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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
3. षष्ठी देवी का पूजन
व्रजेन्द्रनन्दन के अभिनव सुन्दर मुखकमल का प्रत्यक्ष दर्शन करे गोपांगनाएँ, गोपकुमारिकाएँ कृतार्थ हो चुकी हैं, निहाल हो गयी हैं। पर अभी तक व्रजपुर के गोपों को यह परम सौभाग्य नहीं मिला है। वे तो अपनी पत्नियों के, पुत्रियों के मुख से नन्दशिशु के अद्भुत सौन्दर्य का वर्णन सुनते है, सुनने मात्र से ही परमानन्द सिन्धु में निमग्न होकर अपनी-अपनी धारणा के अनुसार अपने हृत्पट पर शिशु का चित्रांकन करने लग जाते हैं। उनके भाव की तूलिका क्षण मात्र में ही एक अनन्त असीम अनिर्वचनीय सुन्दर मूर्ति का निर्माण कर देती है तथा उसे देख कर वे इतना तन्मय हो जाते हैं कि कुछ समय के लिये उनका बाह्यज्ञान सर्वथा लुप्त-सा हो जाता है। गोपबालाएँ अपना अनुभव सुनाती हुई गद्गद कण्ठ से कहती हैं - ओहो! शिशु के अंग इतने स्वच्छ हैं, मानो उत्कृष्ट नवनील कान्त मणि के अंकुर हों; इतने मृदु हैं, मानो तमाल तरु-पल्लव हों, इतने स्निग्ध हैं, मानो वर्षणोन्मुख नवजलधर के नवांकुर हों, इतने सुरभित हैं, मानों त्रैलोक्य-लक्ष्मी के भाल पर कस्तूरी-तिलक हों; तथा इतने सुचिक्कण, इतने आकर्षणशील हैं, मानो सौभाग्यश्री के नेत्रों में लगा हुआ सिद्धाञ्जन ही अंगों के रूप में मूर्त हो गया हो-
गोपांगनाओं का यह वर्णन मानो सजीव शिशु बनकर गोपों के हृदय-मन्दिर में प्रवेश करता है और वे एक अभूतपूर्व आनन्द सिन्धु में निमग्न हो जाते हैं। पर साथ ही प्रत्यक्ष दर्शन की उत्कण्ठा उन्हें क्षण-क्षण में उत्तरोत्तर चञ्चल बनाती जा रही है। अब तो वे व्याकुल हो गये हैं कि ऐसे विलक्षण, अभूतपूर्व शिशु को शीघ्र-से-शीघ्र प्रत्यक्ष कैसे देखें। आज उनकी उत्कण्ठा चरम सीमा को पहुँच गयी है। इसीलिये आज ज्यों ही, ‘व्रजेश्वरी का सूतिका स्नान सानन्द सम्पन्न हो चुका है’, यह समाचार व्रज में प्रसरित हुआ कि - बस, उसी क्षण समस्त गोपमण्डली पुनः नन्द भवन की ओर दौड़ पड़ी। देखते-ही-देखते व्रजपुर के समस्त गोपों की तुमुल आनन्द-ध्वनि से नन्द प्रामाद निनादित होने लग गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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