- अर्जुन के द्वारा अपनी तपस्या-यात्रा के वृतान्त का वर्णन किया जाता है और अब भगवान शिव के साथ संग्राम और पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'निवातकवच युद्ध पर्व' के अंतर्गत अध्याय 167 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
अर्जुन का संवाद
पांचवां महीना आरम्भ होने पर जब एक दिन बीत गया तब दूसरे दिन एक शूकर रूप धारी जीव मेरे निकट आया। वह अपनी थूथून से पृथ्वी पर चोट करता और पैरों से धरती खोदता था। बार-बार लेटकर वह अपने पेट से वहाँ की भूमि को ऐसी स्वच्छ कर देता था, मानो उस पर झाड़ दिया गया हो। उसके पीछे किरात-जैसी आकृति में एक महान पुरुष का दर्शन किया। उसने धनुष बाण और खड्ग ले रखे थे। उसके साथ स्त्रीयों का एक समुदाय भी था।
अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम
तब मैंने धनुष तथा अक्षय तरकस लेकर एक बाण के द्वारा उस रोमांचकारी सूकर पर आघात किया। साथ ही किरात ने भी अपने सुदृढ़ धनुष को खींचकर उसपर गहरी चोट की, जिससे मेरा हृदय कम्पित सा हो उठा। राजन! फिर वह किरात मुझ से बोला-'यह सूअर तो पहले मेरा निशाना बन चुका था, फिर तुमने आखेट के नियम को छोड़कर उस पर प्रहार क्यों[2]इतना ही नहीं उस विशालकाय एवं धनुर्धर किरात ने उस समय मुझ से यह भी कहा- 'अच्छा, ठहर जाओ। मैं अपने पैने बाणों से अभी तुम्हारा घमंड चूर-चूर किये देता हूं'। ऐसा कहकर उस भील ने जैसे पर्वत पर वर्षा हो, उस प्रकार महान् बाणों की बौछार करके मुझे सब ओर से ढक दिया; तब मैंने भी भारी बाण वर्षा करके उसे सब ओर से आच्छादित कर दिया। तदनन्तर जैसे वज्र से पर्वत पर आघात किया जाय, उसी प्रकार प्रज्वलित मुख वाले अभिमंत्रित और खूब खींचकर छोड़े हुए बाणों द्वारा मैंने उसे बार-बार घायल किया। उस समय उसके सैंकड़ो और सहस्रों रूप प्रकट हुए और मैने उसके सभी शरीर पर बाणों से गहरी चोट पहुँचायी। भारत! फिर उसके वे सारे शरीर एकरूप दिखायी दिये। महाराज! उस एकरूपी में भी मैंने उसे पुनः अच्छी तरह घायल किया। कभी उसकी शरीर तो बहुत छोटा हो जाता, परंतु मस्तक बहुत बड़ा दिखायी देता था। फिर वह विशाल शरीर धारण कर लेता और मस्तक बहुत छोटा बना लेता था। राजन! अन्त में वह एक ही रूप में प्रकट होकर युद्ध में मेरा सामना करने लगा। भरतर्षभ! जब मैं बाणों की वर्षा करके भी युद्ध में उसे परास्त न कर सका, तब मैंने महान वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। किंतु उससे भी उसका वध न कर सका। यह एक अद्भुत सी घटना हुई। वायव्यास्त्र के निष्फल हो जाने पर मुझे महान आश्चर्य हुआ। महाराज! तब मैंने पुनः विशेष प्रयत्न करके रणभूमि में किरात रूपधारी उस अद्भुत पुरुष पर महान अस्त्र समूह की वर्षा की। स्थूर्णाकर्ण[3], वारूर्णास्त्र[4], भयंकर शरवर्षास्त्र[5], शलभास्त्र[6] तथा अश्मेवर्ष[7] इन अस्त्रों का सहारा ले मैं उस किरात पर टूट पड़ा। राजन! उसने मेरे उन सभी अस्त्रों को बलपूर्वक अपना ग्रास बना लिया। उन सबके भक्षण कर लिये जाने पर मैंने महान ब्रह्मशास्त्र प्रयोग किया। तब प्रज्वलित बाणों द्वारा वह अस्त्र सब ओर बढ़ने लगा। मेरे महान अस्त्र से बढ़ने की प्रेरणा पाकर वह ब्रह्मास्त्र अधिक वेग से बढ़ चला। तदनन्तर मेरे द्वारा प्रकट किये हुए ब्रह्मास्त्र के तेज से वहाँ के सब लोग संतप्त हो उठे। एक ही क्षण में सम्पूर्ण दिशाएं और आकाश सब ओर से आग की लपटों से उदीप्त हो उठे। परंतु उस महान तेजस्वी वीर ने क्षण भर मे ही मेरे उस ब्रह्मास्त्र को भी शान्त कर दिया। राजन! उस ब्रह्मास्त्र के नष्ट होने पर मेरे मन में महान भय समा गया।
तब मैं धनुष और दोनों अक्षय तरकस लेकर सहसा उस दिव्य पुरुष पर आघात करने लगा, किंतु उसने उन सब को भी अपना आहार बना लिया है। जब मेरे सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट होकर उसके आहार बन गये, तब मेरा उस अलौकिक प्राणी के साथ मल्लयुद्ध प्रारम्भ हो गया। पहले मुक्कों और थप्पड़ों से मैंने उससे टक्कर लेने की चेष्टा की, परंतु उस पर मेरा कोई वश नहीं चला और में निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। महाराज! तब वह अलौकिक प्राणी हंस कर मेरे देखते-देखते स्त्रियों सहित वहीं अन्तर्धान हो गया।
अर्जुन को भगवान शिव के दर्शन
राजन! वास्तव में वे भगवान शंकर थे। उन्होंने पूर्वोक्त बर्ताव करके दूसरा रूप धारण कर लिया। देवताओं के स्वामी भगवान महेश्वर किरातरूप छोड़कर दिव्य स्वरूप का आश्रय ले अलौकिक एवं अद्भुत वस्त्र धारण किये वहाँ खड़े हो गये। इस प्रकार उमा सहित साक्षात भगवान वृषभध्वज का दर्शन हुआ। उन्होंने अपने अंगों में सर्प और हाथ में पिनाक धारण कर रखे थे।
अर्जुन को शिव द्वारा पाशुपतास्त्र की प्राप्ति
अनेक रूपधारी भगवान शूलपाणि उस रणभूमि में मेरे निकट आकर पूर्ववत सामने खड़े हो गये और बोले- 'परंतप! मैं तुम पर संतुष्ट हूं'। तदनन्तर मेरे धनुष और अक्षय बाणों से भरे हुए दोनों तरकस लेकर भगवान शिव ने मुझे ही दे दिये और कहा- 'परंतप! ये अपने अस्त्र ग्रहण करो। 'कुन्तीकुमार! मैं तुमसे संतुष्ट हूँ। बोलो, तुम्हारा कौन सा कार्य सिद्ध करूं? वीर! तुम्हारे मन में जो कामना हो, बताओ। मैं उसे पूर्ण कर दूंगा। अमरत्व को छोड़कर और तुम्हारे मन में जो भी कामना हो, बताओ'। मेरा मन तो अस्त्र-शस्त्रों में लगा हुआ था। उस समय मैंने हाथ जोड़कर मन-ही-मन भगवान शंकर को प्रणाम किया और यह बात कही- 'यदि मुझ पर भगवान प्रसन्न हैं, तो मेरा दिव्यास्त्र हैं, उन्हें मैं जानना चाहता हूँ। 'यह सुनकर भगवान शंकर ने मुझ से कहा- पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों की प्राप्ति का वर देता हूँ। 'पाण्डुकुमार! मेरा रौद्रास्त्र स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायगा।' यह कहकर भगवान पशुपति ने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुझे अपना महान पाशुपतास्त्र प्रदान किया। अपना सनातन अस्त्र मुझे देकर महादेव जी फिर बोले- 'तुम्हें मनुष्यों पर किसी प्रकार इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये। 'अपने से अल्पशक्ति वाले विपक्षी पर यदि इसका प्रहार किया जाय, तो यह सम्पूर्ण विश्व को दग्ध कर देगा। धनंजय! जब शत्रु के द्वारा अपने को बहुत पीड़ा प्राप्त होने लगे, उस दशा में आत्म रक्षा के लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। शत्रु के अस्त्रों का विनाश करने के लिये सर्वथा इसका प्रयोग उचित है'। इस प्रकार भगवान वृषभध्वज के प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण अस्त्रों का निवारण करने वाला और कहीं भी कुण्ठित न होने वाला दिव्य पाशुपतास्त्र मूर्तिमान हो मेरे पास आकर खड़ा हो गया। वह शत्रुओं का संहारक और विपक्षियों की सेना का विध्वंसक है। उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। देवता, दानव तथा राक्षस किसी के लिये भी उसका वेग सहन करना अत्यन्त कठिन है। फिर भगवान शिव की आज्ञा होने पर मैं वहीं बैठ गया और वे मेरे देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।[8]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 1-23
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 24-41
- ↑ आचार्य नीलकण्ठ के मत से स्थूलाकर्ण नाम है शंककर्ण का, जो भगवान रुद्र के एक अवतार है। वे जिस अस्त्र के देवता हैं, उसका नाम भी स्थूलाकर्ण है।
- ↑ मूल में जाल शब्द आया हैं, जिसका अर्थ है, जालसम्बन्धी। यह जल वर्षक अस्त्र ही वारुणास्त्र है।
- ↑ जैसे बादल पानी की वर्षा करता हैं, उसी प्रकार निरन्तर बाणवर्षा करने वाला अस्त्र शरवर्ष कहलाता है।
- ↑ जैसे असंख्य टिड्डियां आकाश में मंडराती और पौदों पर टूट पड़ती हैं, उसी प्रकार जिस अस्त्र से असंख्य बाण आकाश को अच्छादित करते और शत्रु को अपना लक्ष्य बनाते हैं, उसी का नाम शलभास्त्र है।
- ↑ पत्थरों की वर्षा करने वाले अस्त्र को अश्मवर्ष कहते है।
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 42-57
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| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
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| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
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| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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