चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 270वें अध्याय में स्यूमरश्मि-कपिल संवाद तथा चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के कथन का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

उत्तम साधनों द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति

कपिल ने कहा- स्यूमरश्मि! सम्‍पूर्ण लोकों के लिये वेद ही प्रमाण हैं। अत: वेदों की अवहेलना नहीं की गयी है। ब्रह्म के दो रूप समझने चाहिये- शब्‍दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म (सच्चिदानन्‍दघन परमात्‍मा)। जो पुरुष शब्‍दब्रह्म में पारंगत (वेदोक्‍त कर्मों के अनुष्‍ठान से शुद्धचित हो चुका) है, वह परब्रह्म को प्राप्‍त कर लेता है। पिता और माता वेदोक्‍त गर्भाधान की विधि से बालक के जिस शरीर को जन्‍म देते हैं, वे उस बालक के उस शरीर का संस्‍कार करते हैं। इस प्रकार जिसका शरीर वैदिक संस्‍कार से शुद्ध हो जाता है, वही ब्रह्मज्ञान का पात्र होता है। अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्‍हें यह बता रहा हूँ कि कर्म किस प्रकार अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति कराने में कारण होते हैं। जो अपना धर्म (कर्तव्‍य) समझकर बिना किसी प्रकार की भोगेच्‍छा के यज्ञों का अनुष्‍ठान करते हैं, उनके उस यज्ञ का फल वेद या इतिहास द्वारा नहीं जाना जाता है। वह प्रत्‍यक्ष है और उसे सब लोग अपनी आँखों से देखते हैं। जो प्राप्‍त हुए पदार्थों का त्‍याग सब प्रकार के लालच को छोड़कर करते हैं, जो कृपणता और असूया से रहित हैं और 'धन के उपयोग का यही सर्वोत्तम मार्ग है' ऐसा समझकर सत्‍पात्रों को दान करते हैं, कभी पापकर्म का आश्रय नहीं लेते तथा सदा कर्मयोग के साधन में ही लगे रहते हैं, उनके मानसिक संकल्‍प की सिद्धि होने लगती है और उन्‍हें विशुद्ध ज्ञानस्‍वरूप परब्रह्म के विषय में दृढ निश्‍चय हो जाता है। वे किसी पर क्रोध नहीं करते, कहीं दोषदृष्टि नहीं रखते, अहंकार तथा मात्‍सर्य से दूर रहते हैं, ज्ञान के साधनों में उनकी निष्‍ठा होती है, उनके जन्‍म, कर्म और विद्या- तीनों ही शुद्ध होते हैं तथा वे समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहते हैं। पूर्वकाल में बहुत-से ब्राह्मण और राजा ऐसे हो गये हैं, जो गृहस्‍थ आश्रम में ही रहते हुए अपने-अपने कर्मों का त्‍याग न करके उनमें निष्‍काम भाव से विधिपूर्वक लगे रहे।

वे सब प्राणियों पर समान दृष्टि रखते थे। सरल, संतुष्‍ट, ज्ञाननिष्‍ठ, प्रत्‍यक्ष फल देने वाले धर्म के अनुष्‍ठाता और शुद्धचित्त होते थे तथा शब्‍दब्रह्म एवं परब्रह्म- दोनों में ही श्रद्धा रखते थे। वे आवश्‍यक नियमों का यथावत पालन करके पहले अपने चित्त को शुद्ध करते थे और कठिनाई तथा दुर्गम स्‍थानों में पड़ जाने पर भी परस्‍पर मिलकर धर्मानुष्‍ठान में तत्‍पर रहते थे। संघ-बद्ध होकर धर्मानुष्‍ठान करने वाले उन पूर्ववर्ती पुरुषों को इसमें सुख का ही अनुभव होता था। उन्‍हें किसी प्रकार का प्रायश्चित करने की आवश्‍यकता नहीं पड़ती थी। वे सत्‍य धर्म का आश्रय लेकर ही अत्‍यन्‍त दुर्धर्ष माने जाते थे। लेशमात्र भी पाप नहीं करते थे और प्राणान्‍त का अवसर उपस्थित होने पर भी धर्म के विषय में छल से काम नहीं लेते थे। जो प्रथम श्रेणी का धर्म माना जाता था, उसी का वे स‍ब लोग साथ रहकर आचरण करते थे, अत: उनके सामने कभी प्रायश्चित करने का अवसर नहीं आता था।[1] धर्म की उस उत्तम श्रेणी में स्थित हुए उन शुद्धचित्त पुरुषों के लिये प्रायश्चित हैं ही नहीं। जिनका हृदय दुर्बल है, उन्‍हीं से पाप होता है और उन्‍हीं के लिये प्रायश्चित का विधान किया गया है- ऐसा सुनने में आता है। इस प्रकार बहुत-से ब्राह्मण पूर्वकाल में यज्ञ का निर्वाह करते थे। वे वेदविद्या के ज्ञान में बढ़े-चढ़े, पवित्र, सदाचारी और यशस्‍वी थे। वे विद्वान पुरुष प्रतिदिन कामनाओं के बंधन से मुक्‍त हो यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करते थे। उनके वे यज्ञ, वेदाध्‍ययन तथा अन्‍यान्‍य कर्म शास्‍त्रविधि के अनुसार सम्पन्‍न होते थे। उन्‍होंने काम और क्रोध को त्‍याग दिया था। उनके आचार-कर्म दूसरों के लिये आचरण में लाने अत्‍यन्‍त कठिन थे। उनके हृदय में यथासमय शास्‍त्र-ज्ञान और सत्‍संकल्‍प का क्रमश: उदय होता था। अपने उत्तम कर्मों के कारण उनकी बड़ी प्रशंसा होती थी। वे स्‍वभाव से ही पवित्रचित्त, सरल, शान्तिपरायण और स्‍वधर्मनिष्‍ठ होते थे। उनके हृदय बड़े उदार थे, उनके आचार और कर्म दूसरों के लिये आचरण में लाने में अत्‍यन्‍त कठिन थे, अत: उनका सारा शुभ कर्म ही अक्षय मोक्षरूप फल देने वाला था। यह बात सदा हमारे सुनने में आयी है।

वे अपने-अपने कर्मों से ही परिपुष्‍ट थे। उनकी तपस्‍या घोर रूप धारण कर चुकी थी। वे आश्चर्यजनक सदाचार का पालन करते थे और उसका उन्‍हें पुरातन, शाश्‍वत एवं अविनाशी ब्रह्मरूप फल प्राप्‍त होता था। धर्मों में जो किंचित सूक्ष्‍मता है, उसका आचरण करने में कितने ही लोग असमर्थ हो जाते हैं। वास्‍तव में वेदोक्‍त आचार और धर्म आपत्ति से रहित है। उसमें न तो प्रमाद है और न पराभव ही है। पूर्वकाल में सब वर्णों की उत्‍पत्ति हो जाने पर आश्रम के विषय में कोई वैषम्‍य नहीं था। तदनन्‍तर एक ही आश्रम को अवस्‍था-भेद से चार भागों में विभक्‍त किया गया। इस बात को सभी ब्राह्मण जानते रहे। श्रेष्ठ पुरुष विधिपूर्वक उन सब आश्रमों में प्रवेश करके उनके धर्म का पालन करते हुए परमगति को प्राप्‍त होते हैं। उनमें से कुछ लोग तो घर से निकलकर (अर्थात संन्‍यासी होकर), कुछ लोग वानप्रस्‍थ का आश्रय लेकर, कुछ मानव गृहस्‍थ ही रहकर और कोई ब्रह्मचर्य आश्रम का सेवन करते हुए ही उस आश्रम धर्म का पालन करके परमपद को प्राप्‍त होते हैं। उस समय वे ही द्विजगण आकाश में ज्‍योतिर्मयरूप से दिखायी देते हैं, जो कि नक्षत्रों के समान ही आकाश के विभिन्‍न स्‍थानों में अनेक तारागण हैं- इन सबने संतोष के द्वारा ही यह अनन्‍त पद प्राप्‍त किया है, ऐसा वैदिक सिद्धान्‍त है। ऐसे पुण्‍यात्‍मा पुरुष यदि कभी पुन: संसार की कर्माधिकार युक्‍त योनियों में आते या जन्‍म ग्रहण करते हैं तो वे उस योनि के संबंध से पापकर्मों द्वारा लिप्‍त नहीं होते हैं। इसी प्रकार गुरु की सेवा में तत्‍पर रहने वाला, ब्रह्मचर्य-परायण, दृढ़ निश्‍चय वाला तथा योगयुक्‍त ब्रह्मचारी ही उत्तम ब्राह्मण हो सकता है। उससे भिन्‍न अन्‍य प्रकार का ब्राह्मण निम्‍न कोटि का अथवा नाममात्र का ब्राह्मण समझा जाता है।[2]


इस प्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्म ही पुरुष का तदनुरूप नाम नियत करता है। जिनके राग-द्वेष आदि कषाय पक गये हैं, जिनके मन से तृष्‍णा निकल गयी है, जो बाहर-भीतर से शुद्ध हैं तथा जिनकी बुद्धि कल्‍याणस्‍वरूप मोक्ष में लगी हुई है, उन तत्त्‍वज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में अनन्‍त ब्रह्मज्ञान तथा शास्‍त्रज्ञान के प्रभाव से सब कुछ ब्रह्मस्‍वरूप हो गया था; यह बात सदा ही हमारे सुनने में आयी है। तुरीय ब्रह्म से संबंध रखने वाली जो उपनिषद विद्या है, उसकी प्राप्ति कराने वाले शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा तथा समाधान रूप जो धर्म हैं, वह सभी वर्ण और आश्रम के लोगों के लिये साधारण है- ऐसा स्‍मृति का कथन है। परंतु जो संयतचित्त और तप: सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ पुरुष हैं, वे ही सदा उस धर्म का साधन कर पाते हैं। संतोष ही जिसके सुख का मूल है, त्‍याग ही जिसका स्‍वरूप है, जो ज्ञान का आश्रय कहा जाता है, जिसमें मोक्षदायिनी बुद्धि-ब्रह्मसाक्षात्‍काररूप वृति नित्‍य आवश्‍यक है, वह संन्‍यास-आश्रमरूप धर्म सनातन है। यह यतिधर्म अन्‍य आश्रम के धर्मों से मिला हुआ हो या स्‍वतन्‍त्र हो, जो अपने वैराग्‍य-बल के अनुसार इसका आश्रय लेते हैं, वे कल्‍याण के भागी होते हैं। इस मार्ग से जाने वाले सभी पथिकों का परम कल्‍याण होता है; परंतु जो दुर्बल है- मन और इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण जो इसके साधन में असमर्थ है, वही यहाँ शिथिल होकर बैठा रहता है। जो बाहर और भीतर से पवित्र है, वह ब्रह्मपद का अनुसंधान करता हुआ संसार-बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है। स्यूमरश्मि ने पूछा- ब्रह्मन्! जो लोग प्राप्‍त हुए धन के द्वारा केवल भोग भोगते हैं, जो दान करते हैं, जो उस धन को यज्ञ में लगाते हैं, जो स्‍वाध्‍याय करते हैं अथवा जो त्‍याग का आश्रय लेते हैं, इनमें से कौन पुरुष मृत्‍यु के पश्‍चात प्रधानरूप से स्‍वर्गलोक पर विजय पाता है? मैं जिज्ञासुभाव से पूछ रहा हूँ; आप मुझे यह सब यथार्थ रूप से बताइये।

कपिल जी ने कहा- जिनका सात्त्विक गुण से प्राकट्य हुआ है, ऐसे सभी परिग्रह शुभ हैं; परंतु त्‍याग में जो सुख है, उसे इनमें से कोई भी नहीं पा सके हैं। इस बात को तुम भी देखते हो। स्यूमरश्मि ने पूछा- भगवन्! आप तो ज्ञाननिष्‍ठ हैं और गृहस्‍थलोग कर्मनिष्‍ठ होते हैं; परंतु आप इस समय निष्‍ठा में सभी आश्रमों की एकता का प्रतिपादन कर रहे हैं। इस प्रकार ज्ञान और कर्म की एकता और पृथकता- दोनों का भ्रम होने से इनका ठीक-ठीक अन्‍तर समझ में नहीं आता है। इसलिये आप मुझे उसे यथोचित एवं यथार्थरीति से बताने की कृपा करें। कपिल जी ने कहा- कर्म स्‍थूल और सूक्ष्‍म शरीर की शुद्धि करने वाले हैं, किंतु ज्ञान परमगतिरूप है। जब कर्मों द्वारा चित्त के रागादि दोष जल जाते हैं, तब मनुष्‍य रस-स्‍वरूप ज्ञान में स्थित हो जाता है। समस्‍त प्राणियों पर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्‍य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्‍जा, तितिक्षा और शम- ये परब्रह्म परमात्‍मा की प्राप्ति के मार्ग हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्म को प्राप्‍त कर लेता है। इस प्रकार विद्वान पुरुष को मन के द्वारा कर्म के वास्‍तविक परिणाम का निश्चय समझना चाहिये।[3]

सब ओर से शान्‍त, संतुष्‍ट, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्‍ठ विप्र जिस गति को प्राप्‍त होते हैं, उसी को परमगति कहते हैं। जो वेदों और उनके द्वारा जानने योग्‍य परब्रह्म को ठीक-ठीक जानता है, उसी को वेदवेत्ता कहते हैं। उससे भिन्‍न जो दूसरे लोग हैं, वे मुँह से वेद नहीं पढ़ते, धौंकनी के समान केवल हवा छोड़ते हैं। वेदज्ञ पुरुष सभी विषयों को जानते हैं; क्‍यों‍कि वेद में सब कुछ प्रतिष्ठित है। जो-जो वस्‍तु है और जो नहीं है, उन सबकी स्थ्‍िाति वेद में बतायी गयी है। सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों की एकमात्र निष्‍ठा यही है कि जो-जो दृश्‍य पदार्थ है वह प्रतीतिकाल में तो विद्यमान है, परंतु परमार्थ ज्ञान की स्थिति में बाधित हो जाने पर वह नहीं है। ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में सदसत्स्‍वरूप ब्रह्म ही इस जगत का आदि, मध्‍य और अन्‍त है। सब कुछ त्‍याग देने पर ही उस ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यही बात सम्‍पूर्ण वेदों में निश्चित की गयी है। वह अपने आनन्‍दस्‍वरूप से सब में अनुगत तथा अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है। अत: वह ब्रह्म ऋत, सत्‍य, ज्ञात, ज्ञातव्‍य, सबका आत्‍मा, स्‍थावर-जंगमरूप, सम्‍पूर्ण सुखरूप, कल्‍याणमय, सर्वोत्‍कृष्‍ट, अव्‍यक्‍त, सबकी उत्‍पत्ति का कारण और अविनाशी है। उस आकाश के समान असंग, अविनाशी और सदा एकरस तत्‍व का ज्ञान-नेत्रों वाले सभी पुरुष तेज, क्षमा और शान्तिरूप शुभ साधनों के द्वारा साक्षात्‍कार करते हैं। जो वास्‍तव में ब्रह्मवेता से अभिन्‍न है, उस परब्रह्म परमात्‍मा को नमस्‍कार है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 1-13
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 14-27
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 28-40
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 41-47

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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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