सप्ताधिकद्विशततम (207) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्ताधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 49-62 का हिन्दी अनुवाद
विप्रवर! शास्त्रविहित (जप, तप, यज्ञ, दान आदि) किसी भी कर्म का निष्काम भाव से आचरण करने पर पाप से छुटकारा मिल सकता है। ब्रह्मन्! धर्म के विषय में ऐसी श्रुति देखी जाती है। पहले का धर्मशील पुरुष भी यदि अनजान में यहाँ कोई पाप कर बैठे तो वह पीछे (निष्काम पुण्य कर्म द्वारा) उस पाप को नष्ट कर देता है। राजन्! मनुष्यों का धर्म ही यहाँ प्रमादवश किये हुए उनके पापों को दूर कर देता है। जो मनुष्य पाप करके भी यह मानता है कि 'मैं पापी नहीं हूँ', वह भूल करता हैं; क्योंकि देवता उसे और उसके पाप को देखते हैं तथा उसी के भीतर बैठा हुआ परमात्मा भी देखता ही है। श्रद्धालु मनुष्य दूसरों के दोष देखना छोड़कर सदा सबके हित की इच्छा करे। जो पापी अपने दोषों की ओर से आंखें बंद करके सदा दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों के दोषों को ही कपड़े के छेदों की भाँति अधिकाधिक प्रकट करता और बढ़ाता है, वह मृत्यु के पश्यचात् नष्ट हो जाता है-परलोक में उसे कोई सुख नहीं मिलता है। यदि मनुष्य पाप करके भी कल्याणकारी कर्म में लग जाता है, तो वह महामेघ से मुक्त हुए चन्द्रमा की भाँति सब पापों से मुक्त हो जाता है। जैसे सूर्य उदय होने पर पहले के अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार कल्याणकारी शुभ कर्म का निष्काम भाव से अनुष्ठान करने वाला पुरुष सब पापों से छुटकारा पा जाता है। विप्रवर! लोभ को ही पापों का घर समझो। जिन्होंने अधिकतर शास्त्रों का श्रवण नहीं किया है, वे लोभी मनुष्य ही पाप करने का विचार रखते हैं। तिनके से ढके हुए कुओं की भाँति धर्म की आड़ में कितने ही अधर्म चल रहे हैं। धर्मात्मा के वेश में रहने वाले इन अधार्मिक मनुष्यों में इन्द्रियसंयम, पवित्रता और धर्मसम्बन्धी चर्चा आदि सभी गुण तो होते हैं, पंरतु उनमें शिष्टाचार (श्रेष्ठ पुरुषों का-सा आचार-व्यवहार) अत्यन्त दुर्लभ होते हैं।' मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर परम बुद्धिमान कौशिक ने धर्मव्याघ से पूछा- ‘नरश्रेष्ठ! मुझे शिष्टाचार का ज्ञान कैसे हो? धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महामते व्याध! तुम्हारा भला हो, मैं ये सब बातें तुम से सुनना चाहता हूँ। अत: यथार्थ रूप से इनका वर्णन करो’। व्याध ने कहा- 'द्विजश्रेष्ठ! यज्ञ, दान, तपस्या, वेदों का स्वाध्याय और सत्यभाषण- ये पांच पवित्र वस्तुएं शिष्ट पुरुषों के आचार-व्यवहार में सदा देखी गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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