- मार्कण्डेय द्वारा पाण्डवों आदि को वैवस्वत मनु के चरित्र का वर्णन और मत्स्यावतार की कथा सुनायी जाती है और अब चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव के वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 188 में बताया गया है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय मुनि की प्रशंसा
वैशम्पायन जी कहते हैं-जनमेजय! तदनन्तर विनयशील धर्मराज युधिष्ठिर ने यशस्वी मार्कण्डेय मुनि से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। 'महामुने! आपने हजार-हजार युगों के अन्त में होने वाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं। इस संसार में आप के समान बड़ी आयु वाला दूसरा कोई पुरुष नहीं दिखायी देता। ब्रह्मावेताओं में श्रेष्ठ महर्षें! परमेष्ठी महात्मा ब्रह्मा जी को छोड़कर दूसरा कोई आपके समान दीर्घायु नहीं है। ब्रह्मान! जब यह संसार देवता, दानव तथा अन्तरिक्ष आदि लोकों से शून्य हो जाता हैं उस प्रलयकाल में केवल आप ही ब्रह्मा जी के पास रहकर उनकी उपासना करते हैं। ब्रह्मार्षे! फिर प्रलयकाल व्यतीत होने पर जब पितामह ब्रह्मा जागते हैं, तब सम्पूर्ण दिशाओं में वायु को फैलाकर उसके द्वारा समस्त जल राशि को इधर-उधर छितराकर[2]ब्रह्मा जी के द्वारा जो जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उभ्दिज नामक चार प्रकार के प्राणी रचे जाते हैं, उन्हें एकमात्र आप ही[3]अच्छी तरह देख पाते हैं। द्विजश्रेष्ठ! आपने तत्परतापूर्वक चित्तवृतियोंका निरोध करके सम्पूर्ण लोकों के पितामह साक्षात लोकगुरु ब्रह्मा जी की आराधना की है। विप्रवर! आपने अनेक बार इस जगत की प्रारम्भिक सृष्टि को प्रत्यक्ष किया है और घोर तपस्या द्वारा[4]प्रजापतियों को भी जीत लिया है। आप भगवान नारायण के समीप रहने वाले भक्तों में सबसे श्रेष्ठ हैं। परलोक में आपकी महिमा का सर्वत्र गान होता है। आपने पहले स्वेच्छा से प्रकट होने वाले सर्वव्यापक ब्रह्मा की उपलब्धि के स्थान भूत हृदय कमल की कर्णिका का[5]लौकिक उद्घाटन कर वैराग्य और अभ्यास से प्राप्त हुई दिव्य दृष्टि द्वारा विश्वरचयिता भगवान का अनेक बार साक्षात्कार किया है। इसीलिये सबको मारने वाली मृत्यु तथा शरीर को जर्जर बना देने वाली जरा आपका स्पर्श नहीं करती हैं। ब्रह्मार्षें! इसमें भगवान परमेष्ठी का कृपाप्रसाद ही कारण हैं।
युधिष्ठिर द्वारा मार्कण्डेय से भूत काल की कथा सुनाने का अनुरोध
[6]जब सूर्य, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, अन्तरिक्ष और पृथ्वी आदि में से कोई भी शेष नहीं रह जाता, समस्त चराचर जगत उस एकार्णव के जल में डूबकर अदृश्य हो जाता हैं, देवता और असुर नष्ट हो जाते हैं तथा बड़े-बड़े नागों का संहार हो जाता हैं, उस समय कमल और उत्पल में निवास तथा शयन करने वाले सर्वभूतेश्वर अमितात्मा ब्रह्मा जी के पास रहकर केवल आप ही उनकी उपासना करते हैं। द्विजोत्तम! यह सारा पुरातन इतिहास आपका प्रत्यक्ष देखा हुआ है। इसलिये मैं आपके मुख से सबके हेतु भूत काल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! केवल आपने ही अनेक कल्पों की श्रेष्ठ रचना का बहुत बार अनुभव किया हैं। सम्पूर्ण लोकों में कभी कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो।
मार्कण्डेय जी का संवाद
मार्कण्डेय जी बोले- राजन! मैं स्वयं प्रकट होने वाले सनातन, अविनाशी, अव्यक्त, सूक्ष्म, निर्गुण एवं गुणस्वरूप पुराणपुरुष को नमस्कार करके तुम्हें वह कथा अभी सुनाता हूँ। पुरुषसिंह! ये जो हम लोगों के पास बैठे हुए पीताम्बरधारी भगवान जनार्दन हैं, ये ही संसार की सृष्टि और संहार करने वाले हैं। ये ही भगवान समस्त प्राणियों के अन्तर्यामी आत्मा और उनके रचियता हैं। ये पवित्र, अचिन्त्य एवं महान-आश्चर्यमय तत्त्व कहे जाते हैं। इनका न आदि हैं, न अन्त! ये सर्वभूतस्वरूप, अव्यय और अक्षय हैं। ये ही सबके कर्ता हैं, इनका कोई कर्ता नहीं हैं। पुरुषार्थ की प्राप्ति में भी ये ही कारण हैं। ये अन्तर्यामी आत्मा होने से सबको जानते हैं, परंतु इन्हें वेद भी नहीं जानते हैं। नृपशिरोमणे! नरश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत का प्रलय होने के पश्चात् इन आदिभूत परमेश्वर से ही यह सम्पूर्ण आश्चर्यमय जगत पुनः उत्पन्न हो जाता हैं।
चारों युगों की वर्ष-संख्या का वर्णन
चार हजार दिव्य वर्षों का एक सतयुग बताया गया हैं, उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के होते हैं[7]। तीन हजार द्रिव्य वर्षों का त्रेतायुग बताया जाता हैं, उसकी संध्या और संध्यांश के भी उतने ही ( तीन-तीन ) सौ दिव्य वर्ष होते हैं[8]। द्वापर का मान दो हजार दिव्य वर्ष है तथा उतने ही सौ दिव्य वर्ष उसकी संध्या और संध्यांवश के हैं[9] )। तदनन्तर एक हजार दिव्य वर्ष कलियुग का मान कहा गया हैं, सौ वर्ष उसकी संध्या के और सौ वर्ष संध्यांवश के बताये गये हैं[10]। संध्या और संध्यांश का मान बराबर-बराबर ही समझो। कलियुग के क्षीण हो जाने पर पुनः सतयुग का आरम्भ होता है। इस तरह बारह हजार दिव्य वर्षों की एक चतुर्युगी बतायी गयी हैं। नरश्रेष्ठ! एक हजार चतुर्युग बीतने पर ब्रह्माजी का एक दिन होता है। यह सारा जगत ब्रह्मा के दिनभर ही रहता हैं[11]इसी को विद्वान पुरुष लोकों का प्रलय मानते हैं। भरतश्रेष्ठ! सहस्र युग की समाप्ति में जब थोड़ा-सा ही समय शेष रह जाता हैं, उस समय कलियुग के अन्तिम भाग में प्रायः सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। पार्थ! उस समय यज्ञ, दान और व्रत के प्रतिनिधि कर्म चालू हो जाते हैं अर्थात यज्ञ, दान, तप मुख्य विधि से न होकर गौण विधि से नाम मात्र होने लगते हैं।
कलियुग के प्रभाव का वर्णन
युग की समाप्ति के समय ब्राह्मण शूद्रों के कर्म करते हैं और शूद्र वैश्यों की भाँति धनोपार्जन करने लगते हैं अथवा क्षत्रियों के कर्म से जीविका चलाने लगते हैं।[12]कलियुग के अन्तिम भाग में ब्राह्मण यज्ञ, स्वाध्याय, दण्ड़ और मृगचर्म का त्याग कर देंगे और[13]सब कुछ खाने-पीने वाले हो जायंगे। तात! ब्राह्मण तो जब से दूर भागेंगे और शूद्र वैदिक मंत्रों के जप में संलग्न होंगे। नरेश्वर! इस प्रकार जब लोगों के विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं, तब प्रलय का पूर्वरूप आरम्भ हो जाता है। उस समय इस पृथ्वी पर बहुत- से म्लेच्छ राजा राज्य करने लगते हैं। छल से शासन करने वाले, पापी और असत्यवादी आन्ध्र, शक, पुलिन्द, यवन, काम्बोज, बाहीक तथा शौर्य सम्पन्न आभीर इस देश के राजा होंगे। नरश्रेष्ठ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर् मके अनुसार जीविका चलाने वाला न होगा। नरेश्वर! क्षत्रिय और वैश्य भी अपना-अपना धर्म छोड़कर दूसरे वर्णों के कर्म करने लगेंगे। सबकी आयु कम होगी, सबके बल, वीर्य और पराक्रम घट जायंगे।मनुष्य नाटे कद के होंगे। उनकी शारीरिक शक्ति बहुत कम हो जायगी और उनकी बातों में सत्य का अंश बहुत कम होगा। बहुधा सारे जनपद जनशून्य होंगे। सम्पूर्ण दिशाएं पशुओं और सर्पों से भरी होंगी। युगान्तकाल उपस्थित होने पर अधिकांश मनुष्य[14]वृथा ही ब्रह्माज्ञान की बातें कहेंगे। शूद्र द्विजातियों को भो ( ऐ ) कहकर पुकारेंगे और ब्राह्मण लोग शूद्रों को आर्य अर्थात आप कहकर सम्बोधन करेंगे। पुरुषसिंह राजन! युगान्तरकाल में बहुत से जीव-जन्तु उत्पन्न हो जायंगे। सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ नासिका को उतने गन्ध युक्त नहीं प्रतीत होंगे। नरव्याघ्र! इसी प्रकार रसीले पदार्थ भी जैसे चाहिये वैसे स्वादिष्ट नहीं होंगे। राजन! उस समय की स्त्रियां नाटे कद की और बहुत संतान ( बच्चा ) पैदा करने वाली होंगी। उनमें शील और सदाचार का अभाव होगा। युगान्तरकाल में स्त्रियां मुख से भगसम्बन्धी यानि व्यभिचार की ही बातें करने वाली होंगी। राजन! युगान्तरकाल में हर देश के लोग अन्न बेचने वाले होंगे। ब्राह्मण वेद बेचने वाले तथा ( प्रायः ) स्त्रियां वेश्यावृति को अपनाने वाली होंगी'।[15][16]
जनेश्वर! युगान्तरकाल में गायों के थनों में बहुत कम दूध होगा। वृक्ष पर फल और फूल बहुत कम होंगे और उन पर[17]कौए ही अधिक बसेरे लेंगे। भूपाल! ब्राह्मण लोग ( लोभवश ) ब्रह्माहत्या- जैसे पापों से लिप्त और मिथ्यावादी नरेशों से ही दान-दक्षिणा लेंगे।। राजन! वे ब्राह्मण लोभ और मोह में फंसकर झूठे धर्म का ढोंग रचने वाले होंगे, इतना ही नहीं, वे भिक्षा के लिये सारी दिशाओं के लोगों को पीड़ित करते रहेंगे। गृहस्थ लोग कर के भार से डरकर लुटेरे बन जायंगे। ब्राह्मण मुनियों- जैसी कपट पूर्ण आकृति धारण किये वैश्यवृति से जीविका चलायेंगे और झूठे दिखावे के लिये नख तथा दाढ़ी-मूछ धारण करेंगे। नरश्रेष्ठ! धन के लोभ से ब्रह्मचारी भी आश्रमों में दम्भपूर्ण आचार को अपनायंगे और मद्यपान करके गुरुपत्नी गमन करेंगे। लोग अपने शरीर के मांस और रक्त बढ़ाने वाले इहलौकिक कर्मों में ही लगे रहेंगे। नरश्रेष्ठ! युगान्तर काल में सभी आश्रम अनेक प्रकार के पाखण्डों से व्याप्त और दूसरों से मिले हुए भोजन का ही गुणगान करने वाले होंगे। भगवान इन्द्र भी ठीक वर्षा ऋतु के समय जल की वर्षा नहीं करेंगे। भारत! भूमि में बोये हुए सभी बीज ठीक से नहीं जमेंगे। कलियुग में सब लोग हिंसा में ही सुख मानने वाले तथा अपवित्र रहेंगे। निष्पाप! उस समय अधर्म का फल बहुत अधिक मात्रा में मिलेगा। भूपाल! उस समय जो भी धर्म में तत्पर रहेगा, उसकी आयु बहुत थोड़ी देखने में आयेगी; क्योंकि उस समय कोई भी धर्म टिक नहीं सकेगा। लोग बाजार में झूठे माप-तौल बनाकर बहुत-सा माल बेचते रहेंगे। नरश्रेष्ठ! उस समय के बनिये भी बहुत माया जानने वाले ( धूर्त ) होंगे। धर्मात्मा पुरुष हानि उठाते दीखेंगे और बड़े-बड़े पापी लौकिक दृष्टि से उन्नतिशील होंगे। धर्म का बल घटेगा और अधर्म बलवान होगा। युगान्तर काल में धर्मिष्ठ मानव अल्पायु तथा दरिद्र देखे जायंगे और अधर्मीं मनुष्य दीर्घायु तथा समृद्धिशाली देखे जायंगे। युगान्तर के समय नगरों के उद्यानों में पापी पुरुष अड्डा जमायेंगे और पापपूर्ण उपायों द्वारा प्रजा के साथ दुव्र्यवहार करेंगे। राजन! थोड़े से धन का संग्रह हो जाने पर लोग धनाढ्यता के मद से उन्मत्त हो उठेंगे। यदि किसी ने विश्वास करके अपने धन को धरोहर के रूप में रख दिया तो अधिकांश पापचारी और निर्लज्ज मनुष्य उस धरोहर को हड़प लेने की चेष्टा करेंगे और उस से साफ कहे देंगे कि हमारे यहाँ तुम्हारा कुछ भी नहीं हैं। मनुष्य का मांस खाने वाले हिंसक जीव तथा पशु-पक्षी नागरिकों के बगीचों और देवालयों में भी शयन करेंगे। राजन! युगान्तरकाल में सात-आठ वर्ष की स्त्रियां गर्भ धारण करेंगी और दस-बारह वर्ष की अवस्थावा ले पुरुषों के भी पुत्र होंगे।
सोलहवें वर्ष में मनुष्यों के बाल पक जायंगे और उनकी आयु शीघ्र ही समाप्त हो जायगी। महाराज! उस समय के तरुणों की आयु क्षीण होगी और उनका शील-स्वभाव बूढ़ों का सा हो जायगा और तरुणों का जो शील-स्वभाव होना चाहिये, वह बूढ़ों में प्रकट होगा। उस समय की विपरीत स्वभाव वाली स्त्रियां अपने योग्य पतियों को भी धोखा देकर बुरे शील-स्वभाव की हो जायंगी और सेवकों तथा पशुओं के साथ भी व्यभिचार करेंगी। राजन! वीर पुरुषों की पत्नियां भी परपुरुषों का आश्रय लेंगी और पति के जीते हुए भी दूसरों से व्यभिचार करेंगी। महाराज! इस प्रकार आयु को क्षीण करने वाले सहस्र युगों के अन्तिम भाग की समाप्ति होने पर बहुत वर्षों तक वृष्टि बंद हो जाती हैं। पृथ्वीपते! तदनन्तर प्रचण्ड तेज वाले सात सूर्य उदित होकर सरिताओं और समुद्रों का सारा जल सोख लेते हैं।[18]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 1-21
- ↑ सूखे स्थानों में
- ↑ सबसे पहले
- ↑ मरीचि आदि
- ↑ योग की कला से
- ↑ महाप्रलय के समय
- ↑ इस प्रकार कुल अड़तालीस सौ दिव्य वर्ष सतयुग के हैं
- ↑ इस तरह यह युग छतीससौ दिव्य वर्षों का होता है
- ↑ अतः सब मिलकर चौबीस सौ दिव्य वर्ष द्वापर के हैं
- ↑ इस प्रकार कलियुग बारह सौ दिव्य वर्षोंका होता है
- ↑ और इन दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता हैं।
- ↑ सहस्र चतुर्युग के अन्तिम
- ↑ भक्ष्याभक्ष्य का विचार छोड़कर
- ↑ अनुभव न होते हुए भी
- ↑ अट्टमन्नं शिवो वेदो ब्राह्मणाश्च चतुष्पथाः केशो भगं समाख्यातं शूलं तद्विक्रयं विदुः।। ( नीलकण्ठ टीका )
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 22-42
- ↑ अच्छे पक्षियों की अपेक्षा
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 43-68
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| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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