श्रीनारायणीयम्
द्वयशीतितमदशकम्
तब बाणासुर पाँच सौ धनुष धारण करके बलपूर्वक युद्ध स्थल में आ डटा। परंतु जब उसके सभी धनुष कट गये और वह विरथ हो गया, तब रणभूमि से हट गया। उसी समय माहेश्वर ज्वर आपके ज्वर के साथ लोहा लेने लगा; परंतु वह शीघ्र ही संतप्त हो उठा। वह माहेश्वर ज्वर ज्ञानी था, अतः वह आपकी स्तुति करके तथा आपके भक्तों को ज्वराभाव का वरदान देकर वहाँ से चला गया; हृदय में, ज्ञान होने पर भी तमोगुण की अधिकता से प्रायः रुद्र-पार्षद क्रूर कर्म करने वाले हो जाते हैं।।7।।
तदनन्तर नाना प्रकार के आयुधों को धारण करके उग्र पराक्रमी बाणासुर पुनः संग्राम भूमि में आ धमका। तब आपने शीघ्र ही उसके दर्प-दोष के कारण उसकी सारी भुजाओं को काट गिराया। उस समय जब शंकर जी को यह ज्ञात हुआ, तब भक्त की रक्षा के लिए वे आपकी स्तुति करने लगे। शंकर जी के कहने से आपने बाणासुर की दो भुजाएँ छोड़ दीं और उस शिवभक्त को दोनों ओर से निर्भय करके मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् बाणासुर द्वारा दिए गये दहेज को स्वीकार करके अनिरुद्ध और उषा के साथ आप अपने नगर द्वारका को लौट आये।।8।। |
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