्री को अपराध को याद किया, तब उसे क्रोध हो आया और उसने उसे शाप देते हुए कहा- 'अरी! तून बहुत-से राजाओं को धोखा दिया हैं, इसलिये तेरी संतानें ब्राह्मण-विरोधी होंगी; क्योंकि तू बड़ी झूठी हैं'। 'सुशोभना के रतिकाल सम्बन्धी गुणों ने राजा के मन को बांध लिया था। वे उसे पाकर ऐस प्रसन्न हुए, मानो उन्हें तीनों लोकों का राज्य मिल गया हो। उन्होंने आनन्द के आंसू बहाते हुए मण्डूकराज को प्रणाम किया और उसका यथोचित सत्कार करते हुए हर्षगद्गद वाणी में कहा-'मण्डूकराज! तुमने मुझ पर बड़ी कृपा की हैं'। 'तत्पश्चात् कन्या से विदा लेकर मण्डूकराज जैसे आया था, वैसे ही अपने स्थान को चला गया। 'कुछ काल के पश्चात् सुशोभना के गर्भ से राजा परीक्षित के तीन पुत्र हुए-शल, दल और बल। इनमें शल सबसे बड़ा था। समय आने पर पिताने शल का राज्याभिषेक करके स्वयं तपस्या में मन लगाये तपोवन को प्रस्थान किया।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 192 श्लोक 1-20
- ↑ हम लोग इसी की चैकसी करती हैं।
- ↑ लताओं द्वारा
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 192 श्लोक 21-38
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| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
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| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
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| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
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| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
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| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
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| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
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| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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