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- मथनहारि सब बगलि बुलाई, भोर भयौ, उठि मथौ दह्यौ।
- सूर नंद घरनी आपुनहू मथन मथानी-नेति गह्यौ।।
इधर तो यह सब हो रहा है, उधर परब्रह्म पुरुषोत्तम के इस स्वप्न-सी की सुन्दर भूमिका भी ठीक उसी समय प्रस्तुत हो चुकी है। नराकृति परब्रह्म स्वप्न देख रहे थे तथा उसी समय उन्हीं के परम भक्त देविर्षि नारदजी की वीणा मधुपुरी के सम्राट कंस के एकान्त कोष्ठ में झंकृत हो रही थी, प्रभु के हृदय सच्चिदानन्द देवर्षि उस नृशंस को परामर्श-दान कर रहे थे-
- नारद रिषि नृप सौं वौं भाषत।
- वै हैं काल तुम्हारे प्रगटे, काहें उन कौं राखत।।
- काली उरग रहै जमुनो में, तहँ तैं कमल मँगाबहु।
- दूत पठाइ देहु ब्रज ऊपर, नंदहि अति डरपावहु।।
- यह सुनि कैं ब्रज-लोग डरैंगे, वे सुनिहैं यह बात।
- पुडुप लैन जैहैं नँद-ढोटा, उरग करै तहँ घात।।
- यह सुनि कंस बहुत सुख पायौ, भली कही यह मोहि।
- सूरदास प्रभु कौं मुनि जानत, ध्यान धरत मन जोहि।।
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