श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(43) तुलसीदास जी के शब्दों में एक सखी बोली - (अरी सखियो!) भ्रमर ने सबको अच्छी सीख दी है। जिसके मन में जल को मथने से घी प्राप्त करने की आशा हो, वही इस (सारहीन) सीख का आदर करे ।। 1 ।। हमने कन्हैया और कुब्जा की (सारी) बात समझ ली। (अब) मधुकर से कुछ भी मत पूछो। हम गोपियों को (बिलकुल) निठल्ली (बेकाम) समझकर ही उन्होंने (इस) भ्रमर को धान की भूसी फटकने के लिये कहला भेजा है (निस्सार ज्ञान का उपदेश कहलाया है) ।। 2 ।। हमने (जब वे व्रज में थे,) उन दिनों (भी) नन्दनन्दन की तिरछी चालें देख ली थीं; पर अब तो चतुर दासी से उन्होंने चोखी चालाकी की चाल सीख ली है।। 3 ।। वे व्रजनाथ (हमारे) हाथों से, घर से, आँगन से और व्रज से तो (निकलकर) चले ही गये। अब वे (हमारे मन को छूछे ज्ञान के गड़हे में डालकर) चले ही चले जाना चाहते हैं, पर (वे ऐसा कभी नहीं कर सकते, क्योंकि) यह तो हमारे हाथ में है (हम उन्हें अपने मन से कभी नहीं जाने देंगी)।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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