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[[भीष्म|भीष्म जी]] ने कहा- राजन! इस विषय में इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में [[मार्कण्डेय]] के पूछने पर [[देवर्षि नारद]] ने जो उपदेश दिया था, उसी का इस इतिहास में उल्लेख हुआ है। पहले की बात है, [[गंगा]]-[[यमुना]] के मध्यभाग में जहाँ भगवती का समागम हुआ है वहीं [[पर्वत]], नारद, [[असित]], [[देवल]], आरूणेय और [[रैभ्य]]- ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियों को वहाँ पहले से विराजमान देख मार्कण्डेय जी भी गये। ऋषियों ने जब मुनि को आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रहमार्षि की उनके योग्य [[पूजा]] करके सबने पूछा-हम आपकी क्या सेवा करें? मार्कण्डेय जी ने कहा- मैंने बड़े यत्न से सत्पुरुषों का यह संग प्राप्त किया है। मुझे आषा है, यहाँ धर्म और आचार का निर्णय प्राप्त होगा। [[सतयुग|सत्ययुग]] में धर्म का अनुष्ठान सरल होता है। उस युग के समाप्त हो जाने पर धर्म का स्वरूप मनुष्यों के मोह से आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युग के धर्म का क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियों से जानना चाहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब सब ऋषियों ने मिलकर नारदजीसे कहा-तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेय जी को जिस विषय में संदेह है उसका आप निरूपण कीजिये। क्योंकि धर्म और अधर्मके विषय में होने वाले समस्त संशयों का निवारण करने में आप समर्थ हैं। ऋषियों की यह अनुमति और आदेश पाकर [[नारद|नारद जी]] ने सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले मार्कण्डेय जी से पूछा। नारद जी बोले- [[तपस्या]] से प्रकाशित होने वाले दीर्घायु मार्कण्डेय जी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जानने वाले हैं, तथापि ब्रहमन्! ज्हां आपको संशय उत्पन्न हुआ हो वह विषय उपस्थित कीजिये। महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषयमें आप सुनना चाहते हों उसे कहिये। मै उस विषय का निरूपण करूंगा। मार्कण्डेय जी बोले- प्रत्येक युग के बीत जाने पर धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्म के बहाने से अधर्म करने पर मै उस धर्म का फल कैसे प्राप्त कर सकता हूं? मेरे मन में यही प्रश्न उठता है। नारद जी ने कहा- विप्रवर! पहले सत्ययुग में धर्म अपने चारों पैरों से युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्म की प्रवृति हुई और उसने अपना सिर कुछ उंचा किया। तदनन्तर धर्म को अंशतः दूषित करने वाले त्रेतानामक दूसरे युग की प्रवृति हुई। जब वह भी बीत गया तब तीसरे युग [[द्वापर]] का पदार्पण हुआ। उस समय धर्म के दो पैरों को अधर्म नष्ट कर देता है। द्वापर के नष्ट होने पर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है उस समय लोकाचार और धर्म का जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूं, सुनिये।
 
[[भीष्म|भीष्म जी]] ने कहा- राजन! इस विषय में इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में [[मार्कण्डेय]] के पूछने पर [[देवर्षि नारद]] ने जो उपदेश दिया था, उसी का इस इतिहास में उल्लेख हुआ है। पहले की बात है, [[गंगा]]-[[यमुना]] के मध्यभाग में जहाँ भगवती का समागम हुआ है वहीं [[पर्वत]], नारद, [[असित]], [[देवल]], आरूणेय और [[रैभ्य]]- ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियों को वहाँ पहले से विराजमान देख मार्कण्डेय जी भी गये। ऋषियों ने जब मुनि को आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रहमार्षि की उनके योग्य [[पूजा]] करके सबने पूछा-हम आपकी क्या सेवा करें? मार्कण्डेय जी ने कहा- मैंने बड़े यत्न से सत्पुरुषों का यह संग प्राप्त किया है। मुझे आषा है, यहाँ धर्म और आचार का निर्णय प्राप्त होगा। [[सतयुग|सत्ययुग]] में धर्म का अनुष्ठान सरल होता है। उस युग के समाप्त हो जाने पर धर्म का स्वरूप मनुष्यों के मोह से आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युग के धर्म का क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियों से जानना चाहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब सब ऋषियों ने मिलकर नारदजीसे कहा-तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेय जी को जिस विषय में संदेह है उसका आप निरूपण कीजिये। क्योंकि धर्म और अधर्मके विषय में होने वाले समस्त संशयों का निवारण करने में आप समर्थ हैं। ऋषियों की यह अनुमति और आदेश पाकर [[नारद|नारद जी]] ने सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले मार्कण्डेय जी से पूछा। नारद जी बोले- [[तपस्या]] से प्रकाशित होने वाले दीर्घायु मार्कण्डेय जी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जानने वाले हैं, तथापि ब्रहमन्! ज्हां आपको संशय उत्पन्न हुआ हो वह विषय उपस्थित कीजिये। महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषयमें आप सुनना चाहते हों उसे कहिये। मै उस विषय का निरूपण करूंगा। मार्कण्डेय जी बोले- प्रत्येक युग के बीत जाने पर धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्म के बहाने से अधर्म करने पर मै उस धर्म का फल कैसे प्राप्त कर सकता हूं? मेरे मन में यही प्रश्न उठता है। नारद जी ने कहा- विप्रवर! पहले सत्ययुग में धर्म अपने चारों पैरों से युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्म की प्रवृति हुई और उसने अपना सिर कुछ उंचा किया। तदनन्तर धर्म को अंशतः दूषित करने वाले त्रेतानामक दूसरे युग की प्रवृति हुई। जब वह भी बीत गया तब तीसरे युग [[द्वापर]] का पदार्पण हुआ। उस समय धर्म के दो पैरों को अधर्म नष्ट कर देता है। द्वापर के नष्ट होने पर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है उस समय लोकाचार और धर्म का जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूं, सुनिये।
 
====मार्कण्डेय एवं नारद के मध्य संवाद====
 
====मार्कण्डेय एवं नारद के मध्य संवाद====
चौथे युग का नाम है नन्दिक। उस समय धर्म का एक ही पाद अंशशेष रह जाता है। तभी से मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते है। लोक में उनकी प्राण शक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचार से बहिष्कृत होते हैं। [[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- जब इस प्रकार धर्म का लोप होकर जगत में अधर्म छा जाता है तब चारों वर्णों के लिये नियत हव्य और कव्य का नाश क्यों नहीं हो जाता है ? नारद जी ने कहा- वेदमंत्र से सदा पवित्र होने के कारण हव्य और काव्य नहीं नष्ट होते हैं। यदि दाता न्यायपूर्वक उनका दान करते है तो देवता और पितर उन्हें सादर ग्रहण करते हैं। जो दाता सात्त्विक भाव से युक्त होता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। यहाँ आप्तकाम होकर वह [[स्वर्ग]] में भी अपनी इच्छा के अनुसार सम्मानित होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा- यहाँ जो चार वर्ण के लोग हैं, उनके द्वारा यदि मंत्ररहित और अवहेलना-पूर्वक हव्य-कव्यका दान दिया जाय तो उनका वह दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा- यदि ब्राह्मणों ने वैसा दान किया है तो वह [[असुर|असुरों]] को प्राप्त होता हैं, [[क्षत्रिय|क्षत्रियों]] ने किया है तो उसे राक्षस ले जाते है, वैषयो द्वारा किये गये वैसे दान को प्रेत ग्रहण करते हैं और शूद्रो द्वारा किया गया अवज्ञापूर्वक दान भूतों को प्राप्त होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा-जो नीच वर्ण में उत्पन्न होकर चारों वर्णों को उपदेश देते और हव्य-कव्य का दान देते हैं, उनका दिया हुआ दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा-जब नीच वर्ण के लोग हव्य-कव्य का दान करते है, तब उनके उस दान को न [[देवता]] ग्रहण करते है न पितर। जो यातुधान, पिषाच, भूत और [[राक्षस]] हैं, उन्हीं के लिये उस वृति का विधान किया गया है। पितरों और देवताओं ने वैसी वृति का परित्याग कर दिया है। जो सब कुछ देने वाले और उस कर्म के अधिकारी हैं, वे एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य समर्पित करते हैं, उसे देवता और पितर ग्रहण करते हैं। मार्कण्डेय जी ने पूछा- नारद जी! नीच वर्ण के दिये हुए हव्य और काव्यों की जो दशा होती है, से मैंने सुन ली। अब पुत्रों और कन्याओं के विषय में एवं इनके संयोग के विषय में मुझे कुछ बातें बताइये। नारद जी ने कहा- अब मैं कन्या- [[विवाह]] के और पुत्रों के विषयमें एवं स्त्रियों संयोग के विषय मे क्रमश बता रहा हूं, उसे सुनो।
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चौथे युग का नाम है नन्दिक। उस समय धर्म का एक ही पाद अंशशेष रह जाता है। तभी से मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते है। लोक में उनकी प्राण शक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचार से बहिष्कृत होते हैं। [[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- जब इस प्रकार धर्म का लोप होकर जगत में अधर्म छा जाता है तब चारों वर्णों के लिये नियत हव्य और कव्य का नाश क्यों नहीं हो जाता है ? नारद जी ने कहा- वेदमंत्र से सदा पवित्र होने के कारण हव्य और काव्य नहीं नष्ट होते हैं। यदि दाता न्यायपूर्वक उनका दान करते है तो देवता और पितर उन्हें सादर ग्रहण करते हैं। जो दाता सात्त्विक भाव से युक्त होता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। यहाँ आप्तकाम होकर वह [[स्वर्ग]] में भी अपनी इच्छा के अनुसार सम्मानित होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा- यहाँ जो चार वर्ण के लोग हैं, उनके द्वारा यदि मंत्ररहित और अवहेलना-पूर्वक हव्य-कव्यका दान दिया जाय तो उनका वह दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा- यदि ब्राह्मणों ने वैसा दान किया है तो वह [[असुर|असुरों]] को प्राप्त होता है, [[क्षत्रिय|क्षत्रियों]] ने किया है तो उसे राक्षस ले जाते है, वैषयो द्वारा किये गये वैसे दान को प्रेत ग्रहण करते हैं और शूद्रो द्वारा किया गया अवज्ञापूर्वक दान भूतों को प्राप्त होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा-जो नीच वर्ण में उत्पन्न होकर चारों वर्णों को उपदेश देते और हव्य-कव्य का दान देते हैं, उनका दिया हुआ दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा-जब नीच वर्ण के लोग हव्य-कव्य का दान करते है, तब उनके उस दान को न [[देवता]] ग्रहण करते है न पितर। जो यातुधान, पिषाच, भूत और [[राक्षस]] हैं, उन्हीं के लिये उस वृति का विधान किया गया है। पितरों और देवताओं ने वैसी वृति का परित्याग कर दिया है। जो सब कुछ देने वाले और उस कर्म के अधिकारी हैं, वे एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य समर्पित करते हैं, उसे देवता और पितर ग्रहण करते हैं। मार्कण्डेय जी ने पूछा- नारद जी! नीच वर्ण के दिये हुए हव्य और काव्यों की जो दशा होती है, से मैंने सुन ली। अब पुत्रों और कन्याओं के विषय में एवं इनके संयोग के विषय में मुझे कुछ बातें बताइये। नारद जी ने कहा- अब मैं कन्या- [[विवाह]] के और पुत्रों के विषयमें एवं स्त्रियों संयोग के विषय मे क्रमश बता रहा हूं, उसे सुनो।
 
==== कन्या-विवाह के और पुत्रों के विषय में वर्णन====
 
==== कन्या-विवाह के और पुत्रों के विषय में वर्णन====
जो कन्या उत्पन्न हो जाती है, उसे किसी योग्य वरको सौंप देना आवश्यक होता हैं। यदि ठीक समय पर कन्याओं का दान हो गया तो पिता धर्मफल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु रजस्वलावस्था में पहुँच जाने पर भी कन्या का कियी योग्य वर के साथ विवाह नहीं कर देता, वह उसके एक-एक मास बीतने पर भू्रण हत्या के फल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु कन्या को विषय-भोगों से वंचित करके घर में रोके रखता है, वह उस कन्या के द्वारा अनिष्ट चिन्तन किये जाने के कारण भू्रण हत्या के पाप का भागी होता है। [[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- महामुने! किस कारण से कन्याओं को मांगलिक कर्मों में नियुक्त किया जाता है? [[नारद|नारदजी]] ने कहा- कन्याओं में सदा [[लक्ष्मी]] निवास करती हैं। वे उनमें नित्य प्रतिष्ठित होती है; इसलिये प्रत्येक कन्या शोभासम्पन्न, शुभ कर्म के योग्य तथा मंगल कर्मों में पूजनीय होती है। जैसे खान में स्थित हुआ रत्न सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलों की प्राप्ति कराने वाला होता है, उसी प्रकार महालक्ष्मी स्वरूपा कन्या सम्पूर्ण जगत के लिये मंगल-कारिणी होती है। इस तरह कन्या को लक्ष्मी का सर्वोत्कृष्ट रूप जानना चाहिये। उससे देहधारियों को सुख और संतोष की प्राप्ति होती है। वह अपने सदाचार के द्वारा उच्च कुलों के चरित्र की कसौटी समझी जाती है। जो मनुष्य अपने ही वर्ण की कन्याको विवाह के द्वारा लाकर उसे पत्नी के स्थान पर प्रतिष्ठित करता है, उसकी वह साध्वी पत्नी हव्य-कव्य प्रदान करने वाले पुत्र को जन्म देती है। साध्वी स्त्री कुल की वृद्धि करती है। साध्वी स्त्री घर में परम पुष्टिरूप है तथा साध्वी स्त्री घरकी लक्ष्मी है, रति है, मूर्तिमती प्रतिष्ठा है तथा संतान परम्परा की आधार है। मार्कण्डेय जी पूछा-भगवन! मनुष्यों के शरीर में कौन-कौन-से तीर्थ हैं? मैं यह जानना चाहता हूँ। अतः आप यथार्थ रूप से मुझे बताइये। नारद जी ने कहा- मनीषी पुरुष कहते हैं, मनुष्यों के हाथ में ही पांच तीर्थ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- देवतीर्थ, ऋषितीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राहमातीर्थ और वैष्णवतीर्थ।<ref>अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ है। कनिष्ठा और अनामि का अंगुलि के मूलभाग में आर्षतीर्थ है। इसीको कायतीर्थ और प्राजापत्यतीर्थ भी कहते हैं। अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्यभाग में पितृतीर्थ है। अंगुष्ठ के मूलभाग में ब्राहमातीर्थ है और हथेली के मध्यभाग में वैष्णव तीर्थ है।</ref> हाथ में जो वैश्ववतीर्थ का भाग है, उसे सब तीर्थों में प्रधान कहा जाता है जहाँ जल रखकर आचमन करने से चारों वर्णो के कुल की वृद्धि होती है, तथा देवता और पितरों के कार्य की इहलोक और परलोक में वृद्धि होती है।
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जो कन्या उत्पन्न हो जाती है, उसे किसी योग्य वरको सौंप देना आवश्यक होता है। यदि ठीक समय पर कन्याओं का दान हो गया तो पिता धर्मफल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु रजस्वलावस्था में पहुँच जाने पर भी कन्या का कियी योग्य वर के साथ विवाह नहीं कर देता, वह उसके एक-एक मास बीतने पर भू्रण हत्या के फल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु कन्या को विषय-भोगों से वंचित करके घर में रोके रखता है, वह उस कन्या के द्वारा अनिष्ट चिन्तन किये जाने के कारण भू्रण हत्या के पाप का भागी होता है। [[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- महामुने! किस कारण से कन्याओं को मांगलिक कर्मों में नियुक्त किया जाता है? [[नारद|नारदजी]] ने कहा- कन्याओं में सदा [[लक्ष्मी]] निवास करती हैं। वे उनमें नित्य प्रतिष्ठित होती है; इसलिये प्रत्येक कन्या शोभासम्पन्न, शुभ कर्म के योग्य तथा मंगल कर्मों में पूजनीय होती है। जैसे खान में स्थित हुआ रत्न सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलों की प्राप्ति कराने वाला होता है, उसी प्रकार महालक्ष्मी स्वरूपा कन्या सम्पूर्ण जगत के लिये मंगल-कारिणी होती है। इस तरह कन्या को लक्ष्मी का सर्वोत्कृष्ट रूप जानना चाहिये। उससे देहधारियों को सुख और संतोष की प्राप्ति होती है। वह अपने सदाचार के द्वारा उच्च कुलों के चरित्र की कसौटी समझी जाती है। जो मनुष्य अपने ही वर्ण की कन्याको विवाह के द्वारा लाकर उसे पत्नी के स्थान पर प्रतिष्ठित करता है, उसकी वह साध्वी पत्नी हव्य-कव्य प्रदान करने वाले पुत्र को जन्म देती है। साध्वी स्त्री कुल की वृद्धि करती है। साध्वी स्त्री घर में परम पुष्टिरूप है तथा साध्वी स्त्री घरकी लक्ष्मी है, रति है, मूर्तिमती प्रतिष्ठा है तथा संतान परम्परा की आधार है। मार्कण्डेय जी पूछा-भगवन! मनुष्यों के शरीर में कौन-कौन-से तीर्थ हैं? मैं यह जानना चाहता हूँ। अतः आप यथार्थ रूप से मुझे बताइये। नारद जी ने कहा- मनीषी पुरुष कहते हैं, मनुष्यों के हाथ में ही पांच तीर्थ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- देवतीर्थ, ऋषितीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राहमातीर्थ और वैष्णवतीर्थ।<ref>अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ है। कनिष्ठा और अनामि का अंगुलि के मूलभाग में आर्षतीर्थ है। इसीको कायतीर्थ और प्राजापत्यतीर्थ भी कहते हैं। अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्यभाग में पितृतीर्थ है। अंगुष्ठ के मूलभाग में ब्राहमातीर्थ है और हथेली के मध्यभाग में वैष्णव तीर्थ है।</ref> हाथ में जो वैश्ववतीर्थ का भाग है, उसे सब तीर्थों में प्रधान कहा जाता है जहाँ जल रखकर आचमन करने से चारों वर्णो के कुल की वृद्धि होती है, तथा देवता और पितरों के कार्य की इहलोक और परलोक में वृद्धि होती है।
  
 
[[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- जो धर्म के अधिकारी हैं, ऐसे मनुष्यों का मन कभी-कभी धर्म के विषय में संशयापन्न हो जाता है। क्या करने से उनके धर्माचरण में विध्न न पड़े? यह मै जानना चाहता हूँ। [[नारद|नारद जी]] ने कहा-धन और नारी दोनों की अवस्था एक-सी है। दोनों ही मनुष्यों को कल्याण के पथ पर जाने में बाधा देते है- उन्हें मोहित कर लेते हैं। रतिजनित आमोद-प्रमोद से स्त्रियां मन को हर लेती है। और धन भोगों के द्वारा धर्म द्वाविंशोअध्यायः को चौपट कर देता है। धर्मात्मा श्रोत्रिय ब्राह्मण समस्त हव्य और कव्य को पाने का अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रियो को दिया हुआ हव्य-कव्य प्रज्वलित अग्नि में डाली हुई आहुति के समान सफल होता है। [[भीष्म|भीष्म जी]] कहते है- इस प्रकार ऋषियों के साथ बात-चीत करके महातपस्वी मार्कण्डेय ने नारद जी का सत्कार किया और स्वयं भी वे उनके द्वारा सम्मानित हुए। तत्पश्चात ऋषियों से विदा लेकर मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम को चले गये तथा वे ऋषि भी तीर्थों में भ्रमण करने लगे।
 
[[मार्कण्डेय|मार्कण्डेय जी]] ने पूछा- जो धर्म के अधिकारी हैं, ऐसे मनुष्यों का मन कभी-कभी धर्म के विषय में संशयापन्न हो जाता है। क्या करने से उनके धर्माचरण में विध्न न पड़े? यह मै जानना चाहता हूँ। [[नारद|नारद जी]] ने कहा-धन और नारी दोनों की अवस्था एक-सी है। दोनों ही मनुष्यों को कल्याण के पथ पर जाने में बाधा देते है- उन्हें मोहित कर लेते हैं। रतिजनित आमोद-प्रमोद से स्त्रियां मन को हर लेती है। और धन भोगों के द्वारा धर्म द्वाविंशोअध्यायः को चौपट कर देता है। धर्मात्मा श्रोत्रिय ब्राह्मण समस्त हव्य और कव्य को पाने का अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रियो को दिया हुआ हव्य-कव्य प्रज्वलित अग्नि में डाली हुई आहुति के समान सफल होता है। [[भीष्म|भीष्म जी]] कहते है- इस प्रकार ऋषियों के साथ बात-चीत करके महातपस्वी मार्कण्डेय ने नारद जी का सत्कार किया और स्वयं भी वे उनके द्वारा सम्मानित हुए। तत्पश्चात ऋषियों से विदा लेकर मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम को चले गये तथा वे ऋषि भी तीर्थों में भ्रमण करने लगे।

01:21, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 22 में युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर का वर्णन हुआ है[1]-

युधिष्ठिर के प्रश्न

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- नरेश्वर! महाराज! पुत्रों द्वारा पुरुष का कैसे उद्धार होता है? जब तक पुत्र की प्राप्ति न हो तब तक पुरुष का जीवन निष्फल क्यों माना जाता है?।

भीष्म का संवाद

भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में मार्कण्डेय के पूछने पर देवर्षि नारद ने जो उपदेश दिया था, उसी का इस इतिहास में उल्लेख हुआ है। पहले की बात है, गंगा-यमुना के मध्यभाग में जहाँ भगवती का समागम हुआ है वहीं पर्वत, नारद, असित, देवल, आरूणेय और रैभ्य- ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियों को वहाँ पहले से विराजमान देख मार्कण्डेय जी भी गये। ऋषियों ने जब मुनि को आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रहमार्षि की उनके योग्य पूजा करके सबने पूछा-हम आपकी क्या सेवा करें? मार्कण्डेय जी ने कहा- मैंने बड़े यत्न से सत्पुरुषों का यह संग प्राप्त किया है। मुझे आषा है, यहाँ धर्म और आचार का निर्णय प्राप्त होगा। सत्ययुग में धर्म का अनुष्ठान सरल होता है। उस युग के समाप्त हो जाने पर धर्म का स्वरूप मनुष्यों के मोह से आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युग के धर्म का क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियों से जानना चाहता हूँ। भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब सब ऋषियों ने मिलकर नारदजीसे कहा-तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेय जी को जिस विषय में संदेह है उसका आप निरूपण कीजिये। क्योंकि धर्म और अधर्मके विषय में होने वाले समस्त संशयों का निवारण करने में आप समर्थ हैं। ऋषियों की यह अनुमति और आदेश पाकर नारद जी ने सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले मार्कण्डेय जी से पूछा। नारद जी बोले- तपस्या से प्रकाशित होने वाले दीर्घायु मार्कण्डेय जी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जानने वाले हैं, तथापि ब्रहमन्! ज्हां आपको संशय उत्पन्न हुआ हो वह विषय उपस्थित कीजिये। महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषयमें आप सुनना चाहते हों उसे कहिये। मै उस विषय का निरूपण करूंगा। मार्कण्डेय जी बोले- प्रत्येक युग के बीत जाने पर धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्म के बहाने से अधर्म करने पर मै उस धर्म का फल कैसे प्राप्त कर सकता हूं? मेरे मन में यही प्रश्न उठता है। नारद जी ने कहा- विप्रवर! पहले सत्ययुग में धर्म अपने चारों पैरों से युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्म की प्रवृति हुई और उसने अपना सिर कुछ उंचा किया। तदनन्तर धर्म को अंशतः दूषित करने वाले त्रेतानामक दूसरे युग की प्रवृति हुई। जब वह भी बीत गया तब तीसरे युग द्वापर का पदार्पण हुआ। उस समय धर्म के दो पैरों को अधर्म नष्ट कर देता है। द्वापर के नष्ट होने पर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है उस समय लोकाचार और धर्म का जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूं, सुनिये।

मार्कण्डेय एवं नारद के मध्य संवाद

चौथे युग का नाम है नन्दिक। उस समय धर्म का एक ही पाद अंशशेष रह जाता है। तभी से मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते है। लोक में उनकी प्राण शक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचार से बहिष्कृत होते हैं। मार्कण्डेय जी ने पूछा- जब इस प्रकार धर्म का लोप होकर जगत में अधर्म छा जाता है तब चारों वर्णों के लिये नियत हव्य और कव्य का नाश क्यों नहीं हो जाता है ? नारद जी ने कहा- वेदमंत्र से सदा पवित्र होने के कारण हव्य और काव्य नहीं नष्ट होते हैं। यदि दाता न्यायपूर्वक उनका दान करते है तो देवता और पितर उन्हें सादर ग्रहण करते हैं। जो दाता सात्त्विक भाव से युक्त होता है, वह इस लोक में सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। यहाँ आप्तकाम होकर वह स्वर्ग में भी अपनी इच्छा के अनुसार सम्मानित होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा- यहाँ जो चार वर्ण के लोग हैं, उनके द्वारा यदि मंत्ररहित और अवहेलना-पूर्वक हव्य-कव्यका दान दिया जाय तो उनका वह दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा- यदि ब्राह्मणों ने वैसा दान किया है तो वह असुरों को प्राप्त होता है, क्षत्रियों ने किया है तो उसे राक्षस ले जाते है, वैषयो द्वारा किये गये वैसे दान को प्रेत ग्रहण करते हैं और शूद्रो द्वारा किया गया अवज्ञापूर्वक दान भूतों को प्राप्त होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा-जो नीच वर्ण में उत्पन्न होकर चारों वर्णों को उपदेश देते और हव्य-कव्य का दान देते हैं, उनका दिया हुआ दान कहां जाता है? नारद जी ने कहा-जब नीच वर्ण के लोग हव्य-कव्य का दान करते है, तब उनके उस दान को न देवता ग्रहण करते है न पितर। जो यातुधान, पिषाच, भूत और राक्षस हैं, उन्हीं के लिये उस वृति का विधान किया गया है। पितरों और देवताओं ने वैसी वृति का परित्याग कर दिया है। जो सब कुछ देने वाले और उस कर्म के अधिकारी हैं, वे एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य समर्पित करते हैं, उसे देवता और पितर ग्रहण करते हैं। मार्कण्डेय जी ने पूछा- नारद जी! नीच वर्ण के दिये हुए हव्य और काव्यों की जो दशा होती है, से मैंने सुन ली। अब पुत्रों और कन्याओं के विषय में एवं इनके संयोग के विषय में मुझे कुछ बातें बताइये। नारद जी ने कहा- अब मैं कन्या- विवाह के और पुत्रों के विषयमें एवं स्त्रियों संयोग के विषय मे क्रमश बता रहा हूं, उसे सुनो।

कन्या-विवाह के और पुत्रों के विषय में वर्णन

जो कन्या उत्पन्न हो जाती है, उसे किसी योग्य वरको सौंप देना आवश्यक होता है। यदि ठीक समय पर कन्याओं का दान हो गया तो पिता धर्मफल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु रजस्वलावस्था में पहुँच जाने पर भी कन्या का कियी योग्य वर के साथ विवाह नहीं कर देता, वह उसके एक-एक मास बीतने पर भू्रण हत्या के फल का भागी होता है। जो भाई-बन्धु कन्या को विषय-भोगों से वंचित करके घर में रोके रखता है, वह उस कन्या के द्वारा अनिष्ट चिन्तन किये जाने के कारण भू्रण हत्या के पाप का भागी होता है। मार्कण्डेय जी ने पूछा- महामुने! किस कारण से कन्याओं को मांगलिक कर्मों में नियुक्त किया जाता है? नारदजी ने कहा- कन्याओं में सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। वे उनमें नित्य प्रतिष्ठित होती है; इसलिये प्रत्येक कन्या शोभासम्पन्न, शुभ कर्म के योग्य तथा मंगल कर्मों में पूजनीय होती है। जैसे खान में स्थित हुआ रत्न सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलों की प्राप्ति कराने वाला होता है, उसी प्रकार महालक्ष्मी स्वरूपा कन्या सम्पूर्ण जगत के लिये मंगल-कारिणी होती है। इस तरह कन्या को लक्ष्मी का सर्वोत्कृष्ट रूप जानना चाहिये। उससे देहधारियों को सुख और संतोष की प्राप्ति होती है। वह अपने सदाचार के द्वारा उच्च कुलों के चरित्र की कसौटी समझी जाती है। जो मनुष्य अपने ही वर्ण की कन्याको विवाह के द्वारा लाकर उसे पत्नी के स्थान पर प्रतिष्ठित करता है, उसकी वह साध्वी पत्नी हव्य-कव्य प्रदान करने वाले पुत्र को जन्म देती है। साध्वी स्त्री कुल की वृद्धि करती है। साध्वी स्त्री घर में परम पुष्टिरूप है तथा साध्वी स्त्री घरकी लक्ष्मी है, रति है, मूर्तिमती प्रतिष्ठा है तथा संतान परम्परा की आधार है। मार्कण्डेय जी पूछा-भगवन! मनुष्यों के शरीर में कौन-कौन-से तीर्थ हैं? मैं यह जानना चाहता हूँ। अतः आप यथार्थ रूप से मुझे बताइये। नारद जी ने कहा- मनीषी पुरुष कहते हैं, मनुष्यों के हाथ में ही पांच तीर्थ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- देवतीर्थ, ऋषितीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राहमातीर्थ और वैष्णवतीर्थ।[2] हाथ में जो वैश्ववतीर्थ का भाग है, उसे सब तीर्थों में प्रधान कहा जाता है जहाँ जल रखकर आचमन करने से चारों वर्णो के कुल की वृद्धि होती है, तथा देवता और पितरों के कार्य की इहलोक और परलोक में वृद्धि होती है।

मार्कण्डेय जी ने पूछा- जो धर्म के अधिकारी हैं, ऐसे मनुष्यों का मन कभी-कभी धर्म के विषय में संशयापन्न हो जाता है। क्या करने से उनके धर्माचरण में विध्न न पड़े? यह मै जानना चाहता हूँ। नारद जी ने कहा-धन और नारी दोनों की अवस्था एक-सी है। दोनों ही मनुष्यों को कल्याण के पथ पर जाने में बाधा देते है- उन्हें मोहित कर लेते हैं। रतिजनित आमोद-प्रमोद से स्त्रियां मन को हर लेती है। और धन भोगों के द्वारा धर्म द्वाविंशोअध्यायः को चौपट कर देता है। धर्मात्मा श्रोत्रिय ब्राह्मण समस्त हव्य और कव्य को पाने का अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रियो को दिया हुआ हव्य-कव्य प्रज्वलित अग्नि में डाली हुई आहुति के समान सफल होता है। भीष्म जी कहते है- इस प्रकार ऋषियों के साथ बात-चीत करके महातपस्वी मार्कण्डेय ने नारद जी का सत्कार किया और स्वयं भी वे उनके द्वारा सम्मानित हुए। तत्पश्चात ऋषियों से विदा लेकर मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रम को चले गये तथा वे ऋषि भी तीर्थों में भ्रमण करने लगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-17
  2. अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ है। कनिष्ठा और अनामि का अंगुलि के मूलभाग में आर्षतीर्थ है। इसीको कायतीर्थ और प्राजापत्यतीर्थ भी कहते हैं। अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्यभाग में पितृतीर्थ है। अंगुष्ठ के मूलभाग में ब्राहमातीर्थ है और हथेली के मध्यभाग में वैष्णव तीर्थ है।

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दान-धर्म-पर्व
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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की 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माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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