धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा

मार्कण्डेय, युधिष्ठिर आदि को कौशिक की कथा सुनाते हैं कथा के अनुसार पतिव्रता स्त्री की वार्ता पर विचार करते हुए कौशिक धर्मव्याध के पास मिथिला जाते हैं इसके पश्चात् व्‍याध की खोज करते हैं और अब धर्मव्‍याध के द्वारा पतिव्रता से प्रेषित जान लेने पर कौशिक को आश्रचर्य होना, धर्मव्‍याध के द्वारा वर्ण धर्म का वर्णन, जनक राज्‍य की प्रशंसा के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 207 में बताया गया है[1]-

कौशिक का आश्‍चर्य चकित होना

व्‍याध बोला- भगवन। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। द्विज श्रेष्‍ठ। आपका स्‍वागत है। मैं ही वह व्‍याध हूं[2]आपका भला हो, आज्ञा दीजिये, मैं क्‍या सेवा करुं। उस पतिव्रता देवी ने जो आप से यह कहकर भेजा है कि ‘तुम मिथिलापुरी को जाओ। ‘वह सब मैं जानता हूँ। आप जिस उद्देश्‍य से यहाँ पधारे हैं, वह भी मुझे मालूम है। व्‍याध की वह बात सुनकर ब्राह्मण को बड़ा विस्‍मय हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगा- 'यह दूसरा आश्‍चर्य दृष्टिगोचर हुआ है'। इसके बाद व्‍याध ने कहा- ‘भगवन। यह स्‍थान आप के ठहरने योग्‍य नहीं है। अनघ। यदि आप की रुचि हो तो हम दोनों हमारे घर पर चलें’।

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं-युधिष्ठिर। यह सुनकर ब्राह्मण को बड़ा हर्ष हुआ।उसने व्‍याध से कहा- ‘बहुत अच्‍छा’ ऐसा ही करो। तब व्‍याध ब्राह्मण को आगे करके घर की ओर चला।

व्‍याध का घर बहुत सुन्‍दर था।वहाँ पहुँचकर उस व्‍याध ने ब्राह्मण को बैठने के लिये आसन दिया और अर्ध्‍य देकर उस श्रेष्‍ठ ब्राह्मण की आदर सहित पूजा की। सुखपूर्वक बैठ जाने पर ब्राह्मण ने व्‍याध से कहा- ‘तात। यह मांस बेचने का काम निश्‍चय ही तुम्‍हारे योग्‍य नहीं है। मुझे तो तुम्‍हारे इस घोर कर्म से बहुत संताप हो रहा है’।

धर्मव्‍याध के द्वारा वर्ण धर्म का वर्णन

व्‍याध बोला- ब्रह्मन। यह काम मेरे बाप दादों के समय से होता चला आ रहा। मेरे कुल के लिये जो उचित है, वही धंधा मैंने भी अपनाया है। मैं अपने धर्म का ही पालन कर रहा हूं; अत: आप मुझ पर क्रोध न करें। द्विज श्रेष्‍ठ। विधाता ने इस कुल में जन्‍म देकर मेरे लिये जो कार्य प्रस्‍तुत किया है, उसका पालन करता हुआ मैं अपने बूढ़े माता पिता की बड़े यत्‍न से सेवा करता रहता हूँ। सत्‍य बोलता हूँ। किसी की निन्‍दा नहीं करता और अपनी शक्ति के अनुसार दान भी करता हूँ। देवताओं, अतिथियों और भरण-पोषण के योग्‍य कुटुम्‍बीजनों तथा सेवकों को भोजन देकर जो बचता है, उसी से शरीर का निर्वाह करता हूँ। द्विजश्रेष्‍ठ। किसी के दोषों की चर्चा नहीं करता और अपने से बलिष्‍ठ पुरुष की निन्‍दा नहीं करता, क्‍योंकि पहले के किये हुए शुभा शुभ कर्मों का परिणाम स्‍वयं कर्ता को ही भोगना पड़ता है। कृषि, गोरक्षा, वाणिज्‍य, दण्‍डनीति और त्रयी विद्या ऋक, यज, साम के अनुसार यज्ञादि का अनुष्‍ठान करना और कराना ये लोगों की जीविका के साधन हैं। इनसे ही लौकिक और परलौकिक उन्नति सम्‍भव होती है। शूद्र का कर्तव्‍य है सेवा कर्म, वैश्‍य का कार्य है खेती और युद्ध करना क्षत्रिय का कर्म माना गया है। ब्रह्मचर्य, तपस्या, मन्‍त्र- जप, वेदाध्‍ययन तथा सत्‍य भाषण- ये सदा ब्राह्मण के पालन करने योग्‍य धर्म हैं।

राजा अपने-अपने वर्णा श्रमोचित कर्म में लगी हुई प्रजा का धर्म पूर्वक शासन करता है और जो कोई अपने कर्मों से गिरकर विपरीत दिशा में जा रहे हों, उन्‍हें पुन: अपने कर्तव्‍य के पालन में लगता है। इसलिये राजाओं से सदा डरते रहना चाहिये: क्‍योंकि वे प्रजा के स्‍वामी हैं। जो लोग धर्म के विपरीत कार्य करते हैं, उन्‍हें राजा दण्‍ड द्वारा उसी प्रकार पाप से रोकते हैं, जैसे बाणों द्वारा वे हिंसक पशुओं को हिंसा से रोकते हैं। ब्रह्मर्षे। यह राजा जनक का नगर है, यहाँ कोई ऐसा नहीं है, जो वर्ण धर्म के विरुद्ध आचरण करे। द्विज श्रेष्‍ठ। यहाँ चारों वर्णों के लोग अपना-अपना कर्म करते हैं।

जनक राज्य की प्रशंसा

ये राजा जनक दुराचारी को, वह अपना पुत्र ही क्‍यों न हो, दण्‍डनीय मानकर दण्‍ड देते ही हैं तथा किसी भी धर्मात्‍मा को कष्‍ट नहीं पहुँचने देते हैं। विप्रवर। राजा जनक ने सब ओर गुप्‍तचर लगा रखे हैं, अत: उनके द्वारा वे धर्मानुसार सब पर दृष्टि रखते हैं। सम्‍पत्ति का उपार्जन, राज्‍य की रक्षा तथा अपराधियों दण्‍ड देना- ये क्षत्रियों के कर्तव्‍य हैं। राजा लोग अपने धर्म का पालन करते हुए ही प्रचुर सम्‍पत्ति पाने की इच्‍छा रखते हैं और राजा सभी वर्णों का रक्षक होता है।

ब्रह्मन। मैं स्‍वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करता। सदा दूसरों के मारे हुए सूअर और भैंसों का मांस बेचता हूँ।[3]मैं स्‍वयं मांस कभी नहीं खाता। ऋतु काल प्राप्‍त होने पर ही पत्‍नी- समागम करता हूँ। द्विज प्रवर। मैं दिन में सदा ही उपवास और रात में भोजन करता हूँ। शील से रहित पुरुष भी कभी शीलवान हो जाता है। प्राणियों की हिंसा में अनुरक्‍त मनुष्‍य भी फिर धर्मात्‍मा हो जाता है। राजाओं के व्‍यभिचार-दोष से धर्म अत्‍यन्‍त संकीर्ण हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है, इससे प्रजा में वर्ण संकरता आ जाती है। उस दशा में भयंकर आकृति वाले, बौने, कुबड़े, मोटे मस्‍त वाले, नपुंसक, अंधे, बहरे और अधिक उंचे नेत्रों वाले मनुष्‍य उत्‍पन्न होते हैं। राजाओं के अधर्म परायण होने से प्रजा की सदा अव‍नति होती है। हमारे ये राजा जनक समस्‍त प्रजा को धर्म पूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं। नरश्रेष्‍ठ। राजा जनक सदा स्‍वर्ध में तत्‍पर रहने वाली सम्‍पूर्ण प्रजा पर अनुग्रह रखते हुए उसका पिता की भाँति सदा पालन करते हैं। जो लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और जो निन्‍दा करते हैं, उन सबको अपने सद्व्‍यवहार से संतुष्‍ट रखता हूँ। जो राजा अपने धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करते हैं, धर्म में संयुक्‍त रहते हैं, किसी दूसरे की कोई वस्‍तु अपने उपयोग में नहीं लाते तथा सदा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, वे ही उन्नतिशील होते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार सदा दूसरों को अन्न देना, दूसरों के अपराध तथा शीत उष्‍ठ आदि द्वन्‍द्वों को सहन करना, सदा धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहना तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों में सभी पूजनीय पुरुषों का यथा योग्‍य पूजन करना- ये मनुष्‍यों के सदुण पुरुष में स्‍वार्थ त्‍याग के बिना नहीं रह पाते हैं। झूठ बोलना छोड़ दे, बिना कहे ही दूसरों का प्रिय करे, काम, क्रोध तथा द्वेष से भी कभी धर्म का परित्‍याग न करे। प्रिय वस्‍तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठे, अपने मन के विपरीत कोई बात हो जाय तो दु:ख न माने- चिन्तिन न हो, अर्थ संकट आ जाय तो भी मोह के वशीभूत हो घबराये नहीं और किसी भी अवस्‍था में अपना धर्म न छोड़े। यदि भूल से कभी निन्दित कर्म बन जाय, तो फिर दुबारा वैसा काम न करे।

व्याध द्वारा धर्म का वर्णन

अपने मन और बुद्धि से विचार करने पर जो कल्‍याणकारी प्रतीत हो, उसी कार्य में अपने को लगावे। यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो स्‍वयं भी बदले में उसके साथ बुराई न करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्‍वयं ही नष्‍ट हो जाता है। यह[4]तो दुराचारी की भाँति दुर्व्‍यसनों में आसक्‍त हुए पापी पुरुषों का ही कार्य है। ‘धर्म कोई चीज नहीं है’ ऐसा मानकर जो शुद्ध आचार-विचार वाले श्रेष्‍ठ पुरुषों की हंसी उड़ाते हैं, वे धर्म पर अश्रद्धा रखने वाले मनुष्‍य निश्‍चय नही नष्‍ट हो जाते हैं। पापी मनुष्‍य लुहार की बड़ी धौंकनी के समान सदा ऊपर से फूलें दिखायी देते हैं[5]। द्विज श्रेष्‍ठ। उत्तम पुरुष सर्वत्र विनयशील ही होता है। अंहकारी मुढ़ मनष्‍यों की सोची हुई प्रत्‍येक बात नि:सार होती है। जैसे सूर्य दिन के रूप को प्रकट कर देता है, उसी प्रकार मूर्खों की अन्‍तरात्‍मा ही उनके यथार्थ स्‍वरुप का दर्शन करा देती हैं।[6]मूर्ख मनुष्‍य केवल अपनी प्रशंसा के बल से जगत में प्रतिष्‍ठा नहीं पाता है, विद्वान पुरुष कान्ति ही हो , तो भी संसार में उसकी ख्‍याति बढ़ जाती है। किसी दूसरे की निन्‍दा न करे, अपनी मान-प्रतिष्‍ठा की प्रशंसा न करे, कोई भी गुणवान पुरुष पर निन्‍दा और आत्‍म प्रशंसा का त्‍याग किये बिना इस भूमण्‍ड में सम्‍मानित हुआ हो, यह नहीं देखा जाता है। जो मनुष्‍य पाप कर्म बन जाने पर सच्‍चे हृदय से पश्‍चत्ताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा ‘फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करुंगा’ ऐसा दृढ़ निश्‍चय कर लेने पर वह भविष्‍य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है। विप्रवर। शास्‍त्र विहित[7]किसी भी कर्म का निष्‍काम भाव से आचरण करने पर पाप से छुटकारा मिल सकता है। ब्रह्मन। धर्म के विषय में ऐसी श्रुति देखी जाती है।

पहले काधर्मशील पुरुष भी यदि अनजान में यहाँ कोई पाप कर बैठे तो वह पीछे[8]उस पाप को नष्‍ट कर देता है। राजन। मनुष्‍यों का धर्म ही यहाँ प्रमाद वश किये हुए उनके पापों को दूर कर देता है। जो मनुष्‍य पाप करके भी यह मानता है कि मैं पापी नहीं हूँ। वह भूल करता हैं; क्‍योंकि देवता उसे और उसके पाप को देखते हैं तथा उसी के भीतर बैठा हुआ परमात्‍मा भी देखता ही है। श्रद्धालु मनुष्‍य दूसरों के दोष देखना छोड़कर सदा सबके हित की इच्‍छा करे। जो पापी अपने दोषों की ओर से आंखें बंद करके सदा दूसरे श्रेष्‍ठ पुरुषों के दोषों को ही कपड़े के छेदों की भाँति अधिकाधिक प्रकट करता और बढ़ाता है, वह मृत्‍यु के पश्‍यचात नष्‍ट हो जाता है- परलोक में उसे कोई सुख नहीं मिलता है। यदि मनुष्‍य पाप करके भी कल्‍याणकारी कर्म में लग जाता हैं, तो वह महामेघ से मुक्‍त हुए चन्‍द्रमा की भाँति सब पापों से मुक्‍त हो जाता हैं। जैसे सूर्य उदय होने पर पहले के अन्‍धकार को नष्‍ट कर देते हैं, उसी प्रकार कल्‍याणकारी शुभ कर्म का निष्‍काम भाव से अनुष्‍ठान करने वाला पुरुष सब पापों से छुटकारा पा जाता है। विप्रवर। लोभ को ही पापों का घर समझो। जिन्‍होंने अधिकतर शास्‍त्रों का श्रवण नहीं किया है, वे लोभी मनुष्‍य ही पाप करने का विचार रखते हैं। तिनके से ढके हुए कुओं की भाँति धर्म की आड़ में कितने ही अधर्म चल रहे हैं। धर्मात्‍मा के वेश में रहने वाले इन अधार्मिक मनुष्‍यों में इन्द्रिय-संयम, पवित्रता और धर्म सम्‍बन्‍धी चर्चा आदि सभी गुण तो होते हैं, पंरतु उन में शिष्‍टाचार[9]अत्‍यन्‍त दुर्लभ है।[10]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 1-17
  2. जिसकी खोज में आपने यहाँ तक आने का कष्‍ट किया है
  3. महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 18-32
  4. दूसरों का अहित करना
  5. परंतु वास्‍तव में सारहीन होते हैं
  6. महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 33-48
  7. जप, तप, यज्ञ, दान आदि
  8. निष्‍काम पुण्‍य कर्म द्वारा
  9. श्रेष्‍ठ पुरुषों का सा आचार-व्‍यवहार
  10. महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 49-62

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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