श्रीनारायणीयम्
पञ्चनवतितमदशकम्
यद्यपि विषय-वासनाएँ इंद्रियों की अशान्ति के कारण आपके भक्त को अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करती हैं, परंतु वे उस पर विजय नहीं कर पातीं; क्योंकि बलवती भक्त आक्रमण करके पुनः दुर्बल बना देती है। जैसे दहकती हुई लपटों वाली अग्नि महती काष्ठराशि को जला डालती है, उसी प्रकार आपकी भक्ति के प्रवाह में पड़कर पाप जलकर भस्म हो जाते हैं। भला, भक्ति के आगे इंद्रियों का गर्व कहाँ ठहर सकता है?।।5।।
भगवत्स्मरण से चित्त का आनन्द विह्वल हो जाना, शरीर में रोमाञ्च हो आना, आँखों में हर्ष के आँसू छलक आना आदि प्रत्यक्ष चिह्नों से लक्षित होने वाली भक्ति के बिना चित्त की शुद्धि कैसे हो सकती है? भक्तिहीन की घोर तपस्या तथा उत्कट विद्या से ही क्या लाभ? अर्थात् भक्ति बिना वे निष्फल हो जाते हैं। आपके गुणगान रूपी सिद्धाञ्जन से बारंबार परिशोधित किया हुआ यह आत्मा निर्मल नेत्र की भाँति जिस खूबी से सूक्ष्म तत्त्व को ग्रहण करता है, वैसा बारंबार करोड़ों तर्कों के द्वारा नहीं कर सकता।।6।। |
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज