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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
44. वकासुर-संहार की कथा सुनकर यशोदा के मन में चिन्ता; व्रज में सर्वत्र श्रीकृष्ण लीलागान
और वास्तव में तो यह भव वेदना का प्रश्न भी बहिरंग दृष्टि से ही है। अनन्तैश्चर्य निकेतन नराकृति परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दन के ये लीलापरिकर-नन्द दम्पत्ति, व्रजगोप, गोपसुन्दरियाँ, गोपशिशु आदि सब भवाटवी में भ्रमण करने वाले जीव तो हैं नहीं जो भव वेदना उन्हें छू सके। ये तो सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्णचन्द्र के अनादिसिद्ध स्वरूपभूत परिकर हैं, सत्त्वरज तमोमयी प्रकृति से अत्यन्त परे की वस्तु हैं। इन्हें प्राकृत सृजन का कम्पन उद्वेलित नहीं करता, संहार की छाया नहीं छूती। अपनी ही महिमा में स्थित स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के साथ ही इनका नित्यनिवास है, एवं इनको सदा साथ लिये ही श्रीकृष्णचन्द्र की नित्यलीला अखण्डरूप से चलती रहती है, अनादिकाल से चल रही है, अनन्तकाल तक चलती रहेगी। यहाँ इस लीला में क्षुधा-पिपासा, शीत-उष्ण, सुख-दुःख; हास्य-क्रन्दन, जो कुछ भी है, वह सत्त्व, रज, तम इन त्रिगुण की परिणति नहीं अपितु सब के सब सच्चिदानन्दमय हैं, सच्चिदानन्दसिन्धु की लोल लहरियाँ हैं; इन पर खेलते हुए, इन का रस लेते हुए श्रीकृष्णचन्द्र कभी-कभी प्रापंचिक जगत में भी इसकी एक-दो बूँद बिखेर देते हैं प्रापंचिक जगत में इस चिन्मयी लीला का प्रकाश कर देते हैं। प्रापंचिक स्तर इस चिद्वैभव को स्पर्श तो नहीं करता, स्पर्श कर सकता ही नहीं, प्रकाश के समय भी यह प्रपंच से अत्यन्त सुदूर ही, अतिशय पृथक ही स्थित है। फिर भी अचिन्त्य सौभाग्यवश, एकमात्र भगवत्कृपा को ही जीवन का सारसम्बल बनाने वाले जो प्राणी इसका साक्षात्कार करते हैं, उनके अनादि संसरण की इति हो जाती है और वे अपने अधिकार के अनुरूप इसमें यथायोग्य यथासमय स्थान पाते हैं, आगे भी इस प्रकाश के अन्तर्हित हो जाने के अनन्तर भी, साधना का आदर्श, साधन का स्वरूप प्राप्त होता रहता है, जिसका अनुसरण कर अगणित प्रपंचगत प्राणी अपने परम निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐसे इस दिव्यातिदिव्य चिन्मय साम्राज्य के परिकरों में भव वेदना का सचमुच प्रश्न ही कहाँ बनता है? यह तो श्रीकृष्णचन्द्र की चिन्मयी लीला में प्रपंचगत भावों का साम्य देखकर होने वाली शंका का एक बहिरंग समाधान है। साथ ही त्रितापदग्ध प्राणियों के लिये एक सुन्दर संकेत है- जीवो! क्यों जल रहे हो? श्रीकृष्णलीला रसमन्दाकिनी के इस पुनीत प्रवाह में तुम भी इन गोपों की भाँति अवगाहन करो, तुम्हें शाश्वती शान्ति सहज में प्राप्त हो जायेगी! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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