श्रीनारायणीयम्
पञ्चनवतितमदशकम्
हे ईश! मैं अपने कुतूहलपूर्ण चित्त को बारंबार आपके सर्वांगों में नियोजित करूँगा। पुनः उन सर्वांगो में भी उसे सब जगह से समेटकर एकमात्र आपके मन्द-मुस्कान से सुशोभित मुखकमल पर नियुक्त कर दूँगा। जब वह श्रीमुख पर सुस्थिर हो जाएगा, तब उसे अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म में निवेशिता करके किसी अन्य की चिन्तना ही नहीं करूँगा। इस प्रकार बारंबार प्रयत्न करता हुआ मैं योगारूढ़ हो जाऊँगा।।9।।
इस प्रकार आपके ध्यानयोग के सिद्ध हो जाने पर वे सत्त्वोत्कर्षजनित अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ तथा दूर-श्रवण आदि क्षूद्र सिद्धियाँ भी ‘पहले मैं, पहले मैं’- यों होड़ लगाती हुई आ पहुँचेंगी। परंतु मुरारे! वे सभी आपकी प्राप्ति में रोड़ा अटकाने वाली हैं, अतः मैं उन सबका आदर नहीं करूँगा। मैं तो आनन्द से परिपूर्ण आपको ही प्राप्त करना चाहता हूँ। पवनपुरपते! सभी कष्टों से मेरी रक्षा कीजिए।।10।।
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