- महाभारत वनपर्व के 'इंद्रलोकाभिगमनपर्व' के अंतर्गत अध्याय 51 में संजय द्वारा धृतराष्ट्र के समक्ष श्रीकृष्ण द्वारा दुर्योधन वध की प्रतिज्ञा का वृत्तांत कहा गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं- पुरुषरत्न जनमेजय! पाण्डवों का वह अद्भुत एवं अलौकिक चरित्र सुनकर अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र का मन चिन्ता और शोक में डूब गया। वे अत्यन्त खिन्न हो उठे और लंबी एवं गरम सांसें खींचकर अपने सारथि संजय को निकट बुलाकर बोले- ‘सूत! मैं बीते हुए द्यूतजनित घोर अन्याय का स्मरण करके दिन तथा रात में क्षणभर भी शांति नहीं पाता। ‘मैं देखता हूं, पाण्डवों के पराक्रम असह्य हैं। उनमें शौर्य, धैर्य तथा उत्तम धारणशक्ति है। उन सब भाइयों में परस्पर अलौकिक प्रेम है। ‘देवपुत्र आयुध दृढ़ हैं। वे दूरतक निशाना मारते हैं। युद्ध के लिये उनका भी दृढ़ निश्चय है। वे दोनों ही बड़ी शीघ्रता से हस्तसंचालन करते हैं। उनका क्रोध भी अत्यन्त दृढ़ है। वे सदा उद्योगशील और बड़े वेगवान हैं।
‘जिस समय भीमसेन और अर्जुन को आगे रखकर वे दोनों सिंह समान पराक्रमी और अश्विनीकुमारों के समान दुःसह वीर युद्ध के मुहाने पर खड़े होंगे, उसी समय मुझे अपनी सेना को कोई वीर शेष रहता नहीं दिखायी देता है। संजय! देवपुत्र महारथी नकुल-सहदेव युद्ध में अनुपम है। कोई भी रथी उनका सामना नहीं कर सकता। ‘अमर्ष में भरे हुए माद्रीकुमार द्रौपदी को दिये गये उस कष्ट को कभी क्षमा नहीं करेंगे। महान धनुर्धर वृष्णिवंशी, महातेजस्वी पांचाल योद्धा और युद्ध में सत्यप्रतिज्ञ वासुदेव श्रीकृष्ण से सुरक्षित कुन्तीपुत्र निश्चय ही मेरे पुत्रों की सेना को भस्म कर डालेंगे। ‘सूतनन्दन! बलराम और श्रीकृष्ण से प्रेरित वृष्णिवंशी योद्धाओं के वेग को युद्ध में समस्त कौरव मिलकर भी नहीं सह सकते। ‘उनके बीच में जब भयानक पराक्रमी महान धनुर्धर भीमसेन बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाली आकाश में ऊपर उठी हुई गदा लिये विचरेंगे तब उन भीम की गदा के वेग को तथा वज्रगर्जन के समान गाण्डीव धनुष की टंकार को भी कोई नरेश नहीं सह सकता। ‘उस समय मैं दुर्योधन के वश में होने के कारण अपने हितैषी सुहृदों की उन याद रखने योग्य बातों को याद करूंगा, जिनका पालन मैंने पहले नहीं किया।
संजय ने कहा- राजन! आपके द्वारा यह बहुत बड़ा अन्याय हुआ है, जिसकी आपने जान-बूझकर उपेक्षा की है। (उसे रोकने की चेष्टा नहीं की है ) ; वह यह है कि आपने समर्थ होते हुए भी मोहवश अपने पुत्र को कभी रोका नहीं। भगवान मधुसूदन ने ज्यों ही सुना कि पाण्डव द्यूत में पराजित हो गये, त्यों ही वे काम्यकवन में पहुँचकर कुन्तीपुत्रों से मिले और उन्हें आश्वासन दिया। इसी प्रकार द्रुपद के धृष्टघुम्न आदि पुत्र, विराट, धृष्टकेतु और महारथी कैकय- इन सबने पाण्डवों से भेट की। राजन! पाण्डवों को जूए में पराजित देखकर उन सबने जो बातें कहीं, उन्हें गुप्तचरों द्वारा जानकर मैंने आपकी सेवा में निवेदन कर दिया था। पाण्डवों ने मिलकर मधुसूदन श्रीकृष्ण को युद्ध में अर्जुन का सारथि होने के लिये वरण किया और श्रीहरि ने ‘तथास्तु’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। भगवान श्रीकृष्ण भी कुन्तीपुत्रों को उस अवस्था में काला मृगचर्म ओढ़कर आये हुए देख उस समय अमर्ष में भर गये और युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।
‘इन्द्रप्रस्थ में कुन्तीकुमारों के पास जो समृद्धि भी तथा राजसूय-यज्ञ के समय जिसे मैंने अपनी आंखों देखा था, वह अन्य नरेशों के लिये अत्यन्त दुर्लभ थी। ‘उस समय सब भूमिपाल पाण्डवों के शस्त्रों के तेज से भयभीत थे। अंग, वंग, पुण्ड, उड्र, चोल, द्राविड़, आन्ध्र, सागरतटवर्ती द्वीप तथा समुद्र के समीप निवास करने वाले जो राजा थे, वे सभी राजसूय-यज्ञ में उपस्थित थे। सिंहल, बर्बर, म्लेच्छ, लंकानिवासी, पश्चिम के राष्ट्र, सागर के निकटवर्ती सैकड़ों प्रदेश, दरद, समस्त किरात, यवन, शक, हार हुण, चीन, तुषार, सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड, स्त्रीराज, केकय, मालव, तथा काश्मीरदेश के नरेश भी राजसूय यज्ञ में बुलाये गये थे और मैंने उन सबको आपके यज्ञ में रसोई परोसते देखा था। सब और फैली हुई आपकी उन चंचल समृद्धि को जिन लोगों ने छल से छीन लिया है, उसके प्राण लेकर भी मैं इसे पुनः वापस लाऊंगा। ‘कुरूनन्दन! भरतकुलतिलक! बलराम, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, अक्रूर, गद, साम्ब, प्रद्युम्न, आहुक, वीर धृष्टघुम्न और शिशुपाल पुत्र धृष्टकेतु के साथ आक्रमण करते युद्ध में दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन एवं शकुनि तथा और जो कोई योद्धा सामना करने आयेगा, उसे भी शीघ्र ही मारकर मैं आपकी सम्पत्ति लौटा आऊंगा। तदनन्तर आप भाइयों सहित हस्तिनापुर में निवास करते हुए धृतराष्ट्र की राजलक्ष्मी को पाकर इस सारी पृथ्वी का शासन कीजिये’। तब राजा युधिष्ठिर ने उस वीर समुदाय में इन धृष्टघुम्न आदि शूरवीर के सुनते हुए श्रीकृष्ण ने कहा। युधिष्ठिर बोले- जनार्दन! मैं आपकी सत्य वाणी शिरोधार्य करता हूँ। महाबाहों! केशव! तेरहवें वर्ष के बाद आप मेरे सम्पूर्ण शत्रुओं को उनके बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट कीजियेगा। ऐसा करके आप मेरे सत्य [2] की रक्षा कीजिये। मैंने राजाओं की मण्डली में वनवास की प्रतिज्ञा की है। धर्मराज की यह बात सुनकर धृष्टघुम्न आदि सभासदों ने समयोचित मधुर वचनों द्वारा अमर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण को शीघ्र ही शांत कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने क्लेशरहित हुई द्रौपदी से भगवान श्रीकृष्ण के सुनते हुए कहा- ‘देवि! दुर्योधन तुम्हारे क्रोध से निश्चय ही प्राण त्याग देगा। ‘वरवर्णिनि! हम सब सच्ची प्रतिज्ञा करते हैं, तुम शोक न करो। कृष्णे! उस समय तुम्हें जूए में जीती हुई देखकर जिन लोगों ने हंसी उड़ायी हैं, उनके मांस भेडि़ये और गीध खायंगे और नोच-नोचकर ले जायंगे। ‘इसी प्रकार जिन्होंने तुम्हें सभाभवन में घसीटा है, उनके कटे हुए सिरों को घसीटते हुए गीध और गीदड़ उनके रक्त पीयेंगे। ‘पांचालराजकुमारि! तुम देखोगी कि उन दृष्टों के शरीर इस पृथ्वी पर मासाहारी गीदड़-गीध आदि पशु-पक्षियों द्वारा बार-बारी घसीटे और खाये जा रहे हैं। ‘जिन लोगों ने तुम्हें सभा में क्लेश पहुँचाया और जिन्होंने चुपचाप रहकर उस अन्याय की उपेक्षा की है, उन सबके कटे हुए मस्तकों का रक्त वह पृथ्वी पीयेगी’। भरतकुलतिलक! इस प्रकार उन वीरों ने अनेक प्रकार की बातें कही थीं। वे सब के सब तेजस्वी और शूरवीर हैं। उनके शुभ लक्षण अमिट हैं। धर्मराज ने तेरहवें वर्ष के बाद युद्ध करने के लिये उनका वरण किया है। वे महारथी वीर भगवान श्रीकृष्ण को आगे रखकर आक्रमण करेंगे।[3]
बलराम, श्रीकृष्ण, अर्जुन, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, भीमसेन, नकुल-सहदेव, केकयराजकुमार, दु्रपद और उनके पुत्र तथा मत्स्यनरेश विराट-ये सब-के-सब विश्व विख्यात अजेय वीर हैं। ये महामना जब अपने संगे सम्बन्धियों और सेना के साथ धावा करेंगे, उस समय क्रोध में भरे हुए केसरी सिंहों के समान उन महावीरों का समर में जीवन की इच्छा रखनेवाला कौन पुरुष सामना करेगा ?
धृतराष्ट्र बोले- संजय! जब जूआ खेला जा रहा था, उस समय विदुर ने मुझसे जो बात कही थी कि नरेन्द्र! यदि आप पाण्डवों को जूए में जीतेंगे तो निश्चय ही यह कौरवों के लिये खून की धारा से भरा हुआ अत्यन्त भयंकर, विनाश-काल होगा। सूत! विदुर ने पहले जो बात कही थी, वह अवश्य ही उसी प्रकार होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। वनवास का समय व्यतीत होने पर पाण्डवों के कथनानुसार यह घोर युद्ध होकर ही रहेगा, इसमें संशय नहीं।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-20
- ↑ वनवास के लिये की गयी प्रतिज्ञा
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-42
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 51 श्लोक 43-46
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| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
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| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
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| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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