कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान

मार्कण्डेय, युधिष्ठिर आदि को पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य के बारे में बताते हैं और अब कौशिक ब्राह्मण और पतिव्रता के उपाख्‍यान के अन्‍तर्गत ब्राह्मणों के धर्म के वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 206 में बताया गया है[1]-

मार्कण्डेय द्वारा कौशिक ब्राह्मण की कथा सुनाना

मार्कण्डेय जी कहते हैं- भरतनन्‍दनकौशिक नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था। जो वेद का अध्‍यन करने वाला, तपस्‍या का धनी और धर्मात्‍मा था। वह तपस्‍वी ब्राह्मण सम्‍पूर्ण द्विजातियों में श्रेष्‍ठ समझा जाता था। द्विज श्रेष्‍ठ कौशिक ने सम्‍पूर्ण अंगों सहित वेदों और उपनिषदों का अध्‍ययन किया था।

कौशिक द्वारा बगुली का अनिष्ट सोचना

एक दिन की बात है, वह किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वेद पाठ कर रहा था। उस समय उस वृक्ष के उपर एक बगुली छिपी बैठी थी। उसने ब्राह्मण देवता के उपर बीट कर दी। यह देख ब्राह्मण क्रोधित हो गया और उस पक्षी की ओर दृष्टि डालकर उसका अनिष्‍ट चिन्‍तन करने लगा। उसने अत्‍यन्‍त कुपित होकर उस बगुली को देखा और उसका अनिष्‍ट चिन्‍तन किया था, अत: वह पृथ्‍वी पर गिर पड़ी।

बगुली का अनिष्ट हो जाने पर ब्राह्मण को पछतावा होना

उस बगुली को अचेत एवं निष्‍प्राण होकर पड़ी देख ब्राह्मण का हृदय द्रवित हो उठा। उसे अपने इस कुकृत्‍य पर बड़ा पश्चाताप हुआ। वह इस प्रकार शोक प्रकट करता हुआ बोला- ‘ओह। आज क्रोध और आसक्ति के वशीभूत होकर मैने यह अनुचित कार्य कर डाला। मार्कण्‍डेयजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ। इस प्रकार बार बार पछताकर वह विद्वान ब्राह्मण गांव में भिक्षा के लिये गया।

ब्राह्मण का भीक्षा मांगने जाना

उस गांव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरण वाले थे, उन्‍हीं के घरों पर भिक्षा मांगता हुआ वह एक ऐसे घर पर जा पहुँचा, जहाँ पहले भी कभी भिक्षा प्राप्‍त कर चुका था। दरवाजे पर पहुँचकर ब्राह्मण बोला- ‘भिक्षा दें। भीतर से किसी स्‍त्री ने उत्‍तर दिया ‘ठहरो।[2] राजन। वह घर की मालकिन थी, जो जूंठै बर्तन मांज रही थी। ज्‍यों ही वह बर्तन साफ कर‍के उधर से निवृत हुई, त्‍यों ही उसके पति देव सहसा घर पर आ गये।

स्त्री द्वारा पतिव्रता धर्म का पालन

भरत श्रेष्‍ठ। वे भुख से अत्‍यन्‍त पीड़ित थे। पति को आया देख उस श्‍याम नेत्रों वाली पतिव्रता ने ब्राह्मण को तो उसी दशा में छोड़ दिया और अत्‍यन्‍त विनीत भाव से वह पति की सेवा में लग गयी। पानी लाकर उसने पति के पैर धोये, हाथ मुंह धूलाये और बैठने को आसन दिया। फिर सुन्‍दर स्‍वादिष्‍ठ भक्ष्‍य भोज्‍य पदार्थ परोस कर वह पति को भोजन कराने लगी। युधिष्ठिर। वह सती स्‍त्री प्रतिदिन पति को भोजन करा कर उनके उच्छिष्‍ट को प्रसाद मानकर बड़े आदर और प्रेम से भोजन करती थी। वह पति को देवता मानती थी और उनके विचार के अनुकूल ही चलती थी।उसका मन कभी परपुरुष की ओर नहीं जाता था। वह मन, वाणी और क्रिया से पतिपरायणा थी। अपने हृदय की समस्‍त भावनाएं, सम्‍पूर्ण प्रेम पति के चरणों में चढ़ाकर वह अनन्‍य भाव से उन्‍हीं सेवा में लगी रहती थी। सदाचार का पालन करती, बाहर-भीतर से शुद्ध पवित्र रहती, घर के काम काज को कुशलता पूर्वक करती और कुटुम्‍ब के सभी लोगों का हित चाहती थी। पति के लिये जो हितकर कार्य जान पड़ता, उसमें भी वह सदा संलग्र रहती थी। देवताओं की पूजा, अतिथियों के सत्‍कार, भृत्‍यों के भरण-पोषण और सास ससुर की सेवा में भी वह सर्वदा तत्‍पर रहती थी। अपने मन और इन्द्रियों पर वह निरन्‍तर पूर्ण संयम रखती थी।

ब्राह्मण का कुपित होना

पति की सेवा करते करते उस मग्‍ड़लमयी दृष्टि वाली देवी को भिक्षा के लिये खड़े हुए ब्राह्मण की याद आयी। भरतवंश विभूषण। अपनी भूल के कारण वह यशस्विनी साध्‍वी स्‍त्री बहुत लज्जित हुई और ब्राह्मण के लिये भिक्षा लेकर घर से बाहर निकली। उसे देखकर ब्राह्मण ने कहासुन्‍दरी। तुम्‍हारा यह कैसा बर्ताव है देख। तुम्‍हें इतना विलम्‍ब करना था तो ‘ठहरो’ कहकर मुझे रोक क्‍यों लिया मुझे जाने क्‍यों नहीं दिया। मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- राजन। ब्राह्मण क्रोध से संतप्‍त हो अपने तेज से जलता-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर उस पतिव्रता देवी ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया।

स्त्री और ब्राह्मण संवाद

स्‍त्री बोली- विद्वन। क्षमा करें। मेरे लिये सबसे बड़े देवता पति हैं। वे भूखे और थके हुए घर पर आये थे।[3]उन्‍हीं की सेवा में लग गयी। तब ब्राह्मण बोला- क्‍या ब्राह्मण बड़े नहीं हैं; तुमने पति को ही सबसे बड़ा बना दिया ग्रहस्‍थ धर्म में रहकर भी तुम ब्राह्मणों का अपमान करती हो। अरी।[4] इन्‍द्र भी इन ब्राह्मणों के आगे सिर झुकाते हैं, फिर भूत के मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या है घमंड में भरी हुई स्‍त्री। क्‍या तुम ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं जानती कभी बड़े-बुढ़ों के मुख से भी नहीं सुना अरी। ब्राह्मण अग्नि के समान तेजस्‍वी होते हैं। वे चाहें तो इस पृथ्‍वी को भी जलाकर भस्‍म कर सकते हैं।

ब्राह्मणों के धर्म के वर्णन

स्‍त्री बोली- तपोधन। क्रोध न करो। ब्रह्मर्षे। मैं बगुली नहीं हूं, जो तुम्‍हारी इस क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊंगी। तुम इस तरह कुपित होकर मेरा क्‍या करोगे मैं ब्राह्मणों का अपमान नहीं करती। मनस्‍वी ब्राह्मण तो देवता के समान होते हैं। निष्‍पाप ब्राह्मण। तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करो। मैं बुद्धिमान ब्राह्मणों के तेज और महत्‍व को जानती हूँ। ब्राह्मणों के ही क्रोध का फल है कि समुद्र का पानी खारा एवं पीने के अयोग्‍य बना दिया गया। इसी प्रकार जिन की तपस्‍या बहुत बढ़ी-चढ़ी थी और जिनका अन्‍त: करण परम पवित्र हो चुका था, ऐसे मुनियों ने भी जो क्रोध की आग प्रज्‍वलित की थी, वह आज भी दण्‍डकारण में बुझ नहीं पा रही है। ब्राह्मणों का तिरस्‍कार करने से ही क्रूर स्‍वभाव वाला महान असुर अत्‍यन्‍त दुरात्‍मा वातापि अगस्‍त्‍य पेट में जाकर पच गया। ब्रह्मन। महात्‍मा ब्राह्मणों के प्रभाव को बताने वाले बहुत से चरित्र सुने जाते हैं। उन महात्‍माओं का क्रोध और कृपा दोनों ही महान होते हैं। निष्‍पाप ब्रह्मन। मेरे द्वारा जो अपराध हो गया है, उसे क्षमा करो। विप्रवर। मुझे तो पति की सेवा से जो धर्म प्राप्‍त होता है, वही अधिक पसंद है। परिपूर्ण देवताओं में भी पति ही मेरे सबसे बड़े देवता हैं। द्विज श्रेष्‍ठ। मैं साधारण रुप से ही पतिसेवा रुप धर्म का पालन करती हूँ। ब्राह्मण देवता। इस पति सेवा का जैसा फल है, उसे प्रत्‍यक्ष देख लो। तुमने क्रोध करके जो एक बगुली को जला दिया था, वह बात मुझे मालूम हो गयी। द्विज श्रेष्‍ठ। मनुष्‍यों का एक बहुत बड़ा शत्रु है। वह उनके शरीर में ही रहता है उसका नाम है ‘क्रोध’।[5]जो क्रोध और मोह को त्‍याग देता है, उसी को देवता गण ब्राह्मण मानते हैं। जो यहाँ सत्‍य बोले, गुरु को संतुष्‍ट रखे, किसी के द्वारा मार खाकर भी बदले में उसे न मारे, उसको देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जो जितेन्द्रिय, धर्मपरायण, स्‍वाध्‍याय तत्‍पर और पवित्र है तथा काम और क्रोध जिसके वश में है, उस देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जिस धर्मज्ञ एवं मनस्‍वी पुरुष का सम्‍पूर्ण जगत के प्रति आत्‍म भाव है तथा धर्मो पर जिसका समान अनुराग है, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जो पढ़े और पढ़ाये, यज्ञ करे और कराये तथा यथा शक्ति दान दे, उसे देवता ब्राह्मण कहते हैं। जो द्विज श्रेष्‍ठ ब्रह्मचर्य का पालन करे, उदार बने, वेदों का अध्‍ययन करे और सतत सावधान रहकर स्‍वाध्‍याय में ही लगा रहे, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। ब्राह्मण के लिये जो हितकर कर्म हो, उसी का उनके सामने वर्णन करना चाहिये। सत्‍य बोलने वाले लोगों का मान कभी असत्‍य में नहीं लगता।

द्विज श्रेष्‍ठ। स्‍वाध्‍याय, मनोनिग्रह, सरलता और इन्द्रिय निग्रह- ये ब्राह्मण के लिये सनातन धर्म कहे गये हैं। धर्मज्ञ पुरुष सत्‍य और सरलता को सर्वोत्तम धर्म बताते हैं। सनातन धर्म के स्‍वरुप को जानना तो अत्‍यन्‍त कठिन है, परंतु वह सत्‍य में प्रतिष्ठित है। जो वेदों के द्वारा प्रमाणित हो, वही धर्म है- यह वृद्ध पुरुषों का उपदेश है। द्विज श्रेष्‍ठ। बहुधा धर्म का स्‍वरुप सूक्ष्‍म ही देखा जाता है। तुम भी धर्मज्ञ, स्‍वाध्‍याय परायण और पवित्र हो। भगवनत्र। तो भी मेरा विचार यह है कि तुम्‍हे धर्म का यथार्थ ज्ञान नहीं है। विप्रवर। यदि तुम परम धर्म क्‍या है, यह नहीं जानते तो मिथिलापुरी में धर्मव्‍याघ के पास जाकर पूछो। मिथिला में व्‍याघ रहता है, जो माता-पिता का सेवक, सत्‍यवादी और जितेन्द्रिय है, वह तुम्‍हें धर्म का उपदेश करेगा। द्विजश्रेष्‍ठ। तुम अपनी रुचि के अनुसार वहीं जाओ, तुम्‍हारा मगल हो। अनिन्‍दनीय ब्राह्मण। यदि मेरे मुख से कोई अनुचित बातें निकल गयी हों तो उन सबके लिये मुझे क्षमा करें; क्‍योंकि जो धर्मज्ञ पुरुष हैं, उन सबकी दृष्टि में स्त्रियां अदण्‍डनीय हैं।

ब्राह्मण बोला-शुभे। तुम्‍हारा भला हो। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। मेरा सारा क्रोध दूर हो गया। तुमने जो उलाहना दिया है, वह अनुचित वचन नहीं, मेरे लिये परम कल्‍याणकारी है। शोभ ने। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अब मैं जाऊंगा और अपना कार्यसाधना करुंगा। कल्‍याणि। तुम धन्‍य हो, जिसका सदाचार इतनी उच्‍चकोटि का है।

मार्कण्‍डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर।उस साध्‍वी स्‍त्रीं से विदा लेकर वह द्विज श्रेष्‍ठ कौशिक अपनी आत्मा की निन्‍दा करता हुआ अपने घर को लौट गया।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 206 श्लोक 1-15
  2. अभी लाती हूं
  3. उन्‍हें छोड़ कर कैसे आती
  4. स्‍वर्गलोक के स्‍वामी
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 206 श्लोक 16-32
  6. महाभारत वन पर्व अध्याय 206 श्लोक 33-48

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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