- अर्जुन, निवातकवचों का वध कर देते है और अब अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों के वध के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'निवातकवच युद्ध पर्व' के अंतर्गत अध्याय 173 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
- 1 अर्जुन द्वारा हिरण्यपुर नगर का वर्णन
- 2 मातलि का संवाद
- 3 अर्जुन का हिरण्यपुर की ओर आगमन
- 4 दैत्यों द्वारा अर्जुन पर आक्रमण
- 5 अर्जुन द्वारा विद्या-बल का प्रयोग
- 6 अर्जुन द्वारा दानवों पर आक्रमण
- 7 अर्जुन को महादेव जी के दर्शन
- 8 अर्जुन द्वारा दानवों का संहार
- 9 दानव स्त्रियों का विलाप
- 10 अर्जुन का देवलोक की ओर प्रस्थान
- 11 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 12 संबंधित लेख
अर्जुन द्वारा हिरण्यपुर नगर का वर्णन
अर्जुन बोले-राजन! तत्पश्चात् लौटते समय मार्ग में मैं मैंने एक दूसरा दिव्य विशाल नगर देखा, जो अग्नि और सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपने निवासियो की इच्छा के अनुसार सर्वत्र आ जा सकता था। विचित्र रत्नमय वृक्ष और मधुर स्वर में बोलने वाले पक्षी उस नगर की शोभा बढ़ाते थे। पौलोम और कालकंच नामक दानव सदा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ निवास करते थे। उस नगर में उंचे-उंचे गोपुरों सहित सुन्दर अटटालिकाएं सुशोभित थीं। उसमें चारों दिशाओं में एक-एक करके चार फाटक लगे थे। शत्रुओं के लिये उस नगर में प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन था। सब प्रकार के रत्नों से निर्मित वह दिव्य नगर अद्भुत दिखायी देता था। फल और फूलो से भरे हुए सर्वरत्नमय वृक्ष उस नगर को सब ओर से घेरे हुए थे तथा वह नगर दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर पक्षियों से युक्त था। सदा प्रसन्न रहने वाले बहुत से असुर गले में सुन्दर माला धारण किये और हाथों में शूल, ऋष्टि, मुसल, धनुष तथा मुद्रर आदि अस्त्र-शस्त्र लिये सब ओर से घेरकर उस नगर की रक्षा करते थे। राजन! दैत्यों के उस अद्भुत दिखायी देने वाले नगर को देखकर मैंने मातलि से पूछा-'सारथे! यह कौनसा अद्भुत नगर है ?
मातलि का संवाद
मातलि ने कहा- पार्थ! दैत्यकुल की कन्या पुलोमा तथा महान असुरवंश की कन्या कालका-उन दोनो ने एक हजार दिव्य वर् षोंतक बड़ी भारी तपस्या की। तदनन्तर तपस्या पूर्ण होने पर भगवान ब्रह्मा जी ने उन दोनों को वर दिया। उन्होंने यही वर मांगा कि हमारे पुत्रों का दुःख दूर हो जाय'। राजेन्द्र! उन दोनों ने यह भी प्रार्थना की कि 'हमारे पुत्र देवता, राक्षस तथा नागों के लिये भी अवध्य हों। इनके रहने के लिये एक सुन्दर नगर होना चाहिये, जो अपने महान प्रभा-पुच से जगमगा रहा हो। वह नगर विमान की भाँति आकाश में विचरने वाला होना चाहिये, उसमें सब प्रकार के रत्नों का संचय रहना चाहिये, देवता, महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, नाग, असुर तथा राक्षस कोई भी उसका विध्वंस न कर सके। वह नगर समस्त मनोवांछित गुणों से सम्पन्न, शोक शून्य तथा रोग आदि से रहित होना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! ब्रह्माजी ने कालकेयो के लिये वैसे ही नगर का निर्माण किया था। यह वही आकाशचारी दिव्य नगर है, जो सर्वत्र विचरता है। इस में देवताओं का प्रवेश नहीं है। वीरवर! इसमें पौलोम और कालपकंच नामक दानव ही निवास करते हैं। यह विशाल नगर हिरण्यपुर के नाम से विख्यात है। कालकेय तथा पौलोम नामक महान असुर इसकी रक्षा करते हैं। राजन! ये वे ही दानव हैं, जो सम्पूर्ण देवताओं से अवध्य रहकर उद्वेग तथा उत्कण्ठा से रहित हो यहाँ प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने मनुष्य के हाथ से इनकी मृत्यु निश्चित की थी। कुन्तीकुमार! ये कालकंच और पौलोम अत्यन्त बलवान तथा दुर्धर्ष हैं। तुम युद्ध में वज्रास्त्रों के द्वारा इनका भी शीघ्र ही संहार कर डालो।
अर्जुन का हिरण्यपुर की ओर आगमन
अर्जुन बोले- राजन! उस हिरण्यपुर को देवताओं और असुरों के लिये अवध्य जानकर मैंने मातलि से प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'आप यथाशीघ्र इस नगर में अपना रथ ले चलिये। 'जिससे देवराज के द्रोहियों को मैं अपने अस्त्रों द्वारा नष्ट कर डालूं ? जो देवताओं से द्वेष रखते हैं, उन पापियों को मैं किसी प्रकार मारे बिना नहीं छोड़ सकता'। मेरे ऐसा कहने पर मातलि ने घोड़ो से युक्त उस दिव्य रथ के द्वारा मुझे शीघ्र ही हिरण्यपुर के निकट पहुँचा दिया।
दैत्यों द्वारा अर्जुन पर आक्रमण
मुझे देखते ही विचित्र वस्त्राभूषणों से विभूषित वे दैत्य कवच पहनकर अपने रथों पर जा बैठे और बड़े वेग से मेरे उपर टूट पड़े। तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए उन प्रचण्ड पराक्रमी दानवेन्द्रों ने नालीक, नाराच, भल्ल, शक्ति, ऋष्टि तथा तोमर आदि अस्त्रों द्वारा मुझे मारना आरम्भ किया।
अर्जुन द्वारा विद्या-बल का प्रयोग
राजन! उस समय मैंने विद्या-बल का आश्रय लेकर महती बाण-वर्षा के द्वारा उनके अस्त्र-शस्त्रों की भारी बौछार को रोका और युद्ध-भूमि में रथ के विभिन्न पैंतरें बदलकर विचरते हुए उन सबको मोह में डाल दिया। वे ऐसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे आपस में ही लड़कर एक-दूसरे दानवों को धराशायी करने लगे। इस प्रकार मूढचित हो आपस में ही एक-दूसरे पर धावा करने वाले उन दानवों के सौ-सौ मस्तकों को मैं अपने प्रज्वलित बाणों द्वारा काट-काटकर गिराने लगा। वे दैत्य जब इस प्रकार मारे जाने लगे, तब पुनः अपने उस नगर में ही घुस गये और दानवी माया का सहारा ले नगर सहित आकाश में उंचे उड़ गये। कुरुनन्दन! तब मैंने बाणों की भारी बौछार करके दैत्यों का मार्ग रोक लिया और उनकी गति कुण्ठित कर दी। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला दैत्यों का वह आकाशचारी दिव्य नगर उनकी इच्छा के अनुसार चलने-वाला था और दैत्य लोग वरदान के प्रभाव से उसे सुखपूर्वक आकाश में धारण करते थे। वह दिव्यपुर कभी पृथ्वी पर अथवा पाताल में चला जाता, कभी उपर उड़ जाता, कभी तिरछी दिशाओं में चलता ओर कभी शीघ्र ही जल में डूब जाता था। परंतप! इच्छानुसार विचरने वाला वह विशाल नगर अमरावती के ही तुल्य था; परंतु मैंने नाना प्रकार के अस्त्रों द्वारा उसे सब ओर से रोक लिया।
अर्जुन द्वारा दानवों पर आक्रमण
नरश्रेष्ठ! फिर दिव्यास्त्रों से अभिमंत्रित बाण समूहों की वृष्टि करते हुए मैंने दैत्यों सहित उस नगर को क्षत-विक्षत करना आरम्भ किया। राजन! मेरे चलाये हुए लोह निर्मित बाण सीधे लक्ष्य तक पहुँचने वाले थे। उनसे क्षतिग्रस्त हुआ वह दैत्य-नगर तहस-नहस होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! लोहे के बने हुए मेरे बाणों का वेग वज्र के समान था। उन की मार खाकर वे काल प्रेरित असुर चारों ओर चक्कर काटने लगते थे। तदनन्तर मातलि आकाश में उंचे चढ़कर सूर्य के समान तेजस्वी रथ द्वारा उन राक्षसों के सामने गिरते हुए से शीघ्र ही पृथ्वी पर उतारे। भरतनन्दन! उस समय युद्ध की इच्छा से अमर्ष में भरे हुए उन दानवों के साठ हजार रथ मेरे साथ लड़ने के लिये डट गये। यह देख मैंने गृहपंग से सुशोभित तीखे बाणों द्वारा उन सबको घायल करना आरम्भ किया। परंतु वे दानव युद्ध के लिये इस प्रकार मेरी ओर चढ़े आ रहे थे, मानो समुद्र की लहरें उठ रही थी। तब मैंने यह सोचकर कि मानवोचित युद्ध के द्वारा इन पर विजय नहीं पायी जा सकती, क्रमशः दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया। परंतु विचित्र युद्ध करने वाले वे सहस्रों रथारूढ़ दानव धीरे-धीरे मेरे दिव्यास्त्रों का भी निवारण करने लगे। वे महान बलवान तो थे ही, रथ के विचित्र पैंतरे बदलकर रण-भूमि में विचर रहे थे। उस युद्ध के मैंदान में उनके सौ-सौ और हजार-हजार के झुंड़ दिखायी देते थे।
अर्जुन को महादेव जी के दर्शन
उनके मस्तकों पर विचित्र मुकूट और पगड़ी देखी जाती थीं। उनके कवच ओर ध्वज भी विचित्र ही थे। वे अद्भुत आभूषण से विभूषित हो मेरे लिये मनोरंजन की सी वस्तु बन गये थे। उस युद्धमें दिव्यास्त्रोंद्वारा अभिमंत्रित बाणोंकी वर्षा करके भी मैं उन्हें पीड़ित न कर सका; परंतु वे मुझे बहुत पीड़ा देने लगे। वे अस्त्रोंके ज्ञाता तथा युद्धकुशल थे, उनकी संख्या भी बहुत थी। उस महान संग्राममें उन दानवों से पीड़ित होनेपर मेरे मनमें महान् भय समा गया। तब मैंने एकाग्रचित्त हो मस्तक झुकाकर देवाधिदवे महात्मा रुद्र को प्रणाम किया और समस्त भूतोंका कल्याण हो' ऐसा कहकर उनके महान् पाशुपतास्त्र का प्रयोग किया। इसी को 'रौद्रास्त्र' भी कहते हैं। वह समस्त शत्रुओंका विनाश करने वाला है। वह महान् एवं दिव्य पाशुपतास्त्र सम्पूर्ण विश्वके लिये वन्दनीय है। उसका प्रयोग करते ही मुझे एक दिव्य पुरुष का दर्शन हुआ, जिनके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नत्र तथा छः भुजाएं थीं। उनका स्वरूप बड़ा तेजस्वी था। उनके मस्तक के बाल सूर्य के समान।[2]शत्रुदमन नरेश! लपलपाती जीभ वाले बड़े-बड़े नाग उन दिव्य पुरुष के लिये चीन ( वस्त्र ) बने हुए थे। भक्तों पर अनुग्रह करने वाले उन महादेव जी ने सर्पों का ही यज्ञोपवित धारण कर रखा था। उनके दर्शन से मेरा सारा भय जाता रहा। भरतश्रेष्ठ! फिर तो मैंने उस भयंकर एवं सनातन पाशुपतास्त्रों को गाण्डीव धनुष पर संयोजि करके अमित तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान शंकर को नमस्कार किया और उन दानवेन्द्रो के विनाश के लिये उनपर चला दिया। उस अस्त् रके छूटते ही उससे सहस्रों रूप प्रकट हो गये। महाराज! मृग, सिंह, व्याघ्र, रीछ, भैंस, नाग, गौ, शरभ, हाथी, वानर, बैल, सूअर, बिलाव, भेडिये, प्रेत, भूरुण्ड, गिद्ध, गरुड़ चमरी गाय, देवता, ऋर्षि, गन्धर्व, पिशाच, यक्ष, देवद्रो ही राक्षस, गुह्यक, निशाचर, मत्स्य, गजमुख, उल्लू, मीन तथा अश्व जैसे रूप वाले नाना प्रकारके जीवो का प्रादुर्भाव हुआ।
अर्जुन द्वारा दानवों का संहार
उन सब के हाथ में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र एवं खड्ग थे। इसी प्रकार गदा और मुद्रर धारण किये बहुत से यातुधान भी प्रकट हुए। इन सबके साथ दूसरे भी बहुत से जीवों का प्राकट्य हुआ, जिन्होंने नाना प्रकार के रूपधारण कर रखे थे। पाशुपतास्त्र प्रयोग होते ही कोई तीन मस्तक, कोई चार दाड़े, कोई चार मुख ओर कोई चार भुजावाले अनेक रूपधारी प्राणी प्रकट हुए, जो मांस, मेदा, वसा और हडिडयों संयुक्त थे। उन सबके द्वारा गहरी मार पड़ने से वे सारे दानव नष्ट हो गये। भारत! उस समय सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी तथा वज्र और अशनि के समान प्रकाशित होने वाले शत्रुविनाशक लोहमय बाणों द्वारा भी मैंने दो ही घड़ी में सम्पूर्ण दानवों का संहार कर डाला। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए अस्त्रों द्वारा क्षत-विक्षत हो समस्त दानव प्राण त्यागकर आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े हैं। यह देखकर मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान शंकर को प्रणाम किया। दिव्य आभूषणों से विभूषित दानव पाशुपतास्त्र से पिस गये हैं, यह देखकर देवसारथि मातलिको बड़ हर्ष हुआ। जो कार्य देवताओंके लिये भी दुष्कर और असहय था, वह मेरे द्वारा पूरा हुआ देख इन्द्रसारथि मातलिने मेरा बड़ा सम्मान किया। और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर कहा- 'अर्जुन! आज तुमने वह कार्य कर दिखाया है, जो देवताओं असुरों के लिये भी असाध्य था। 'साक्षात देवराज इन्द्र भी युद्धमें यह सब कार्य करनेकी शक्ति नहीं रखते हैं।
हिरण्यपुर का विनाश करने वाले वीरवर धनंजय! निश्चय ही देवराज इन्द्र आज तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न होंगे। वीर! तुमने अपने पराक्रम और तपस्या के बल से इस आकाशचारी विशाल नगर को तहस-नहस कर डाला; जिसे सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकते थे।
दानव स्त्रियों का विलाप
उस आकाशवर्ती नगर को विध्वंस और दानवों का संहार हो जाने पर वहाँ की सारी स्त्रियां विलाप करती हुई नगर से बाहर निकल आयी। उनके केश बिखरे हुए थे। वे दुःख और व्यथा में डूबी हुई कुररी की भाँति करूण-क्रन्दन करती थी। अपने पुत्र, पिता और भाइयों के लिये शोक करती हुई वे सब-की-सब पृथ्वी पर गिर पड़ी। जिनके पति मारे गये थे, वे अनाथ अबलाएं दीनतापूर्ण कण्ठ से रोती-चिलाती हुई छाती पीट रहीं थी। उनके हार और आभूषण इधर-उधर गिर पड़े थे। दानवों का वह नगर शोकमग्न हो अपनी सारी शोभा खो चुका था। वहाँ दुःख और दीनता व्याप्त हो रही थी। अपने प्रभुओं के मारे जाने से वह दानवन गर निष्प्रभ और अशोभनीय हो गया था। गन्धर्वनगर की भाँति उसका अस्त्वि अयथार्थ जान पड़ता था। जिसका हाथी मर गया हो, उस सरोवर और जहाँ के वृक्ष सूख गये हो, उस वन के समान वह नगर अदर्शनीय हो गया था।[3]
अर्जुन का देवलोक की ओर प्रस्थान
मेरे मन में तो हर्ष ओर उत्साह भरा हुआ था। मैंने देवताओं का कार्य पूरा कर दिया था। अतः मातलि उस रण-भूमि से मुझे शीघ्र ही देवराज इन्द्र के भवन में ले आये। इस प्रकार मैं [4]दानवों को मारकर तथा उजड़े हुए हिरण्यपुर को उसी अवस्था में छोड़कर वहाँ से इन्द्र के पास आया।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 1-20
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 21-42
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 43-65
- ↑ निवातकवच नामक महादानवों को तथा पौलोम और कालिकेयों
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 173 श्लोक 66-75
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| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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