- महाभारत वनपर्व के अरण्यपर्व के अंतर्गत अध्याय तीन में युधिष्ठिर द्वारा सूर्य उपासना का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से युधिष्ठिर द्वारा सूर्य उपासना की कथा कही है।[1] -
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा सूर्य की अराधना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! शौनक के ऐसा कहने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले। विप्रवर! ये वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। 'भगवन! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता; परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है। ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए? यह कृपा करके बताइये।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्य मुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात उनसे इस प्रकार कहा। धौम्य बोले- राजन! सृष्टि के प्रारम्भ काल में जब सभी प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस[2] खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से आविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया, तब औषधियों स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिषिक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है, तब छः प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है। इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं, ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं। भीम, कार्तवीर्य अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। धर्मात्मा भारत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो। जनमेजय ने पूछा- भगवन! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की?
वैशम्पायन द्वारा सूर्य के एक सौ आठ नामों का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजेन्द्र! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त होकर सुनो और धैर्य रखो। महाते! धौम्य ने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिर को पहले भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये थे इनका वर्णन करता हूँ सुनो। धौम्य बाले- 1. सूर्य, 2. अर्यमा, 3. भग, 4. त्वष्टा, 5. पूषा, 6. अर्क, 7. सविता, 8. रवि, 9. गभस्तिमान, 10. अज, 11. काल, 12. मृत्यु, 13. धाता, 14. प्रभाकर, 15. पृथ्वी, 16. आप, 17. तेज, 18. ख (आकाश), 19. वायु, 20. परायण, 21. सोम, 22. बृहस्पति, 23. शुक्र, 24. बुध, 25. अंगारक[3] , 26. इन्द्र, 27. विवस्वान, 28. दीप्तांशु, 29. शुचि, 30. शौरि, 31. शनैश्चर, 32. ब्रह्मा, 33. विष्णु, 34. रुद्र, 35. स्कन्द, 36. वरुण, 37. यम, 38. वैद्युताग्रि, 39. जाठराग्नि, 40. ऐन्धनाग्नि, 41. तेजःपति, 42. धर्मध्वज, 43. वेदकर्ता, 44. वेदांग, 45. वेदवाहन, 46. कृत, 47. त्रेता, 48. द्वापर, 49. सर्वमलाश्रय कलि, 50. कला काष्ठा मुहर्तरूप समय, 51. क्षपा [4] , 52. याम, 53. क्षण, 54. संवत्सरकर, 55. अश्वत्थ, 56. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 57. शाश्वत पुरुष, 58. योगी, 59. व्यक्ताव्यक्त, 60. सनातन, 61. कालाध्यक्ष, 62. प्रजाध्यक्ष, 63. विश्वकर्मा, 64. तमोनुद, 65. वरुण, 66. सागर, 67. अंशु, 68. जीमूत, 69. जीवन, 70. अरिहा, 71. भूताश्रय, 72. भूतपति, 73. सर्वलोकनमस्कृत, 74. स्रष्टा, 75. संवर्तक, 76. वह्नि, 77. सर्वादि, 78. अलोलुप, 79. अनन्त, 80. कपिल, 81. भानु, 82. कामद, 83. सर्वतोमुख, 84. जय, 85. विशाल, 86. वरद, 87. सर्वधातु, 88. मनःसुपर्ण, 89. भूतादि, 90. शीघ्रग, 91. प्राणधारक, 92. धन्वतरि, 93. धूमकेतु, 94. आदिदेव, 95. अदितिसुत, 96. द्वादशात्मा, 97. अरविन्दाक्ष, 98. पिता-माता-पितामह, 99. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 100. मोक्षद्वारत्रिविष्टप, 101. देहकर्ता, 102. प्रशान्तात्मा, 103. विश्वात्मा, 104. विश्वतोमुख, 105. चराचरात्मा, 106. सूक्ष्मात्मा, 107. मैत्रेय, 108. करुणान्वित। ये अमित तेजस्वी भगवान सूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं, जिनका उपदेश साक्षात ब्रह्मजी ने किया है।[5]
धर्मराज युधिष्ठिर की तपस्या
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पुरोहित धौम्य के इस प्रकार समयोचित बात कहने पर ब्राह्मणों को देने के लिये अन्न की प्राप्ति के उद्देश्य से नियम में स्थित हो मन को वश में रखकर दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करते हुए शुद्ध चेता धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तम तपस्या का अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिर ने गंगा जी के जल से पुष्प और नैवेद्य आदि उपहारों द्वारा भगवान दिवाकर की पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो गये। धर्मात्मा पाण्डु कुमार चित्त को एकाग्र करके इंद्रियों को संयम में रखते हुए केवल वायु पीकर रहने लगे। गंगा जल का आचमन करके पवित्र हो वाणी को वश में रखकर तथा प्राणायामपूर्वक स्थित रहकर पूर्वोत्तर अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र का जप किया। युधिष्ठिर बोले- सूर्य देव आप सम्पूर्ण जगत के नेत्र तथा समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आप ही सब जीवों के उत्पत्ति-स्थान और कर्मानुष्ठान में लगे हुए पुरुषों के सदाचार हैं। सम्पूर्ण सांख्ययोगियों के प्राप्तव्य स्थान पर ही हैं। आप ही सब कर्म योगियों के आश्रय हैं। आप ही मोक्ष के उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओं की गति हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। आपसे ही यह प्रकाशित होता है। आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थ भाव से उसका पालन किया जाता है। सूर्यदेव! आप सभी ऋषिगणों द्वारा पूजित हैं। वेद के तत्त्वश ब्राह्मण लोग अपनी-अपनी वेद शाखाओं में वर्णित मंत्रों द्वारा उचित समय पर उपस्थान करके आपका पूजन किया करते हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, यक्ष, गुह्यक और नाग आपसे वर पाने की अभिलाषा से आपके गतिशील दिव्य रथ के पीछे-पीछे चलते हैं। तैंतीस[6] देवता एवं विमानचारी सिद्ध गण भी उपेन्द्र तथा महेन्द्र सहित आपकी अराधना करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। श्रेष्ठ विद्याधरगण दिव्य मन्दार-कुसुमों की मालाओं से आपकी पूजा करके सफल मनोरथ हो तुरंत आपके समीप पहुँच जाते हैं। गुह्यक, सात[7] प्रकार के पितृगण तथा दिव्य मानव[8] आपकी ही पूजा करके श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हैं। वसुगण, मरुद्रगण, रुद्र, साध्य तथा आपकी किरणों का पान करने वाले वालखिल्य आदि सिद्ध महर्षि आपकी ही आराधना से सब प्राणियों में श्रेष्ठ हुए हैं। ब्रह्मलोक सहित ऊपर के सातों लोकों में तथा अन्य सब लोकों में भी ऐसा कोई प्राणी नही, दिखता जो आप भगवान सूर्य से बढ़कर हो। भगवन! जगत में और बहुत से प्राणी हैं परंतु उनकी कांति और प्रभाव आपके समान नहीं हैं। सम्पूर्ण ज्योर्तिमय पदार्थ आपके ही अंर्तगत हैं। आप ही समस्त ज्योंतियों के स्वामी हैं। सत्य, सत्त्व तथा समस्त सात्तिक भाव आप में ही प्रतिष्ठित हैं। शांर्ग नामक धनुष धारण करने वाले भगवान विष्णु ने जिसके द्वारा घमंड चूर्ण किया है, उस सुदर्शन चक्र को विश्वकर्मा ने आपके ही तेज से बनाया है।[9]
आप ग्रीष्म-ऋतु में अपनी किरणों से समस्त देहधारियों से तेज और सम्पूर्ण औषधियों के रस का सार खींचकर पुनः उसे वर्षाकाल में उसे बरसा देते हैं। वर्षा ऋतु में आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं कुछ मेघ बनकर गरजती हैं, बिजली बनकर चमकती हैं तथा वर्षा भी करती हैं। शीत काल की वायु से पीड़ित जगत को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते, जितना आप की किरणें देती हैं। आप अपनी किरणों द्वारा तेरह[10] द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं व अकेले ही तीनों लोकों के हित के लिए तत्पर रहते हैं। यदि आप उदय न हों तो सारा जगता अंधा हो जाये और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं काम संबंधी कर्मों में से प्रवृत्त न हों। गर्भाधान या अग्नि की स्थापना, पशुओं को बाँधना, इष्टि[11], मन्त्र, यज्ञानुष्ठान, और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं। ब्रह्मा जी का जो एक सहस्र युगों का दिन बताया गया है, कालमान के जानने वाले विद्वानों ने उसका आदि अन्त आपको बताया है। मनु और मनु पुत्रों के जगत के[12] अमानव पुरुष के समस्त मनवन्तरों के तथा ईश्वरो के भी ईश्वर भी आप हैं। प्रलयकाल आने पर आप के ही क्रोध से प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकों को भस्म करके फिर आपस में ही स्थित हो जाती है। आपकी ही किरणों से उत्पन्न हुए रंग एरावत हाथी महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतों का संहार करती हैं। फिर आप ही अपने को महामेघ और बिजली रूप में सम्पूर्ण भूतों का संहार करते हुए एकार्णव के समस्त जल को सोख लेते हैं। आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रुद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु, तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं। आप ही हंस[13], सविता[14], भानु[15], अंशुमाली[16], वृषाकपि[17], विवस्वान्[18], मिहिर[19], पुषा[20], मित्र[21] , धर्म[22], सहस्ररश्मि[23], आदित्य[24], तपन[25], गवाम्पति[26], मर्तण्ड, अर्क[27], रवि, सूर्य[28], शरणय[29], दिनकृत्[30], दिवाकर[31], सप्तसप्ति[32], धामकेशी[33], विरोचन[34], आशुगामी[35] तमोघ्न[36] तथा हरिताश्व[37] कहे जाते हैं। जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है, उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त नहीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं। अन्नपते! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें। आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आादि अनुचर[38] हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें।[39]
भगवान सूर्य द्वारा युधिष्ठिर को वरदान
वैशम्पायन जी जनमेजय से कहते हैं- महाराज! जब युधिष्ठिर ने लोकभावन भगवान भास्कर का इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन पाण्डु कुमारों को दर्शन दिया। उस समय उनके श्री अंग प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहे थे। भगवान सूर्य बोले- धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते होगा, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा। राजन! यह मेरी दी हुई ताँबे की बटलोई लो। सुवत! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल, मूल, भोजन करने के योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। आज से चौदहवें वर्ष में तुम अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लोगे। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन इतना कहकर भगवान सूर्य वहीं अंर्तधान हो गये। जो कोई अन्य पुरुष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं। जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता हो तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्मा जी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र ने नारद जी से और नारद जी ने धौम्य से इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। जो इसका अनुष्ठान करता है, वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है।[40]
पांडवों का काम्यक वन की ओर प्रस्थान
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वर पाकर धर्म के ज्ञाता कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर गंगा जी के जल से बाहर निकले। उन्होंने धौम्य जी के दोनों चरण पकड़े और भाइयों को हृदय से लगा लिया। द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने चूल्हे पर बटलोई रखकर रसोई तैयार करायी। उसमें तैयार की हुई चार प्रकार की थोड़ी-सी भी रसोई उस पात्र के प्रभाव से बढ़ जाती और अक्षय हो जाती थी। उसी से वे बाह्यणों को भोजन कराने लगे। ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर अपने छेाटे भाईयों को भी कराने के पश्चात विघस अवशिष्ट अन्न को युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे। युधिष्ठिर को भोजन को कर लेने पर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस पात्र का अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्य से मनोवांछित वरों को पाकर उन्हीं के समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्मणों को नियमपूर्वक अन्न दान करने लगे। पुरोहितों को प्रणाम करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वों पर विधि मन्त्र के प्रणाम के अनुसार उनके यज्ञ संबंधी कार्य करने लगे। तदनन्तर स्वस्तिवाचन कराकर ब्राह्यण समुदाय से घिरे हुए पाण्डव धौम्य जी के साथ काम्यक वन को चले गये।[41]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-28
- ↑ जल
- ↑ मंगल
- ↑ रात्रि
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-28
- ↑ बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, आठ वसु, इन्द्र और प्रजापति ये तैंतीस देवता हैं।
- ↑ सभापर्व के 11 वें अध्याय श्लोक 46, 47 में सात पितरों के नाम इस प्रकार बताये गये हैं- वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा, गार्हपत्य, एकश्रृंग, चतुर्वेद और कला।
- ↑ सनकादि
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 29-48
- ↑ जम्बू,प्लक्ष, शाल्मलि, कुशल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर- ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्वीप ऐसे हैं, जिनको लेकर यहाँ 13 द्वीप बनाये गये हैं।
- ↑ पूजा
- ↑ ब्रह्मलोक प्राप्ति कराने वाले
- ↑ शुद्धस्वरूप
- ↑ जगत की उत्पत्ति करने वाले
- ↑ प्रकाशमान
- ↑ किरण समूह से सुशोभित
- ↑ धर्मरक्षक
- ↑ सर्वव्यापी
- ↑ जल की वृष्टि करने वाले
- ↑ पषक
- ↑ सब के सुहृद्
- ↑ धारण करने वाले
- ↑ हजारों किरणों वाले
- ↑ अदितिपुत्र
- ↑ तापकारी
- ↑ किरणें के स्वामी
- ↑ अर्चनीय
- ↑ उत्पादक
- ↑ शरणागति की रक्षा करने वाले
- ↑ दिन के कर्ता
- ↑ दिन को प्रकट करने वाले
- ↑ सात घोड़ो वाले
- ↑ ज्योर्तिमयी किरणों वाले
- ↑ देदीप्यमान
- ↑ शीघ्रगामी
- ↑ अन्धकार नाशक
- ↑ हरे रंग के घोड़ो वाले
- ↑ गण
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 49-69
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 70-86
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 70-86
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| युधिष्ठिर द्वारा परशुराम का पूजन
| युधिष्ठिर की प्रभासक्षेत्र में तपस्या
| यादवों का पांडवों से मिलन
| बलराम की पांडवों के प्रति सहानुभूति
| सात्यकि के शौर्यपूर्ण उद्गार
| युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण के वचनों का अनुमोदन
| गय के यज्ञों की प्रशंसा
| पयोष्णी, नर्मदा तथा वैदूर्य पर्वत का माहात्म्य
| च्यवन को सुकन्या की प्राप्ति
| च्यवन को रूप तथा युवावस्था की प्राप्ति
| च्यवन का इन्द्र पर कोप
| च्यवन द्वारा मदासुर की उत्पत्ति
| लोमश द्वारा अन्यान्य तीर्थों के महत्त्व का वर्णन
| मान्धाता की उत्पत्ति
| मान्धाता का संक्षिप्त चरित्र
| सोमक और जन्तु का उपाख्यान
| सोमक और पुरोहित का नरक तथा पुण्यलोक का उपभोग
| कुरुक्षेत्र के प्लक्षप्रस्रवण तीर्थ की महिमा
| लोमश द्वारा तीर्थों की महिमा तथा उशीनर कथा का आरम्भ
| उशीनर द्वारा शरणागत कबूतर के प्राणों की रक्षा
| अष्टावक्र के जन्म का वृत्तान्त
| अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाना
| अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप
| अष्टावक्र का जनक से वार्तालाप
| अष्टावक्र का शास्त्रार्थ
| अष्टावक्र के अंगों का सीधा होना
| कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थों की महिमा
| रैभ्य तथा यवक्रीत मुनि की कथा
| ऋषियों का अनिष्ट करने से मेघावी की मृत्यु
| यवक्रीत का रैभ्य की पुत्रवधु से व्यभिचार तथा मृत्यु
| भरद्वाज का पुत्रशोक में विलाप
| भरद्वाज का अग्नि में प्रवेश
| अर्वावसु की तपस्या तथा रैभ्य, भरद्वाज और यवक्रीत का पुनर्जीवन
| पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा
| भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन
| पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना
| लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा
| लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा
| गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना
| द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन
| घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश
| बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन
| भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना
| भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट
| भीमसेन और हनुमान का संवाद
| हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन
| हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन
| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
| युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना
| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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