महाभारत वनपर्व के अर्जुनाभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय बारह में अर्जुन तथा द्रौपदी द्वारा कृष्ण स्तुति का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन तथा द्रौपदी द्वारा कृष्ण स्तुति वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर धृतराष्ट्र पुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे, ‘हमें क्या करना चाहिये।' भगवान श्रीकृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिर को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।
श्रीकृष्ण ने कहा- राजाओं! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि और चौथे दुःशासन, इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।
अर्जुन-द्रौपदी द्वारा कृष्ण स्तुति
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुन्ती पुत्रों के अपमान से भगवान श्रीकृष्ण ऐसे कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजा को जलाकर भस़्म कर देंगे। उन्हें इस प्रकार क्रोध करते देख अर्जुन ने उन्हें शान्त किया और उन सत्य और उन सत्यकीर्ति महात्मा द्वारा पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का कीर्तन आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण अंर्तयामी, अप्रमेय, अमिततेजस्वी, प्रजापतियों के भी पति, सम्पूर्ण लोकों के रक्षक तथा परम बुद्धिमानी श्री विष्णु ही हैं (अर्जुन ने उनकी इस प्रकार स्तुति की)।
अर्जुन बोले- श्रीकृष्ण! पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर आपने यत्रसायंगृ[2] मुनि के रूप में दस हजार वर्षों तक विचरण किया है अर्थात नारायण ऋषि के रूप में निवास किया है। सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण! पूर्वकाल में कभी इस धरा-धाम में अवतीर्ण हो जाने पर आपने ग्यारह हजार वर्षों तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्करतीर्थ में निवास किया है। मधुसूदन! आज विशालपुरी के बदरिकाश्रम में दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायु का आहार करते हुए सौ वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे हैं। कृष्ण! आप सरस्वती नदी के तट पर उत्तरीय वस्त्र का त्याग करके द्वादश वार्षिक यज्ञ करते समय तक का त्याग करते समय शरीर से अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीर में फैली हुई नस- नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। गोविन्द! आप पुण्यात्मा पुरुषों के निवास योग्य प्रभासतीर्थ में जाकर लोगों को तप में प्रवृत्त करने के लिये शौचद-संतोषादि नियमों में स्थित हो महातेजस्वी स्परूप से एक सहस्र दिव्य वर्षों तक एक ही पैर से खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्री व्यासजी ने बतायी हैं। केशव! आप क्षेत्रज्ञ( सबके आत्मा ),सम्पूर्ण भूतों के आदि और अन्त, तपस्या के अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं।
आप भूमि पुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी।[1]
सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाने वाले लोकेश्वर प्रभु ने वह कर्म करके सामना करने के लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवों का युद्धस्थल में वध किया। महाबाहु केशव! तदनन्तर शचीपति को सर्वेश्वर पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्यों में प्रकट हुए हैं। परंतप! पुरुषोत्तम! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूप में प्रकट हुए, ब्रह्म, सोम, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं। मधुसूदन श्रीकृष्ण! आपने चैत्ररथ वन में अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय,देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं। जनार्दन! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञ के रूप में पृथक-पृथक एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में दीं।
यदुनन्दन! आप अदिति के पुत्र हो, इन्द्र के छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णु के नाम से विख्यात हैं। परंतप! श्रीकृष्ण! आपने वामन अवतार के समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेज से तीन डगों द्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक-तीनों को नाप लिया। भूतात्मन! आप ने सूर्य के रथ पर स्थित हो द्युलोक और आकाश में व्याप्त होकर अपने तेज से भगवान भास्कर को भी अत्यन्त प्रकाशित किया है। विभो! आपने सहस्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारों में सैकडों असुरों का, जो अधर्म में रुचि रखने वाले थे, वध किया है। आपने मुर दैत्य के लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुर को मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिष पुर का मार्ग सकुशल यात्रा करने योग्य बना दिया। भगवन! आपने जारूथी नगरी में आहुति, क्राथ साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वा को परास्त किया। इसी प्रकार मेघ के समान घर्घर शब्द करने वाले सूर्य-तुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा कुण्डिनपुर में जाकर आपने रुक्मी को युद्ध में जीता और भोजवंशी कन्या रुक्मिणी को अपनी पटरानी के रूप में प्राप्त किया। प्रभो! आपने क्रोध से इन्द्रद्युम्न को मारा और यवन जातीय कसेरुमान एवं सौभपति शाल्व को भी पहुँचा दिया। साथ ही शाल्व के सौभ विमान को भी छिन्न-भिन्न करके धरती पर गिरा दिया।
इस प्रकार इन पूर्वोक्त राजाओं को आपने युद्ध में मारा है। अब आपके द्वारा मारे हुए औरों के भी नाम सुनिये। इरावती के तट पर आपने कार्तवीर्य अर्जुन के सदृश पराक्रमी भोज को युद्ध में मार गिराया। गोपति और तालकेतु- ये दोनों भी आपके हाथों से मारे गये। जनार्दन! भोग सामग्रियों से सम्पन्न तथा ऋषिमुनियों की प्रिय अपने अधीन की हुई पुण्यमयी द्वारका नगरी को अन्त में समुद्र में विलीन कर देंगे। मधुसूदन! वास्तव में तो आप में तो न क्रोध है, न मात्सर्य है, न असत्य है, न निर्दयता ही है। दाशार्ह! फिर आप में कठोरता तो हो ही कैसे सकती है? अच्युत! महल के मध्य भाग में बैठे और अपने तेज से उद्भासित हुए आपके पास आकर सम्पूर्ण ऋषियों ने अभय की याचना की। परंतप मधुसूदन! प्रलयकाल में समस्त भूतों का संहार करके इस जगत को स्वयं ही अपने भीतर रखकर आप अकेले ही रहते हैं। वार्ष्णेय! सृष्टि के प्रारम्भ काल में आपके नाभिकमल से चराचर गुरु ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनका रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत है। [3]
जब ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से भगवान शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारद जी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये। तब भगवान जनार्दन ने कुन्ती कुमार से इस प्रकार कहा- ‘पार्थ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर- नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है।' ‘कुन्तीकुमार! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-18
- ↑ यत्रसायंगृह मुनि वे होते हैं,जो जहाँ सायंकाल हो जाता है, वहीं घर की तरह निवास करते हैं।
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 19-38
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 39-57
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| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
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| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
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| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
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| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
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| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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