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‘ओह! केवल दो अक्षिकोणों में, अत्यन्त लघु युग्म कर्ण रन्ध्रों में एक साथ दिग्दर्शन मात्र विवरण को भी सम्पूर्णतया कैसे धारण कर सकोगे? इसलिये ऊपर दृष्टि डालो, अन्तरिक्षचारी अमर वृन्द के नेत्र-गोलकों में समाकर देखो, वे इस समय क्या देख रहे हैं। अहा, उनके दृगञ्चल में अभी भी वह चित्र वर्तमान है- श्रीकृष्णचन्द्र उस अपार गोधन के समीप गये हैं। उन्होंने पाद्य आदि अर्पण करके प्रत्येक की ही अर्चना की है। तृण, यवस एवं मोदक आदि के मधुर ग्रास से सबको परितृप्त किया है। उसका स्तवन किया है, अपने कुञ्चित कुन्तलराशिमण्डित मस्तक से उनके खुरों का स्पर्श करके अभिवन्दना की है, उनका मानवर्द्धन किया है। अनन्तर ब्राह्मणों एवं पुरोहित कुल को अपरिमित दान-दक्षिणा समर्पण करके उन्हें अक्षय आनन्द में निमग्न कर दिया है। पितृचरण एवं गुरुजन वर्ग को अपने मञ्जु-अञ्जलि पुटों के संकेत से उन्होंने पुरोभाग में विराजित किया है और स्वयं उनकी ओर मुखारविन्द किये अपने अग्रज बलराम के सहित अवस्थित हो रहे हैं। व्रजराज ने एक मणिमय लकुटी उनके हस्त कमल में दे दी है-
- ‘धेनूः संनिधाय ताश्च पाद्यादिभिरर्चिता विधाय मधुरग्रासैस्तासां समग्राणां तृप्तिमाधाय तासु नतिप्रभृतिभिर्मानमुपधाय पुनश्च प्रदानदक्षिणाभिः पुरोहितादीनक्षीणानन्दान् संधाय श्रीमत्पितृचरणादीन् मञ्जूलाञ्जलिवलितमग्रतो निधाय स्थितवति साग्रजे तस्मिन्नवरजे श्रीमांस्तत्पिता व्रजराजस्तावन्मणिमयलकुटीं तत्करे घटयामास।’
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