श्रीनारायणीयम्
पञ्चनवतितमदशकम्
अब मैं आपके ध्यान का अभ्यास करूँगा- मैं शरीर (मस्तक और ग्रीवा)- को सीधा करके सुखासन बाँधकर बैठ जाऊँगा और नेत्रों को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करके पूरके, कुम्भक, रेचक आदि प्राणायामों द्वारा वायुमार्ग को जीत लूँगा। तत्पश्चात् अपने अधोमुख हृदयकमल को ऊर्ध्वमुख करके उसकी कर्णिका में सूर्य, चंद्र और अग्नि को उत्तरोत्तर क्रम से धारण करूँगा। पुनः उस अग्नि के मध्य में सजल जलधर की सी श्यामल कान्ति से सुशोभित कोमल अंगों वाले आपकी भावना करूँगा।।7।।
जिनकी घुँघराली अलकें अत्यंत नीली एवं कोमल हैं, जिनके कानों में चमकीले मकराकृत कुण्डल झलमला रहे हैं तथा मन्द हास मानो अमृत द्रव से आर्द्र हो रहा है, कौस्तुभ मणि की कान्ति से युक्त वनमाला तथा अन्यान्य हार-समूहों से जिनकी अद्भुत शोभा हो रही है, जिनके वक्षःस्थल के दाहिने भाग में श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित हो राह है, सुंदर भुजाओं तथा त्रिवली युक्त कोमल उदर से जिनकी निराली शोभा हो रही है, जिनके श्रीविग्रह पर स्वर्ण-सदृश कान्तिमान् पीताम्बर फहरा रहा है, जिनकी जंघाएँ बड़ी सुंदर एवं मांसल हैं तथा जिनके चरण-अरुण के से मनोहर हैं, ऐसे शोभाशाली आपकी मैं चिन्तना करूँगा।।8।। |
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