महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 270 श्लोक 14-27

सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (270) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 14-27 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

धर्म की उस उत्तम श्रेणी में स्थित हुए उन शुद्धचित्त पुरुषों के लिये प्रायश्चित हैं ही नहीं। जिनका हृदय दुर्बल है, उन्‍हीं से पाप होता है और उन्‍हीं के लिये प्रायश्चित का विधान किया गया है- ऐसा सुनने में आता है। इस प्रकार बहुत-से ब्राह्मण पूर्वकाल में यज्ञ का निर्वाह करते थे। वे वेदविद्या के ज्ञान में बढ़े-चढ़े, पवित्र, सदाचारी और यशस्‍वी थे। वे विद्वान पुरुष प्रतिदिन कामनाओं के बंधन से मुक्‍त हो यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करते थे। उनके वे यज्ञ, वेदाध्‍ययन तथा अन्‍यान्‍य कर्म शास्‍त्रविधि के अनुसार सम्पन्‍न होते थे। उन्‍होंने काम और क्रोध को त्‍याग दिया था। उनके आचार-कर्म दूसरों के लिये आचरण में लाने अत्‍यन्‍त कठिन थे। उनके हृदय में यथासमय शास्‍त्र-ज्ञान और सत्‍संकल्‍प का क्रमश: उदय होता था। अपने उत्तम कर्मों के कारण उनकी बड़ी प्रशंसा होती थी। वे स्‍वभाव से ही पवित्रचित्त, सरल, शान्तिपरायण और स्‍वधर्मनिष्‍ठ होते थे। उनके हृदय बड़े उदार थे, उनके आचार और कर्म दूसरों के लिये आचरण में लाने में अत्‍यन्‍त कठिन थे, अत: उनका सारा शुभ कर्म ही अक्षय मोक्षरूप फल देने वाला था। यह बात सदा हमारे सुनने में आयी है।

वे अपने-अपने कर्मों से ही परिपुष्‍ट थे। उनकी तपस्‍या घोर रूप धारण कर चुकी थी। वे आश्चर्यजनक सदाचार का पालन करते थे और उसका उन्‍हें पुरातन, शाश्‍वत एवं अविनाशी ब्रह्मरूप फल प्राप्‍त होता था। धर्मों में जो किंचित सूक्ष्‍मता है, उसका आचरण करने में कितने ही लोग असमर्थ हो जाते हैं। वास्‍तव में वेदोक्‍त आचार और धर्म आपत्ति से रहित है। उसमें न तो प्रमाद है और न पराभव ही है। पूर्वकाल में सब वर्णों की उत्‍पत्ति हो जाने पर आश्रम के विषय में कोई वैषम्‍य नहीं था। तदनन्‍तर एक ही आश्रम को अवस्‍था-भेद से चार भागों में विभक्‍त किया गया। इस बात को सभी ब्राह्मण जानते रहे। श्रेष्ठ पुरुष विधिपूर्वक उन सब आश्रमों में प्रवेश करके उनके धर्म का पालन करते हुए परमगति को प्राप्‍त होते हैं।

उनमें से कुछ लोग तो घर से निकलकर (अर्थात संन्‍यासी होकर), कुछ लोग वानप्रस्‍थ का आश्रय लेकर, कुछ मानव गृहस्‍थ ही रहकर और कोई ब्रह्मचर्य आश्रम का सेवन करते हुए ही उस आश्रम धर्म का पालन करके परमपद को प्राप्‍त होते हैं। उस समय वे ही द्विजगण आकाश में ज्‍योतिर्मयरूप से दिखायी देते हैं, जो कि नक्षत्रों के समान ही आकाश के विभिन्‍न स्‍थानों में अनेक तारागण हैं- इन सबने संतोष के द्वारा ही यह अनन्‍त पद प्राप्‍त किया है, ऐसा वैदिक सिद्धान्‍त है। ऐसे पुण्‍यात्‍मा पुरुष यदि कभी पुन: संसार की कर्माधिकार युक्‍त योनियों में आते या जन्‍म ग्रहण करते हैं तो वे उस योनि के संबंध से पापकर्मों द्वारा लिप्‍त नहीं होते हैं। इसी प्रकार गुरु की सेवा में तत्‍पर रहने वाला, ब्रह्मचर्य-परायण, दृढ़ निश्‍चय वाला तथा योगयुक्‍त ब्रह्मचारी ही उत्तम ब्राह्मण हो सकता है। उससे भिन्‍न अन्‍य प्रकार का ब्राह्मण निम्‍न कोटि का अथवा नाममात्र का ब्राह्मण समझा जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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