ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा

पाण्डुपुत्रों द्वारा मार्कण्डेय जी से अनुरोध करने पर मार्कण्डेय द्वारा तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों के माहात्म्य के बारे में बताते हैं और अब ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 185 में बताया गया है[1]-

मार्कण्डेय जी द्वारा ब्राह्मणों का माहात्म्य सुनाना

मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मणों और भी माहात्म्य मुझ से सुनो। पूर्वकाल में अनेक पुत्र राजर्षि पृथु ने, जो यहाँ वैन्य के नाम से प्रसिद्ध थे, किसी समय अश्वमेघ यज्ञ की दीक्षा ली। उन दिनों महात्मा अत्रि ने धन मांगने की इच्छा से उनके पास जाने का विचार किया, यह बात हमारे सुनने में आयी है; परंतु ऐसा करने से उनको अपना धर्मात्मापन प्रकट करना पड़ता। इसलिये फिर उन्होंने धन के लिये अनुरोध नहीं किया।

अत्रि द्वारा वन में रहने का निश्चय

महातेजस्वी अत्रि ने मन-ही-मन कुछ सोच विचार कर[2]वन में ही जाने का निश्चय किया और अपनी धर्मपत्नी तथा पुत्रों को बुलाकर इस प्रकार कहा। 'हम लोग वन में रहकर[3]धर्म का बहुत अधिक उपद्रवशून्य फल पा सकती हैं। अतः शीघ्र वन में चलने का विचार तुम सब लोगों को रुचिकर होना चाहिये; क्योंकि ग्राम्य-जीवन की अपेक्षा वन में रहना अधिक लाभप्रद है'। अत्रि की पत्नी भी धर्म का ही अनुसरण करने वाली थी। उसने यज्ञ-यागादि के रूप में धर्म के ही विस्तार पर दृष्टि रखकर पति को उत्तर दिया-'प्राणनाथा! आप धर्मात्मा राजा वैन्य के पास जाकर अधिक धन की याचना कीजिये। 'वे राजर्षि इन दिनों यज्ञ कर रहे हैं, अतः इस अवसर पर यदि आप उनसे मांगेंगे तो वे आप को अधिक धन देंगे। ब्रह्मर्षे! वहाँ से प्रचुर धन लाकर भरण-पोषण करने योग्य इन पुत्रों को बांट दीजिये; फिर इच्छानुसार वन को चलिये। धर्मज्ञ महात्माओं ने यही परम धर्म बताया है'।

अत्रि का संवाद

अत्रि बोले- महाभागे! महात्मा गौतम ने मुझ से कहा है कि 'वेनपुत्र राजा पृथु धर्म और अर्थ को साधन में संलग्न रहते हैं। वे सत्यव्रती हैं'। परंतु एक बात विचारणीय है। वहाँ उनके यज्ञ में जितने ब्राह्मण रहते हैं, वे सभी मुझ से द्वेष रखते हैं, यही बात गौतम ने भी कही हैं। इसीलिये मैं वहाँ जाने का विचार नहीं कर रहा हूँ। यदि मैं वहाँ जाकर धर्म, अर्थ और काम से युक्त कल्याणमयी वाणी भी बोलूंगा तो वे उसे धर्म और अर्थ के विपरीत ही बतायेंगे; निरर्थक सिद्ध करेंगे। तथापि महाप्राज्ञे! मैं वहाँ अवश्य जाऊंगा, मुझे तुम्हारी बात ठीक जंचती है। राजा पृथु मुझे बहुत-सी गौएं तो देंगे ही, पर्याप्त धन भी देंगे। ऐसा कहकर महातपस्वी अत्रि शीघ्र ही राजा पृथु के यज्ञ में गये। यज्ञमण्डप में पहुँचकर उन्होंने उस राजा का मांगलिक वचनों द्वारा स्तवन किया और उनका समादर करते हुए इस प्रकार कहा।

अत्रिमुनि द्वारा राजा पृथु की प्रशंसा

अत्रि बोले-राजन! तुम इस भूतल के सर्वप्रथम राजा हो; अतः धन्य हो, सब प्रकार के ऐश्वर्य से सम्पन्न हो। महर्षिगण तुम्हारी स्तुति करते हैं। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नरेश धर्म का ज्ञाता नहीं है।

गौतम मुनि और अत्रि में वाद-विवाद

उनकी यह बात सुनकर महातपस्वी गौतम मुनि ने कुपित होकर कहा। गौतम बोले- अत्रे! फिर कभी ऐसी बात मुंह से न निकालना। तुम्हारी बुद्धि एकाग्र नहीं है। यहाँ हमारे प्रथम प्रजापति के रूप में साक्षात इन्द्र उपस्थित हैं। राजेन्द्र! तब अत्रि ने भी गौतम को उत्तर देते हुए कहा- 'मुने! ये पृथु ही विधाता हैं, ये ही प्रजापति इन्द्र के समान हैं। तुम्हीं मोह से मोहित हो रहे हो; तुम्हें उत्तम बुद्धि नहीं प्राप्त है'। गौतम बोले- मैं नहीं मोह में पड़ा हूं, तुम्हीं यहाँ आकर मोहित हो रहे हो। मै। खूब समझता हूं, तुम राजा से मिलाने की इच्छा लेकर ही भरी सभा में स्वार्थवश उनकी स्तुति कर रहे हो। उत्तम धर्म का तुम्हें बिल्कुल ज्ञान नहीं हो। तुम धर्म की प्रयोजन भी नहीं समझते हो। मेरी दृष्टि में तुम मूढ़ हो, बालक हो; किसी विशेष कारण से बूढ़े बने हुए हो अर्थात केवल अवस्था से बूढ़े हो। मुनियों के सामने खड़े होकर जब वे दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थें, उस समय उन्हें देखकर जिनका यज्ञ में पहले से वरण हो चुका था, वे ब्राह्मण पूछने लगे-'ये दोनों कैसे लड़ रहे हैं ?

'किसने इन दोनों को महाराज पृथु के यज्ञमण्डप में घुसने दिया है? ये दोनों जोर-जोर से बातें करते और झगड़ते यहाँ किस काम से खड़े हैं? उस समय परम धर्मात्मा एवं सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता कणाद ने सब सदस्यों को बताया कि और उसी के निर्णय के लिये यहाँ आये हैं'। तब गौतम ने सदस्यरूप से बैठे हुए उन श्रेष्ठ मुनियों से कहा- 'श्रेष्ठ ब्राह्मणो! हम दोनों के प्रश्न को आप लोग सुनें। अत्रि ने राजा पृथु को विधाता कहा है। इस बात कों लेकर हम दोनों में महान संशय एवं विवाद उपस्थित हो गया है।' यह सुनकर वे महात्मा मुनि उक्त संशय का निवारण करने के लिये तुरंत ही धर्मज्ञ सनत्कुमार जी के पास दौड़े गये। उन महातपस्वी ने इनकी सब बातें यथार्थरूप से सुनकर उनसे यह धर्म एवं अर्थयुक्त वचन कहा।

सनत्कुमार द्वारा वाद-विवाद का निवारण

सनत्कुमार बोले- ब्राह्मण क्षत्रिय से और क्षत्रिय ब्राह्मण से संयुक्त हो जायं तो वे दोनों मिलकर शत्रुओं को उसी प्रकार दग्ध कर ड़ालते हैं, जैसे अग्नि और वायु परस्पर सहयोगी होकर कितने ही वनों को भस्म कर ड़ालते हैं। राजा धर्मरूपी से विख्यात है। वही प्रजापति, इन्द्र, शुक्राचार्य, धाता और बृहस्पति भी है। जिस राजा की प्रजापति, विराट, सम्राट, क्षत्रिय, भूपति, नृप आदि शब्दों द्वारा स्तुति की जाती है, उसकी पूजा कौन नहीं करेगा? पुरायोनि[4], युधाजित्[5], अभिया[6], मुदित[7], भव[8], स्वर्णेता[9], सहजित्[10]तथा बभु्र[11] -इन नामों द्वारा राजा का वर्णन किया जाता है। राजा सत्य का कारण, प्राचीन बातों को जानने वाला तथा सत्य धर्म में प्रवृति कराने वाला है। अधर्म से डरे हुए ऋषियों ने अपना ब्राह्माबल भी क्षत्रियों में स्थापित कर दिया था। जैसे देवलोक मे सूर्य अपने तेज से सम्पूर्ण अन्धकार का नाश करता हैं, उसी प्रकार राजा इस पृथ्वी पर रहकर अधर्मों को सर्वथा हटा देता हैं।

राजा पृथु द्वारा अत्रि मुनि को भेंट देना

अतः शास्त्र- प्रमाण पर दृष्टिपात करने से राजा की प्रधानता सूचित होती है। इसलिये जिसने राजा को प्रजापति बतलाया हैं, उसीका पक्ष उत्कृष्ट सिद्ध होता है। मार्कण्डेय जी कहते हैं- तदनन्तर एक पक्ष की उत्कृष्टता सिद्ध हो जाने पर महामना राजा पृथु बड़े प्रसन्न हुए और जिन्होंने उनकी पहले स्तुति की थी, उन अत्रि मुनि से इस प्रकार बोले- 'ब्रह्मर्षे! आपने यहाँ मुझे मनुष्यों में प्रथम ( भूपाल, ) श्रेष्ठ, ज्येष्ठ तथा सम्पूर्ण देवताओं के समान बताया हैं, इसलिये मैं आपको प्रचुर मात्रा में नाना प्रकार के रत्न और धन दूंगा, सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित, सहस्रों युवती दासियां अर्पित करूंगा तथा दस करोड़ स्वर्ण मुद्रा और दस भार सोना भी दूंगा। विप्रर्षे! ये सब वस्तुएं आपको अभी दे रहा हूं, मैं समझता हूं, आप सर्वज्ञ हैं'। तब महान तपस्वी और तेजस्वी अत्रि मुनि राजा से समाहत हो न्यायपूर्वक मिले हुए उस सम्पूर्ण धन को लेकर अपने घर को चले गये। फिर मन पर संयम रखने वाले वे महामुनि पुत्रों को प्रसन्नतापूर्वक वह सारा धन बांटकर तपस्या का शुभ संकल्प मन में लेकर वन में ही चले गये।[12]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 185 श्लोक 1-19
  2. तपस्या के लिये
  3. तप द्वारा
  4. प्रथम कारण
  5. संग्रामविजयी
  6. रक्षा के निये सर्वत्र गमन करने वाला
  7. प्रसन्न
  8. ईश्वर
  9. स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला
  10. तत्काल विजय करने वाला
  11. विष्णु
  12. महाभारत वन पर्व अध्याय 185 श्लोक 20-37

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द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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